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यूपी में का बा? वसंत आया बा!

Byशकील अख़्तर,
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यूपी में का बा? वसंत आया बा!
बदले मौसम में क्या हो जाए कहना मुश्किल है। पांच साल कहीं कोई विरोध का स्वर उभर नहीं पाया और अब अचानक एक लोकगीत गायिका ने हलचल मचा दी। का बा! यूपी में का बा  ! नेहा सिंह राठौर का यह सवाल गांव गांव गूंज रहा है। और इसकी सफलता इस बात से मालूम पड़ती है कि इसके जवाब में न जाने कितने लोकगीत बनवा लिए गए। लेकिन चल नेहा सिंह राठौर का ‘का बा’ ही रहा है। यह सब किस बात के संकेत हैं। मौसम के बदलने के। इस बार गजब सर्दी पड़ी। मगर वसंत आ ही गया। भीषण सर्दी का एक लंबा दौर था। मगर अब सूरज निकलने भी लगा और उसमें गर्माहट भी आ गई। अब इसकी गर्मी कम करना मुश्किल काम है। वंसत को रोका नहीं जा सकता। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जैसे बीज कठोर से कठोर जमीन को तोड़ निकल आता है। वैसे समय आने पर हर चीज स्वत: होने लगती है। पिछले पांच सालों से ऐसी खबरें नहीं आती थीं कि यूपी में सबसे ज्यादा महिला हिंसा हो रही है। अब लोकसभा में बताया गया कि पिछले चार साल में यूपी में सबसे अधिक महिला हिंसा के मामले हुए। यह जवाब केन्द्र सरकार का है। और यूपी में पहले दौर के मतदान के ठीक पहले आया है। यूपी के मुख्यमंत्री के दावों के ठीक विपरीत। लोकसभा में भाजपा के ही एक सदस्य ने महिला हिंसा पर सवाल पूछा था। इसके जवाब में सरकार में माना कि महिला हिंसा के मामले बढ़े हैं और यूपी टाप पर है। यूपी के बारे में बताया कि अभी इसी साल एक से 25 जनवरी तक देशभर से महिला हिंसा की जितनी शिकायतें मिली हैं उनमें से आधी से ज्यादा केवल यूपी की हैं। यूपी में पिछले साल 15,828 शिकायतें आईं थीं जो दूसरे नंबर के राज्य दिल्ली से पांच गुना से ज्यादा थीं। पूरे चार साल के जो आंकड़े दिए हैं वे ऐसे ही हैं।  क्या इससे पहले ऐसे जवाब आते थे? संसद में सैंकड़ों सवाल पूछे जाते हैं। मगर सांसद शिकायत करते हैं कि उनको जवाब नहीं मिलते। कई वरिष्ठ सांसदों के जवाब कई कई सत्र तक नहीं आते। और आते भी हैं तो आधे अधुरे। तो चुनाव के दौर में उस केन्द्र सरकार की तरफ से ऐसे जवाब आना जिस पर विपक्ष का आरोप हो कि वह सूचनाओं को सामने आने से रोक रही है, आश्चर्यजनक है। कई मामलों में तो जैसे कोरोना से हुई मौतों पर तो सुप्रीम कोर्ट कह रही हैं कि मौतों के आंकड़ें पूरे सामने नहीं आए हैं। राहुल ने पेगासस जासूसी मामले में आरोप लगाए हैं कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गलत जानकारी दी। ऐसे में किसी भी ऐसी सूचना का सामने आना जो एक राज्य सरकार के लिए मुसीबत बने क्या कहलाता है? क्या संकेत हैं? जबकि इस चुनाव में प्रियंका गांधी ने महिला सुरक्षा, सशक्तिकरण को एक बड़ा मुद्दा बना रखा है। चालीस प्रतिशत टिकट वे महिलाओं को दे रही हैं। इसलिए जैसे कहा कि इस बार बहुत कठिन रहे शीतकाल का भी अंत हो रहा है और वंसत दस्तक दे रहा है। बदले मौसम में क्या हो जाए कहना मुश्किल है। पांच साल कहीं कोई विरोध का स्वर उभर नहीं पाया और अब अचानक एक लोकगीत गायिका ने हलचल मचा दी। का बा! यूपी में का बा  ! नेहा सिंह राठौर का यह सवाल गांव गांव गूंज रहा है। और इसकी सफलता इस बात से मालूम पड़ती है कि इसके जवाब में न जाने कितने लोकगीत बनवा लिए गए। लेकिन चल नेहा सिंह राठौर का ‘का बा’ ही रहा है। यह सब किस बात के संकेत हैं। मौसम के बदलने के। प्रधानमंत्री मोदी उत्तरप्रदेश अब जाने में कंजूसी दर्शा रहे है।  बिजनौर में खूब खुली धूप चमक रही थी। मगर प्रधानमंत्री जो जनसभाओं में बोलना बहुत पंसद करते हैं वे आखिरी मिनट में नहीं पहुचे। बताया गया कि मौसम की खराबी से उनका कार्यक्रम रद्द किया गया है। मतलब अच्छा मौसम भी अब खराब लगने लगा है। बाद में प्रधानमंत्री ने वर्चुअल रैली को संबोधित किया। मतलब दिल्ली से ही विडियो के जरिए। ये सब अचानक ही हुआ। चुनावों की घोषणा से पहले प्रधानमंत्री मोदी खूब यूपी आ रहे थे। मगर अब प्रोग्राम देकर भी कैंसिल हो रहे हैं। उधर विपक्ष के साथ उल्टा हुआ। हुआ वह भी अचानक। उनके लिए सुखद। चुनाव से पहले जो अखिलेश कहीं नहीं थे वे अचानक हर जगह दिखने लगे। उनकी सभाओं में जबर्दस्त भीड़ आने लगी। और यूपी में कई चुनावों बाद यह देखा गया कि हर जात पात के लोग एक साथ आ रहे हैं। खासतौर से यह कहा जा रहा था कि ब्राह्मण और दलित सपा के साथ नहीं है। ओबीसी में भी गैर यादवों को लेकर सवाल उठाए जा रहे थे। मगर अब सबका समर्थन अखिलेश को मिलता दिख रहा है। यह सब मौसम बदलने के संकेत नहीं हैं तो क्या हैं? इसके ठोस कारण भी हैं। क्या? बातें। केवल बातें। बोलने को सर्वोच्च गुण मानना। याद कीजिए। मनमोहन सिंह पर सबसे बड़ा आरोप क्या लगता था? मौन मनमोहन सिंह। जैसे कम बोलना, सिर्फ काम की बात बोलना अपराध हो। और बढ़ा चढ़ाकर बोलना, झूठे दावे करना, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में एक प्रत्याशी का चुनाव प्रचार कर आना, अबकि बार ट्रंप सरकार कहकर बहुत बड़ा गुण हो। हमारे यहां गांव, देहात का बड़ा प्रसिद्ध मुहावरा है कि बातों से जग नहीं जीता जाता। मगर जब आप जनता को भी अपना भक्त समझ लेते हैं तो कुछ भी कहते रहते हैं। यह सोचकर कि वह इसे सिर माथे पर लेगी। मगर जनता के भोलेपन की एक सीमा है। जब खुद उस पर आती है। उसके बाल बच्चों पर आती है तो उसकी छठी इन्द्रीय जागृत हो जाती है। इसे सहज ज्ञान, सामान्य बोध (कामन सेंस) कहा जाता है। अब जब प्रधानमंत्री कोरोना की भी सारी जिम्मेदारी विपक्ष पर डाल रहे हैं तो जनता के मन में यह सवाल क्यों नहीं पैदा होगा कि जब आपकी सरकार जैसा की आप कहते हैं कि अब तक की सबसे मजबूत सरकार है तो उसके रहते विपक्ष कैसे कोरोना फैला गया और आप खामोशी से देखते रहे? एक तरफ तो आप देश की हर समस्या के लिए नेहरू को और कांग्रेस की बाकी सरकारों को दोषी ठहराते और दूसरी तरफ अपने राज में भी हर समस्या के लिए उन्हें ही दोषी बता  रहे हैं तो फिर आप क्या कर रहे हैं? केवल बातें! दावे ! आरोप!  राहुल ने लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर 44 मिनट बोला। प्रधानमंत्री ने राहुल का जवाब देने के लिए इससे दो गुना समय लिया। डेढ़ घंटा। और क्या कहा कि कोरना विपक्ष ने फैलाया। कांग्रेस ने फैलाया। यह गजब बात है। हालांकि इससे बड़ा गजब भी गोदी मीडिया और व्हाटसएप कर सकते हैं कि वे यह बताना शुरू कर दें कि कैसे कोरोना के वायरस और कांग्रेस में गठजोड़ हुआ। उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। मगर बड़ी बात यह है कि अब जनता मानने को तैयार नहीं है। यही बदलाव है। रितुराज वसंत की तरह। जो किसी के रोके नहीं रुकता। फूल पत्ती, खेत फसलें सब खिलने लगते हैं। और सबसे बड़ी बात है निशंक। निर्भय। अब जब सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर गांव पहुंचे मजदूर यह सुनेंगे कि कोरोना उन्होंने फैलाया तो उन पर क्या गुजरेगी! चार घंटे के नोटिस पर लाकडाऊन। और सेठों द्वारा मजदूरों को निकालना। उसी समय घर, कारखाने खाली करवाना। मजदूर कहां जाता? कई बुढे कह रहे थे कि काश घरती फट जाए हम उसमें समा जाए! आसमान हमें निगल ले! हमसे अपने बच्चों और उनके छोटे छोटे बच्चों की यह हालत नहीं देखी जा रही। न खाने को कुछ है न रहने को जगह। सड़क पर पुलिस लाठियां मार रही है। मुर्गा बना रही है। और उसके अलावा अन्य कोई जगह हमारे पास नहीं। मगर ऐसा होता तो नहीं। न धरती ने उनकी सुनी न आसमान ने। उसी सड़क पर वे चले, गिरते पड़ते, लूटे पिटे हफ्तों, महीनों। ये दुनिया की महानतम त्रासदियों में से एक है। अभी भारत में तो इस पर किसी ने कोई महाआख्यान, महाकाव्य, महावृतान्त लिखा नहीं। हो सकता है कभी आए। मगर फिलहाल तो वे अपनी त्रासदी का मजाक उड़ाना सुनने पर मजबूर हैं। सुन रहे हैं। वंसत से फागुन का इंतजार कर रहे हैं। मार्च में फागुन ही होगा। देखते हैं इस बार कैसा फागुन आता है। कहते हैं कि फागुन किसी में फर्क नहीं करता। गरीब अमीर सबको एक रंग में रंग देता है। देखते हैं। दस मार्च!
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