भगवान परशुराम प्राक्ट्योत्सव अक्षय तृतीया पर विशेष:
“भगवान परशुराम के संबंध में एक गलत भ्रांति फैलाई गईं कि वे एक वर्ग विशेष के विरोधी थे, लेकिन यह सत्य से परे हैं। उन्होंने भगवान विष्णु के अवतार के रूप में अहंकारी और अत्याचारियों का सर्वनाश किया।”
डॉ. राकेश मिश्र
तप, त्याग और सनातन संस्कृति की धरती भारत की भूमि पर ईश्वर ने कई बार मानव रूप में अवतरित होकर संसार को बहुत कुछ दिखा और सिखा दिया। जगत के पालनहार भगवान विष्णु भी दस बार मनुज रुप में अवतार लेकर अपने विविध रूपों से धरती को अवगत करा गये। जब-जब अधर्म और अत्याचार की वृद्धि हुई तो भगवान विष्णु ने अवतार लेकर अधर्मी और अत्याचारियों का सर्वनाश किया। इसी कड़ी में भगवान विष्णु अपने छठे अवतार में भगवान परशुराम के रूप में अवतरित हुए। अन्य अवतारों में भगवान सीमित कार्य और उद्देश्य की पूर्ति कर पुनः बैकुंठ धाम को वापस चले गए।
लेकिन, परशुराम भगवान विष्णु के एकमात्र ऐसे अवतार हैं, जो राम और कृष्ण के साथ भी सह-अस्तित्व में रहे और वे आज तक विद्यमान भी हैं। मान्यताओं के अनुसार जिन सात चिरंजीवियों का जन्म इस भारत भूमि पर हुआ है, उसमें भगवान परशुराम भी शामिल हैं। भगवान परशुराम जिन सात चिरंजीवी (अमर प्राणियों) में से एक हैं, उसमें हनुमान, कृपाचार्य, बलि, अश्वत्थामा, विभीषण और व्यास शामिल हैं।
ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु ने इस पृथ्वी पर बुराई को नष्ट करने के लिए मानव रूप में परशुराम के रूप में अवतार लिया था। उनका जन्म ऋषि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका के यहाँ पुत्रेष्टि यज्ञ से हुआ था। ब्राह्मण होते हुए भी उनमें क्षत्रिय के गुण थे। यह उनके पिता के कारण था, जिनके पास भी क्षत्रिय के गुण थे। भगवान परशुराम धैर्य और विवेक के साथ साहस, आक्रामकता और युद्ध सहित विभिन्न गुणों को धारण करने वाले थे।
परशुराम के बारे में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं और वे रामायण और महाभारत के दौरान भी मौजूद थे। परशुराम भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे, इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के बाद उन्हें स्वयं भगवान शिव से कुल्हाड़ी मिली थी।परशुराम दो शब्दों का मिलन है परशु और राम। जिसमें परशु शब्द का अर्थ कुल्हाड़ी होता है, इसलिए परशुराम नाम का अर्थ है ‘कुल्हाड़ी वाला राम’।
भगवान परशुराम तप और बल में अग्रणी होने के साथ ही न्याय के प्रबल पक्षधर तथा अहंकार और अत्याचार के विरोधी थे। भगवान परशुराम कई नामों से भी जाने जाते हैं, जैसे रामभद्र, भार्गव, भृगुपति, भृगुवंशी, जमदग्न्य, रेनुकेय, चिरंजीवी समेत कई नामों से उन्हें संबोधित किया जाता जाता है।
शास्त्रों के अनुसार परशुराम जी के गुरु स्वयं भगवान शिव थे। उन्होंने भगवान शिव से शास्त्रों और युद्ध की कलाओं को सीखा। फिर उन्होंने भगवान शिव के निर्देश पर भगवान शिव और अन्य देवताओं से आकाशीय हथियार प्राप्त किए। शिव ने अपने युद्ध कौशल का परीक्षण करने के लिए परशुराम को युद्ध के लिए बुलाया। गुरु और पालकी के बीच इक्कीस दिनों तक भयंकर युद्ध चला। परशुराम के युद्ध कौशल को देखकर भगवान शिव प्रसन्न हुए। यह माना जाता है कि भगवान परशुराम भी भगवान विष्णु के दसवें अवतार यानी कल्कि की मदद करने के लिए मौजूद हैं, जैसा कि कल्कि पुराण में कहा गया है।
परशुराम की सिर्फ एक ही कहानी नहीं है, बल्कि पूरे भारत में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में कई अलग-अलग कथाएं प्रचलित हैं। भगवान परशुराम का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण तक में मिलता है। मान्यता यह भी है कि भारत में मौजूद अधिकतर ग्राम भगवान परशुराम द्वारा ही बसाये गए हैं। उनका प्रमुख उद्देश्य पृथ्वी पर हिन्दू वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना था। प्रभु श्री राम के काल में भी उनका उल्लेख हमें मिलता है तो महाभारत काल में भी उन्होंने श्री कृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराकर अपना प्रमाण दिया। इसी वजह से यह कहा जाता है कि कलिकाल के अंत में भी परशुराम अवश्य ही दिखाई देंगे। उनकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण अहंकारी और धृष्ट है्हय वंशियों का पृथ्वी से इक्कीस बार संहार किया जाना है। पौराणिक कथाओं के अनुसार हैहय वंश के राजा सहस्त्रार्जुन को अपनी शक्ति का बहुत घमंड हो गया था और इस घमंड के चलते उन्होंने ब्राह्राणों और ऋषि-मुनियों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया था। ऐसे ही एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी सेना लेकर भगवान परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि के आश्रम पहुंचा। महर्षि जमदग्नि ने खूब आदर सत्कार किया और अच्छे से खान पान की व्यवस्था भी की। महर्षि जमदग्नि ने आश्रम में मौजूद चमत्कारी कामधेनु गाय के दूध से समस्त सैनिकों की भूख को शांत किया। सहस्त्रार्जुन के मन में कामधेनु गाय के चमत्कार को देखकर उसे पाने का लालच पैदा आया।
अपने लालच के कारण उसने महर्षि से कामधेनु गाय को बलपूर्वक छीन लिया। जब इस बात की भनक परशुराम को लगी तो उन्होंने क्रोध में आकर सहस्त्रार्जुन का वध कर डाला। सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध की अग्नि में जलते हुए महर्षि जमदग्नि का वध कर दिया। पिता की हत्या किये जाने के बाद उनकी माँ रेणुका भी वियोग में चिता पर सती हो गयीं। परशुराम ने अपने पिता के शरीर पर इक्कीस घाव देखे थे इन घावों को देखते हुए ही उसी क्षण परशुराम ने प्रतिज्ञा ली कि वह इस धरती से इस वंश का इक्कीस बार संहार करेंगे।
“भगवान परशुराम के संबंध में एक गलत भ्रांति फैलाई गईं कि वे एक वर्ग विशेष के विरोधी थे, लेकिन यह सत्य से परे हैं। उन्होंने भगवान विष्णु के अवतार के रूप में अहंकारी और अत्याचारियों का सर्वनाश किया। वहीं भगवान शिव के प्रिय के रूप में न्याय और नीति को भी स्थापित किया। उन्होंने धर्म की स्थापना और जीव कल्याण की प्रेरणा दी। संपूर्ण पृथ्वी जीतने वाले भगवान परशुराम ने इसे दान कर दिया और स्वयं पहाड़ों को अपना आश्रय स्थल बना लिया। आज भगवान परशुराम की जयंती के दिन हमें भगवान परशुराम के जीवन से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है।”
‘शुद्धं बुद्धं महाप्रज्ञापण्डितं रणपण्डितं ।
रामं श्रीदत्तकरुणाभाजनं विप्ररंजनम्ा॥’