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खुल्लमखुल्ला बेपर्दा हुए पर्दानशीं

बुधवार को लोकसभा में और बृहस्पतिवार को राज्यसभा में प्रधानमंत्री के भाषणों का पोलापन आराधकों के लिए हो-न-हो, मेरे लिए तो सचमुच बेहद फ़िक्र की बात है। ख़ासकर राज्यसभा में तो विपक्ष ने जिस तरह प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान पूरे 88 मिनट बिना सांस लिए नारेबाज़ी की, उसे देख कर ऐसे सब लोगों का माथा ठनक गया है,…विपक्ष की त्योरियों ने संसद की गोल दीवारों पर यह इबारत उकेर दी है कि बहुत हुआ, लोकसभा और राज्यसभा को अप्रासंगिक बनाने की हुक़्मरानी कोशिशों को अब वह बर्दाश्त नहीं करेगा।

नरेंद्र भाई मोदी मानेंगे नहीं, मगर इस सप्ताह के मध्य में दो दिन उनके चेहरे की लकीरें और देहभाषा के झकोरे साफ बता रहे थे कि: एक, उनके तेवरों का ऊंट नौ साल में पहली बार विपक्षी प्रतिकार के पहाड़ के नीचे आया है; दो, एक विशेष धन्ना सेठ से उनके निजी संबंधों को ले कर देश भर में संदेह के धब्बे और पुख़्ता हो गए हैं; और तीन, अपनी ख़ुद की भारतीय जनता पार्टी में वे अलग-थलग पड़ते दिखाई दे रहे हैं और पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इस मामले में उनसे खिन्न-सा दिख रहा है।

बुधवार को लोकसभा में और बृहस्पतिवार को राज्यसभा में प्रधानमंत्री के भाषणों का पोलापन आराधकों के लिए हो-न-हो, मेरे लिए तो सचमुच बेहद फ़िक्र की बात है। ख़ासकर राज्यसभा में तो विपक्ष ने जिस तरह प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान पूरे 88 मिनट बिना सांस लिए नारेबाज़ी की, उसे देख कर ऐसे सब लोगों का माथा ठनक गया है, जो अब तक ‘हिंदू हृदय सम्राट’ को अविजित नायक मानते थे। नौ बरस में ‘देखो-देखो कौन आया, शेर आया, शेर आया’ के शोर से सकपकाए बैठे विपक्ष के बदन झटक कर एकबारगी खड़े हो जाने के इस दृश्य की जिन्हें जानबूझ कर अनदेखी करनी हो कर लें, लेकिन मेरा मन तो यह अपकर्म करने को मान नहीं रहा।

विपक्ष की त्योरियों ने संसद की गोल दीवारों पर यह इबारत उकेर दी है कि बहुत हुआ, लोकसभा और राज्यसभा को अप्रासंगिक बनाने की हुक़्मरानी कोशिशों को अब वह बर्दाश्त नहीं करेगा। इस आंच की तेज़ लपटें वह महसूस तो 2014 के बाद से ही कर रहा था, मगर सकल-विपक्ष की आंख पूरी तरह खोल देने में पिछले कुछ वक़्त से दोनों सदनों के प्रमुख पीठासीनों के फ़र्रुख़ाबादी-व्यवहार की महती भूमिका रही। ऐसा नहीं है कि पीठासीनों के रवैए पर पहले कभी उंगलियां उठी ही नहीं। हाकिमों से पीठासीनों के नैनमटक्के कोई नई बात नहीं हैं। लेकिन पर्दानशीनीं की तमाम लोकरीतियों के उल्लंघन का जैसा फूहड़ नृत्य पिछले चार-छह महीने में सब ने देखा, विलक्षण था। संसद की आसंदियां इस तरह उचक-उचक कर किसी की हुक़्मबरदारी पहले कब करती थीं? बात-बात पर विपक्ष की कनपटी पर अपनी दुनाली वे पहले ऐसे कब रखती थीं? निष्पक्षता का अपना मुलम्मा वे इस तरह खुरच कर पहले कब फेंका करती थीं?

सो, ठीक से भीतर झांकें तो आप पाएंगे कि नौ बरस में संसद को प्रसंगहीन बनाने के प्रयास दिन-रात हुए हैं। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई के पहले कार्यकाल में लोकसभा ने पहले के मुकाबले 40 फ़ीसदी कम समय काम किया। 2009 से 2014 के बीच सदन की बैठकें 2689 घंटे चली थीं। 2014 से 2019 के बीच सिर्फ़ 1615 घंटे ही चलीं। पूर्णकालिक लोकसभा की बैठकें औसतन 468 दिन हुआ करती थीं। नरेंद्र भाई के ज़माने में 16वीं लोकसभा की बैठकें 331 दिन के लिए ही बुलाई गईं। इस दौरान हर साल पेश होने वाले आम बजट का 83 प्रतिशत हिस्सा बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया गया। 2014 के बाद से बजट पर बहस का समय लगातार कम हुआ है। ऐसे भी मौक़े आए हैं, जब बजट पर कुल मिला कर 20 घंटे भी विचार-विमर्श नहीं हुआ। नरेंद्र भाई हैं तो यह भी मुमकिन हुआ कि 16 वीं लोकसभा में सांसदों द्वारा मौखिक जवाब देने वाली श्रेणी में पूछे गए सवालों में से महज़ 18 प्रतिशत के ही जवाब मंत्रियों ने मौखिक तौर पर दिए। संसदीय प्रक्रिया का कोई भी जानकार आपको बता देगा कि ये सारे लक्षण संसदीय विमर्श को हाशिए पर धकेलने की नीयत ज़ाहिर करते हैं।

अब तक शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि किसी प्रधानमंत्री ने संसद में सांसदों के प्रश्नों के जवाब ख़ुद कभी दिए ही न हों। सप्ताह में संसद के दोनों सदनों में एक-एक दिन प्रधानमंत्रियों के ख़ुद सवालों के जवाब देने की परंपरा रही है। प्रधानमंत्री-प्रश्नकाल में प्रधानमंत्री-कार्यालय के राज्यमंत्री भी जवाब देते रहे हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ करता था कि प्रधानमंत्री ख़ुद किसी प्रश्न का जवाब दे ही नहीं और सारे सवालों के जवाब उनके राज्य मंत्री ही देते रहें। नेहरू को खलनायक मानने वाले यह भी तो जानें कि नेहरू हर रोज़ संसद की बैठक में हिस्सा लिया करते थे। इंदिरा गांधी को लोकतंत्र-विरोधी बताने वाले यह भी तो बताएं कि वे ख़ुद प्रश्नों के उत्तर दिया करती थीं। राजीव गांधी को नौसिखिया समझने वाले यह भी तो समझें कि वे लोकसभा और राज्यसभा में प्रधानमंत्री-प्रश्नकाल के लिए नियत दिनों में हमेशा जवाब देते थे। नरेंद्र भाई के अलावा हुए 13 में से किस प्रधानमंत्री ने सांसदों के सवालों का ख़ुद सामना करने से बचने का काम किया? मैं नहीं जानता कि नरेंद्र भाई ऐसा सांसदों को एकदम महत्वहीन समझने की वज़ह से करते हैं या ख़ुद को बेहद महत्वपूर्ण मानने की वज़ह से, लेकिन चूंकि कोई भी काम वे कभी बिना सोचे-समझे कभी नहीं करते, इसलिए यह भी वे बिना सोचे-समझे तो करते नहीं होंगे।

दो और संवैधानिक परंपराएं हैं, जिनका पालन करना नरेंद्र भाई को रास नहीं आता है। हर विदेश यात्रा के बाद अब तक के प्रधानमंत्री दो काम किया करते थे। पहला, राष्ट्रपति से मिल कर विदेश यात्रा के बारे में ब्यौरा देना, और दूसरा, संसद में अपनी यात्रा के बारे में वक्तव्य देना। नरेंद्र भाई के आने के बाद ये दोनों रिवाज़ ठेंगे पर लटक गए। पौने नौ बरस के अपने अब तक के कार्यकाल में नरेंद्र भाई का लोकसभा में मौजूद रहने का सालाना औसत 14 घंटे का रहा है और राज्यसभा को हर बरस औसतन 9 घंटे उनकी उपस्थिति का सौभाग्य मिला है। संसद में उनके बोलने का औसत तीन बार सालाना का है। अटल बिहारी वाजपेयी साल में औसत 12 बार संसद में बोलते थे। मौन-साधक कहे जाने वाले मनमोहन सिंह तक का यह औसत सालाना 8 का रहा है। क्या आपके मन में यह सवाल नहीं घुमड़ता है कि संसद के प्रवेश द्वार पर मत्था टेक कर 2014 में देश को भावविभोर कर देने वाले नरेंद्र भाई को संसद का लगातार इस क़दर सिमटते जाना क्यों सुहाता है?

मेरी आत्मा इस सप्ताह संसद का दृश्य देख कर इसलिए और रोने-रोने को हो आई कि अब तक ऐसे अर्चक तो थे, जो ‘मोदी-मोदी’ का आलाप लगाते थे, मगर अब तो मोदी को ख़़ुद ‘मोदी-मोदी’ की तान लगानी पड़ रही है। लोकसभा में उन्होंने कहा कि ‘‘मोदी पर भरोसा अख़बार की सुर्ख़ियों से पैदा नहीं हुआ है। मोदी पर यह भरोसा टीवी पर चमकते चेहरों से नहीं हुआ है। जीवन खपा दिया है। पल-पल खपा दिए हैं। देश के लोगों के लिए खपा दिए हैं। देश के उज्जवल भविष्य के लिए खपा दिए हैं।’’ फिर अगले दिन तो राज्यसभा में नरेंद्र भाई ने इतने ज़ोर-ज़ोर से अपना सीना ठोका कि हर अर्थवान व्यक्ति दंग रह गया। उन्होंने कहा कि ‘‘देश देख रहा है कि एक अकेला मोदी कितनों को भारी पड़ रहा है। मैं देश के लिए जीता हूं। देश के लिए कुछ करने निकला हूं।’’ मैं तो समझ ही नहीं पाया कि नौ साल से तमाम लोग इतने हल्ले-गुल्ले से जिसकी पीठ ठोक रहे थे, उसे हुंकारा भर-भर कर स्वयं अपना सीना ठोकने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी है? नरेंद्र भाई का यह अकेलापन संसद में भाजपाई सांसदों के यंत्रवत ‘स्टेंडिंग ओवेशन’ के मलमली घूंघट में कैसे छिपेगा? नरेंद्र भाई की मुट्ठी से समय की रेत भरभरा कर फिसल रही है। नरेंद्र भाई को फिर भी इसका यक़ीन नहीं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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