लखनऊ। उत्तर प्रदेश विधानसभा को करीब चौदह साल बाद उपाध्यक्ष मिला है। विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने के महज पांच माह पहले उपाध्यक्ष पद पर चुनाव कराने का भारतीय जनता पार्टी श्रेय ले रही है। भाजपा ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से कुछ माह पहले विधानसभा उपाध्यक्ष पद हथिया कर एक चुनावी जंग तो जीत ली। इस पद पर सपा बागी नितिन अग्रवाल विजयी हुए हैं। लेकिन परम्परागत रूप से विपक्ष को दिये जाने वाले इस पद पर अपना उपाध्यक्ष बनवाने से नैतिकता के मोर्चे पर भाजपा को बड़ा झटका लगा है। इसके विपरीत समाजवादी पार्टी ने चुनाव हार आसन्न होने के बावजूद भाजपा को वाकोवर नहीं देकर सियासी बढ़त हासिल की है। चुनाव में भाजपा समेत सभी दलों के विधायकों के वोट हासिल कर सपा यह सिद्ध करने में सफल रही है कि आगामी चुनावों में वह बड़ा खेल कर सकती है। चुनाव परिणाम से साफ है कि आगामी विधानसभा चुनाव भाजपा समेत अन्य दलों के तमाम नेता सपा का दामन थाम सकते हैं।
विधानसभा में उपाध्यक्ष का चुनाव कराने को लेकर अपनी पीठ खुद थपथपा रही है। लेकिन विपक्ष इसे भाजपा का दोहरा चरित्र बता रहे हैं। नेता प्रतिपक्ष सपा के राम गोविंद चौधरी ने इसे अलोकतांत्रिक तरीका बताया है। कांग्रेस का कहना है कि भाजपा ने विधानसभा उपाध्यक्ष का चुनाव करा लिया लेकिन विधानमंडल के एक अन्य सदन विधान परिषद सभापति का चुनाव तक नहीं कराया गया। उच्च सदन माने जाने वाले विधान परिषद में कार्यवाहक सभापति ही हैं। उप सभापति का पद भी खाली है।
विधान परिषद में कांग्रेस पार्टी के नेता दीपक सिंह ने विधानसभा के उपाध्यक्ष और विधान परिषद के उप सभापति का चयन एक साथ कराए जाने की मांग की है। इस संबंध में उन्होंने प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल को पत्र भी लिखा है। राज्यपाल को भेजे गए पत्र में उन्होंने लिखा है कि बरसों बाद विधानसभा उपाध्यक्ष पद का चुनाव तो कराया जा रहा है, मगर विधान परिषद के उपसभापति के चुनाव को अनदेखा किया जा रहा है।
दीपक सिंह ने नियमों और परंपराओं का हवाला देते हुए कहा कि विधानसभा हो या विधान परिषद, दोनों सदनों में उपाध्यक्ष और उपसभापति पद विपक्ष का होता है। लेकिन भाजपा यह परम्परा तोड़ रही है। उन्होंने मांग की कि दोनों पदों के चुनाव एक साथ कराए जाने चाहिए।
विधानसभा उपाध्यक्ष चुनाव में संख्या बल न होने के बावजूद अपना उम्मीदवार देने की सपा की रणनीति परवान चढ़ती नजर आ रही है। भाजपा समेत समूचे विपक्ष में सेंधमारी कर वह फायदे में रही है। उपाध्यक्ष पद पर एक कुर्मी उम्मीदवार देने का सपा को आगामी विधानसभा चुनाव में लाभ मिल सकता है। विधानसभा उपाध्यक्ष चुनाव में प्रदर्शन से उत्साहित सपा अब विधान परिषद सभापति और उपसभापति का चुनाव कराने की मांग कर भाजपा को घेरने की तैयारी में जुट गयी है।
विधान परिषद में सपा सबसे बड़ा दल है। लेकिन लोकतांत्रिक नियमों के विपरीत भाजपा ने इस उच्च सदन में भी अपना कार्यवाहक सभापति बना रखा है। परिषद में सपा के 48 सदस्य हैं जबकि भाजपा के 33 सदस हैं। सपा एमएलसी शशांक यादव ने कहा कि परिषद में अभी कार्यवाहक सभापति हैं। उन्होंने कहा कि गठबंधन के जरिए खुद को बड़ा दल बताने वाली भाजपा को विधान परिषद का चुनाव कराना चाहिए ताकि वास्तविकता सामने आ सके।
यूपी विधानसभा में उपाध्यक्ष पद पर सपा बनाम सपा बागी की जंग में संख्या बल के हिसाब से सपा के अधिकृत उम्मीदवार नरेंद्र सिंह वर्मा के पक्ष में 15 अतिरिक्त सदस्यों ने मतदान किया। सपा का एक मत अवैध पाया गया। सपा संख्या बल के हिसाब से सदन में 49 विधायकों में अपना 48 ही मान रही थी। लेकिन उसे 48 के बजाय 60 मत मिले। सदन में बसपा के 16 विधायक हैं, भाजपा की सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) के 9 विधायक हैं, कांग्रेस के पास सात सीटें हैं, जबकि रालोद और निषाद पार्टी के पास 1-1 विधायक हैं तथा तीन निर्दलीय सदस्य और दो असम्बद्ध हैं। सात सीटें खाली हैं।
यूपी की सत्तारूढ़ भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में 403 सदस्यीय यूपी विधानसभा में 304 सीटें जीती थीं। इन सभी लोगों ने नितिन अग्रवाल के लिए वोट किया है। सूत्रों के मुताबिक, समाजवादी पार्टी ने नितिन अग्रवाल को दलबदल कानून के तहत विधानसभा से अयोग्य ठहराने की मांग करते हुए विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष याचिका दायर की थी जिसे खारिज कर दिया गया था।
नितिन अग्रवाल अखिलेश यादव की सरकार में राज्य मंत्री थे। नितिन अग्रवाल अपने पिता नरेश अग्रवाल के साथ 2018 में भाजपा में शामिल हो गए। नितिन अग्रवाल की अयोग्यता की मांग वाली सपा की याचिका को हाल ही में खारिज कर दिया गया था और तकनीकी रूप से वह भाजपा में शामिल होने के बाद भी सपा के विधायक बने हुए हैं। भाजपा ने नितिन अग्रवाल को आम चुनाव से चार महीने पहले उतारकर करीब दो फीसदी वैश्य वोट पर पकड़ मजबूत करने की रणनीति बनाई हैं।
उत्तर प्रदेश को 14 साल से अधिक के अंतराल के बाद विधानसभा का पहला उपाध्यक्ष मिला है। भाजपा के राजेश अग्रवाल वर्ष 2004 में विधानसभा उपाध्यक्ष चुने गये थे और उनका कार्यकाल 2007 तक था। इसके बाद से विधानसभा में उपाध्यक्ष पद पर चुनाव नहीं हुआ था। परंपराओं के अनुसार, प्रमुख विपक्षी दल के एक विधायक को विधानसभा का उपाध्यक्ष बनाया जाता है।
उत्तर प्रदेश में 37 साल बाद उपाध्यक्ष का चुनाव हुआ। इससे पहले 1984 में नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में कांग्रेस ने परंपरा को तोड़ते हुए उपाध्यक्ष का पद मुख्य विपक्षी पार्टी को नहीं देने का दांव खेला था। उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने हुकुम सिंह को उतारा था, जबकि विपक्ष ने मुरादाबाद के एमएलए रियासत हुसैन का नामांकन भरवाया था। तब हुकुम सिंह, जो बाद में भाजपा में चले गये थे और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता रहे निर्दलीय विधायक रियासत हुसैन के बीच चुनाव हुआ था। चुनाव में कांग्रेस के हुकुम सिंह विधानसभा उपाध्यक्ष बनने में कामयाब रहे।
विपक्ष के आरोपों पर संसदीय कार्य मंत्री सुरेश खन्ना ने कहा कि हम लोगों ने कोई परंपरा नहीं तोड़ी। इतने वर्षों तक सपा ने प्रत्याशी नहीं दिया। सपा ने आपसी गुटबाजी से प्रत्याशी नहीं दिया। अब हम अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं।
योगी सरकार में कैबनेट मंत्री सतीश महाना ने पलटवार करते हुए कहा कि उन्होंने सपा और बसपा की सरकारों में कई बार विधानसभा के उपाध्यक्ष जैसे संवैधानिक पद के लिए चुनाव की मांग की थी लेकिन चुनाव नहीं होने दिया गया। जिन लोगों ने कभी भी डिप्टी स्पीकर का चुनाव नहीं कराया वो लोग मर्यादा और परंपरा की बात ना करें। अगर हमने डिप्टी स्पीकर का चुनाव कराया है तो क्या यह किसी मर्यादा का उल्लंघन है।
उपाध्यक्ष का चुनाव हार कर भी सपा को सियासी बढ़त
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