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नरेंद्र भाई के सौ अपकर्म और एक सत्कर्म

एक बात के लिए तो नरेंद्र भाई को दाद भी देनी पड़ेगी कि उन्होंने भाजपा में परिवारवाद का तक़रीबन अंतिम संस्कार कर दिया है। 2024 आते-आते वे भाजपा में परिवारवाद के बचे-खुचे टीलों को भी ध्वस्त कर डालेंगे। भले ही वे ऐसा इसलिए कर पाए हों कि उनका ख़ुद का परिवार है नहीं और अपने भाई-बहन के परिवारों में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है, मगर किसी राजनीतिक दल को पारिवारिक विरासत की कुरीति से मुक्ति दिलाने का काम ख़ुशनुमा वादियों की सैर नहीं है। भारत में ऐसा कौन-सा राजनीतिक दल है, जो गले-गले तक नही तो टखनों-टखनों तक परिवारवाद के गारे में न धंसा हुआ हो।

नौ साल में नरेंद्र भाई मोदी ने बहुत कुछ किया है। सियासत की समावेशी संस्कृति का नाश कर दिया है। विधायी परंपराओं को नेस्तनाबूत कर दिया है। संवाद के तमाम मंचों को एकांगी खूंटी पर लटका दिया है। जनादेश को छिन्न-भिन्न कर अपनी गठरी में डाल लेने की कला पर विजय प्राप्त कर ली है। ख़ुद को पूरी बेरहमी से सब पर थोप दिया है। सारे उपलब्ध औजारों का इस्तेमाल कर प्रतिपक्ष को अपंग बना डाला है। भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी अपने से असहमत एक-एक को चुन-चुन कर ठिकाने लगा दिया है। अपने पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में बैठे खुद्दारों तक की मुश्कें बांध दी हैं। बिना आगा-पीछा देखे उन्होंने अपने मन की तमाम तरंगों को धरती पर बिखेरा और आसमान में उछाला है। अपनी इस अदा पर लोगों से ताली-थाली भी उन्होंने मन-बेमन बजवा ही ली है।

नरेंद्र भाई के सियासी, सामाजिक और सांस्कृतिक अपकर्मों की फे़हरिस्त लंबी है। उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों और संवेदनशील ज़िम्मेदारी संभालने वाले प्रशासनिक अधिकारियों को राजनीतिक पदों से नवाज़ने का अपूर्व सिलसिला शुरू कर इन बरामदों में लार-टपकाऊ प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने की गंभीर ख़ता की। ऐसा नहीं है कि पहले कभी ऐसा न हुआ हो, मगर नरेंद्र भाई के नौ साल में जितने तालठोकू अंदाज़ में यह हुआ, पहले कभी नहीं हुआ। इसने पर्दादारी की चादर को तार-तार कर दिया है। सुल्तान की सेवा में सर्वस्व सौंप देने वालों की कतार में ऐसे चेहरों की तादाद तेज़ी से बढ़ गई है, जिनसे स्वायत्त और निष्पक्ष होने की उम्मीद की जाती है।

अपने सहचर-पूंजीपति लंगोटियों का आंचल भी नरेंद्र भाई ने छलक-छलक स्तर तक भर डाला है। उनके इस जु़नून से मंझले उद्योग-व्यवसाय तबाह हो गए तो हो गए। अपने हमजोलियों के प्रति उनके इस दीवानेपन ने ग़रीब-अमीर को घनघोर असामनता की महानदी के दो पाटों पर अलग-अलग खड़ा कर दिया तो कर दिया। सब उन के ठेंगे पर। ऐसा तो खै़र कोई वक़्त भारत की राजनीति में नहीं रहा होगा, जब हुक़्मरानों ने अपने चहेतों को थोड़ी-बहुत बख़्शीशें न दी हों और थोड़ी-बहुत पनाह न दी हो, लेकिन नरेंद्र भाई के युग में पारितोषिक और अभिरक्षण प्रणाली के ऐसे निर्वस्त्र आयाम स्थापित हुए हैं, जिनके दर्शन से सब की आंखें फटी-की-फटी रह गई हैं। क्या दूसरों की आह को भी चरम-बदनाम कर देने और अपनों के सौ खून भी माफ़ कर देने का यह माद्दा किसी और में आप ने पहले कभी देखा था? क्या पहले कोई रियासत अपने यहां आ कर फ़रारी काटने का ऐसा खुला आमंत्रण दिया करती थी? सकल दंड-मुक्ति का अभयदान देने की यह कूवत क्या पहले आप ने किसी में देखी थी?

बावजूद इन सब कुकर्मों के, एक बात के लिए तो नरेंद्र भाई को दाद भी देनी पड़ेगी कि उन्होंने भाजपा में परिवारवाद का तक़रीबन अंतिम संस्कार कर दिया है। 2024 आते-आते वे भाजपा में परिवारवाद के बचे-खुचे टीलों को भी ध्वस्त कर डालेंगे। भले ही वे ऐसा इसलिए कर पाए हों कि उनका ख़ुद का परिवार है नहीं और अपने भाई-बहन के परिवारों में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है, मगर किसी राजनीतिक दल को पारिवारिक विरासत की कुरीति से मुक्ति दिलाने का काम ख़ुशनुमा वादियों की सैर नहीं है। भारत में ऐसा कौन-सा राजनीतिक दल है, जो गले-गले तक नही तो टखनों-टखनों तक परिवारवाद के गारे में न धंसा हुआ हो। क्या उन में से किसी के भी नेतृत्व में ऐसा करने का साहस है? इस गलीज़ परंपरा से छुटकारा पाने की छटपटाहट क्या आप को कहीं दूर-दूर तक दिखाई भी देती है?

मैं नहीं कहता कि भाजपा को परिवारवाद से मुक्त कराने का पुण्य नरेंद्र भाई के पापों को धो सकता है। इस से उन के पापों की गठरी हलकी नहीं हो जाएगी। लेकिन जो दिन-रात लोकतंत्र, वाणी-स्वातंत्र्य, समानता, समावेशिता और इंसाफ़ के लिए संघर्ष का पुण्य-कर्म कर रहे हैं, उन राजनीतिक दलों में मौजूद परिवारवाद का कलुषित मकड़जाल ने क्या उन के पापों की गठरी को बेहिसाब भारी नहीं बना दिया है? मुझे 2019 के मई महीने के आख़िरी शनिवार को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की वह बैठक याद है, जिसमें लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने पार्टी-अध्यक्ष पद से इस्तीफ़े की पेशकश की थी। वे दो बातों को ले कर बेतरह आहत थे। एक, चुनाव अभियान के दौरान उन्हें अपनी ही पार्टी के नेताओं से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला और उन्होंने कई मौक़ों पर ख़ुद को एकदम अकेला पाया। दो, आमतौर पर कांग्रेस का हर नेता चुनाव में अपने परिवारजन को उम्मीदवार बनवाने की कोशिश करता रहता है।

राहुल ने अंततः 3 जुलाई 2019 की अपराह्न 3 बज कर 37 मिनट पर कांग्रेस-अध्यक्ष पद से इस्तीफ़े का ट्वीट पोस्ट कर दिया। बीच के एक महीने में उन्होंने कई लोगों से इस बात का ज़िक्र किया कि भाजपा से तो मैदानी लड़ाई वे लड़ लें, लेकिन अपनी ही पार्टी के भीतर की रूढ़ियों से निपटना उन के लिए नामुमकिन-सा हो गया है। मैं मानता हूं कि राहुल में हमेशा से यह संकल्प रहा है कि अगर उनका वश चलता तो वे कांग्रेस को परिवारवाद से मुक्त कर देते। आख़िर उन्होंने भीतर-बाहर के तमाम विरोध के बावजूद ऐलान कर ही दिया था कि अब न तो वे स्वयं पार्टी के अध्यक्ष बनेंगे और न उनके परिवार का कोई भी सदस्य यह पद संभालेगा। उन्होंने यह कर भी दिखाया। लेकिन वे उतना ही कर सके, जितना निजी तौर पर उन के ख़ुद के हाथ में था। अलग-अलग चुनावों में पारिवारिक विरासतधारी प्रत्याशियों की बाढ़ वे नहीं रोक पाए। अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति के सदस्यों और प्रदेश कांग्रेस प्रतिनिधियों के ताजा निर्वाचन-चयन में भी परिवारवाद के ध्वजवंदन से कांग्रेस किसी भी राज्य में नहीं बच पाई।

मुझे राहुल की यह असहाय स्थिति देख कर दुःख होता है कि कोई दस महीने पहले उदयपुर में हुए कांग्रेस के चिंतन शिविर में पारित हुए संकल्प-पत्र के ज़्यादातर महत्वपूर्ण बिंदुओं को भी ठंडे बस्ते में जाने से वे रोक नहीं पाए। एक व्यक्ति, एक पद और एक परिवार, एक टिकट के फ़ैसलों पर जमती धूल की परत दिनोंदिन मोटी होती जा रही है। जब पार्टी के सर्वोच्च नेता होने के बावजूद राहुल गांधी को और पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष होने के बावजूद सोनिया गांधी को कांग्रेस की शकुनि-मंडली ने इन संकल्पों पर अमल नहीं करने दिया तो, माफ़ करें, नवनिर्वाचित अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से तो यह दृढ़ता दिखाने की उम्मीद करना ही बेमानी है। वे नरेंद्र भाई के खि़लाफ़ भले कितनी ही ज़ोर से दहाडते रहें, अपनी पार्टी के उन नारेबाज़ों को ख़ामोश करने की हिम्मत उन में नहीं है, जो यह निर्लज्ज दलील देते हैं कि परिवारवाद तो हर क्षेत्र में है तो राजनीति में है तो क्या ग़लत है?

जो भले ही जानते हैं, लेकिन मानते नहीं कि, निजी गुल्लकों और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की विरासत-परंपरा तय करने के नियम अलग-अलग हैं, उन की दुराग्रही सोच का प्रतिकार किसी भी तर्क से नहीं किया जा सकता। यह काम तो किसी दिन कोई मतदाता महासमूह ही गांव की चौपालों और शहरों के चौराहों पर राजनीतिकों से शपथ-पत्र भरवा कर करेगा कि उन्हें तभी वोट मिलेगा, जब वे एक व्यक्ति, एक पद और एक परिवार, एक टिकट का अपने जीवनकाल में पालन करेंगे। मेरे मुंगेरी-ख़्वाबों के एक-न-एक दिन पूरे होने की दुआ कीजिए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

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