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श्राद्ध कर्म में पूज्य हैं पितृ और देव

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श्राद्ध कर्म में पूज्य हैं पितृ और देव
श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव। वाणी के कर्म में प्रवीण, पढ़ाने और उपदेश करने में सदा प्रवृत्त अर्थात पढ़ाने और उपदेशादि वाणी के कर्म द्वारा विद्या का प्रचार करके जगत का उपकार करने के लिए प्रतिक्षण प्रवृत्त पुरुष देवता कहाते हैं। वाक्, वाणी, सरस्वती, विद्या आदि एकार्थक शब्दों के मद्देनजर विद्यावान लोगों को देव मानना सैद्धांतिक रूप से ठीक ही है। वैदिक मतानुसार जीवित चेतन पितरों अर्थात जीते हुए ज्ञानी पुरुषों का श्रद्धापूर्वक भोजनादि से सत्कार करना  श्राद्ध करना है। वैदिक मत में जीवित चेतन पितरों, ज्ञाननिष्ठ सत्त्वगुणी पुरुषों का, जो लोक- नाम स्थान है,  वही पितृलोक है। जिस प्रदेश अथवा देश में मानस कर्म में प्रधान विचारशील ज्ञानी लोग निवास करते हैं, वह पितृलोक है अथवा उन पितरों के समुदाय मेल का नाम पितृलोक है। पौराणिक ग्रन्थों में जिनके लिये मरने के पश्चात शास्त्रों में पितृलोक में जाना लिखा है, वे पुरुष शरीर छोड़ने के पश्चात पितृजनों के समुदाय अथवा प्रदेश में अर्थात पितरों के घरों में जाकर जन्म लेते हैं। मनुस्मृति में उत्पादक, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता, अन्नदाता और भय से बचाने वाला, ये पांच पिता माने गये हैं। इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है, और अपने उत्पादक पिता में रूढ़ि भी है। साधारणतया पिता शब्द से उत्पादक से भिन्न कोई अर्थ नहीं लगाया जाता, लेकिन लौकिक व्यवहार में पिता शब्द से प्रकरणानुसार जनक, यज्ञोपवीत कराने, अन्न देने वा भय से बचाने वाले का ग्रहण होता है। परन्तु श्राद्ध कर्म में विशेष कर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है। अपने उत्पादक पिता की सेवा शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिए। ऐसा नहीं करने वालों को कृतघ्न माना जाता है। ज्ञान अथवा विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना चाहिए, वही श्राद्ध है। अपने जनक और अन्य यज्ञोपवीत कराने वाले आदि की सेवा को सामान्य प्रकार से तर्पण कहते हैं। श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव। वाणी के कर्म में प्रवीण, पढ़ाने और उपदेश करने में सदा प्रवृत्त अर्थात पढ़ाने और उपदेशादि वाणी के कर्म द्वारा विद्या का प्रचार करके जगत का उपकार करने के लिए प्रतिक्षण प्रवृत्त पुरुष देवता कहाते हैं। वाक्, वाणी, सरस्वती, विद्या आदि एकार्थक शब्दों के मद्देनजर विद्यावान लोगों को देव मानना सैद्धांतिक रूप से ठीक ही है। और मानसकर्म ज्ञान में सदा रमण करने, मन ही मन में शुद्ध आनन्द की लहरियों का अनुभव करने, अच्छे-बुरे का सदा विवेक से निर्णय करने, अल्पभाषी, नियमपूर्वक बोलने वाले, अथवा वाणी को वश में करके मौन रहने वाले, जगत के उपकार हेतु सम्यक ज्ञान व अनुभव प्राप्त विषयों को पुस्तकादि द्वारा सरल कर प्रचलित करने वाले  पितर हैं। वेदविद्या का दान देने से आचार्य, गुरु को पिता कहते हैं। अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं। मनुस्मृति के इन वचनों से पूर्व के वेदोक्त वचनों की सिद्धि होती है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार जिनमें वाणी के कठोर, मिथ्याभाषण, चुगली और असम्बद्ध बोलनारूप चार दोष न हों, किन्तु सत्य बोलना, हितकारी वाक्य बोलना, प्रियवाणी बोलना और वेदादिशास्त्र पढ़ना इन्हीं चार प्रसंगों में वाणी का व्यय करना, किन्तु क्रोधादि पूर्वक नहीं बोलना ये गुण जिनमें हो वे देव हैं। और मानस विचार में तत्पर रहें अर्थात मन के तीन दोष- किसी दूसरे की वस्तु को लेने की तृष्णा, दूसरों का अनिष्ट विचार, और व्यर्थ असम्भव विचार –ये दोष जिनमें न हों तथा मानस तीन गुण- सब प्राणियों पर दया, निरपेक्ष व सन्तोष और शुभकर्मों परमात्मा की उपासनादि में श्रद्धाभक्ति जिनमें विशेष कर हों वे पितर कहाते हैं। मनुस्मृति व शतपथ ब्राह्मण के इन वचनों से यह स्पष्ट है कि वाचिक पापों से रहित और वाचिक पुण्य करने में प्रवृत्त देव, और मानस पापों से रहित, मानस पुण्य करने में अधिक प्रवृत्त पितृ कहाते हैं। जिनकी वाणी सब प्रकार शुद्ध है, वे देव और जिनका मन सब प्रकार शुद्ध है, वे पितृ लोग कहाते हैं। मानस विचार की रक्षा वाणी से होती है, इसीलिए पितृ कार्य का रक्षक देवकार्य को माना है, तथा देव को ऋषि और पितृ को मुनि भी कहा जाता है। जहां देव, ऋषि, पितृ, सब आते हैं, वहां ऋषि पद वाच्य ब्रह्मचर्याश्रमस्थ वेदाध्येता तपस्वी अन्तेवासी शिष्य लिए जायेंगे। मनुस्मृति तृतीय अध्याय श्राद्ध प्रकरण में कहा गया है कि सत्त्वगुण की प्रधानता होने से बुद्धिवर्द्धक तथा खाने योग्य कव्यपदार्थों को प्रयत्न के साथ ज्ञानियों को खिलाना चाहिए। और होमने योग्य वस्तु चारों प्रकार के विद्वानों को खिलाना चाहिए। उपनिषदों में भी कहा गया है - आत्मज्ञानी की पूजा करें। उपनिषदों के इस वचन से भी ज्ञानी लोगों का ही सत्कार सिद्ध होता है। सत्य-असत्य का विवेक करने वाले ज्ञानी जनों की सम्यक् श्रद्धा, भक्ति से सेवा करने वाले सेवकों पर प्रसन्न होकर वे कल्याण करने के लिए मन लगाते हैं। और श्रेष्ठमार्ग का उपदेश करते वा संकेतमात्र से जता देते हैं कि यह काम ऐसे करना चाहिए अथवा यह नहीं करना चाहिए। इसी कारण ज्ञाननिष्ठ पितृजनों के सेवक भी कल्याणभागी होते हैं। इसी कारण ज्ञानयुक्त पितृजनों की अन्नादि दान से श्रद्धापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए। प्राणियों का प्राण अन्न के ही आश्रय ही होने के कारण ही सब सत्कारों में भोजनार्थ अन्न से सत्कार करना ही सबमें मुख्य माना गया है। भोजन से ही इस शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और नाश हो सकता है। सात्त्विक, सत्त्वगुण का बढ़ाने वाला आहार मिलने पर शरीर निरोग व बुद्धि सत्त्वगुण प्रधान, प्रबल वाली होती है। इसी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि है। वस्त्र और भूषण आदि सुख के साधनों के न मिलने पर भी केवल अन्न और जल के आश्रय से शरीर ठहर सकता है, परन्तु अन्न-जल न मिलने पर अथाह धन व संसार का अधिपति बनने का अवसर आ जाने पर भी शरीर की स्थिति नहीं रह सकती। इसीलिए तर्पण और श्राद्ध में अन्न, जलों से सत्कार करना मुख्य है। प्राचीन काल से ही श्रेष्ठ लोगों के मध्य यही परिपाटी चली आती है। परन्तु कालान्तर में वैदिक ज्ञान से दूर होने से तर्पण व श्राद्ध की इस प्राचीन परम्परा में विकृति आ गई, और मृत्यु को प्राप्त लोगों के नाम से पिंड देने की परम्परा चल पड़ी। और अब तो वैदिक ग्रन्थों, आर्ष साहित्यों में भी मरे हुओं के नाम से पिण्ड देने बात खोजकर निकाल पिंडदान के पक्ष में तर्क दी जाने लगी है। वैदिक विद्वान वेदविरोधी इन प्रसंगों को प्रक्षिप्त मानते हैं और कहते हैं कि भोजन से ज्ञानी पितृ लोगों का श्राद्ध करना अत्यन्त उचित है। पौराणिक मत में आश्विन कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से शुरू होकर अमावस्या तक की अवधि को पितृपक्ष माना जाता है। इस काल में पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना पुण्यकर्म माना गया है। लेकिन वैदिक मत में मनुष्य को नित्य श्राद्ध करने के लिए कहा गया है। मनुस्मृति के अनुसार नित्य अन्न, जल, दूध अथवा खीर, फल और कन्द मूलों से पितृ नाम ज्ञानी पुरुषों का प्रीतिपूर्वक श्रद्धा से सत्कार करे। मनुस्मृति के नित्यकर्म श्राद्ध के इस विधान में भोजन के पदार्थों में मांस का नाम शामिल नहीं है। स्पष्ट है कि मांस अभक्ष्य होने के कारण ही मांस इसमें शामिल नही किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि वैदिक ग्रन्थों में श्राद्ध में मांस का प्रयोग सम्बन्धी सभी वर्णन, मन्त्र प्रक्षिप्त हैं, अर्थात सनातनद्रोहियों द्वारा मिला दिए गये हैं। उल्लेखनीय है कि पञ्च महायज्ञ सामान्य रूप से नित्यकर्म हैं, पञ्च महायज्ञ के अन्तर्गत होने से भी श्राद्ध नित्यकर्म सिद्ध होता है। यह सब कथन उत्सर्गरूप से है। और अपवाद रूप से श्राद्ध नैमित्तिक भी है। अर्थात जो कोई प्रतिदिन भोजनादि सत्कार के साधनों के न मिल सकने से श्राद्ध नहीं कर सकता, अथवा जिसको सत्कार के योग्य पितृजन नित्य नहीं प्राप्त होते हों, उसको साधनों के मिलने और पूज्य पितृजनों की प्राप्ति होने पर श्राद्ध करना चाहिए। पूजा के योग्य पितृ कहने का अर्थ सिर्फ अवस्था में बड़ों का ही नहीं है। क्योंकि मनुस्मृति 2/153 में कहा गया है- अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः । अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ।। - मनुस्मृति 2/153 अर्थात -चाहे सौ वर्ष का भी हो, परन्तु जो विद्या विज्ञान से रहित है, वह बालक और जो विद्या विज्ञान का दाता है, उस बालक को भी वृद्ध मानना चाहिए क्योंकि सब शास्त्र आप्त विद्वान् अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं । मनुस्मृति के इस कथन से सिद्ध है कि ज्ञानवृद्ध का नाम पिता है, किन्तु अवस्थावृद्ध का नाम नहीं। प्रतिदिन भोजनादि सत्कार के साधनों के न मिल सकने अथवा सत्कार के योग्य पितृजन नित्य नहीं प्राप्त होते होने की स्थिति में नैमित्तिक श्राद्ध के लिए समय प्राचीन काल में ही नियत कर दिया गया था। पाणिनीय सूत्र में श्राद्धे शरदः कहा गया है। इस सूत्र का आशय यह है कि ऋतुवाचक शरद शब्द से श्राद्ध अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। यद्यपि शरद ऋतु में अनेक सामान्य व विशेष कार्य होते हैं, तथापि शरद ऋतु में होने वाले श्राद्ध का ही नाम शारदिक कहना उचित होगा। क्योंकि शरद ऋतु के अन्य कामों को शारद कहा जाता है। परन्तु इससे यह भी स्पष्ट नहीं होता कि शरद ऋतु में ही श्राद्ध किया जाये अन्य में न किया जाय अथवा अन्य ऋतु में श्राद्ध नहीं होता। इसके कहने का अभिप्राय केवल यह है कि अन्य ऋतु वाचक शब्दों से ठञ् न हो। जैसे -शैशिरं श्राद्धम। परन्तु किसी अपवाद सूत्र से किसी प्रयोजन से विशेष कर प्रत्यय का विधान करना उस वस्तु, कर्म या भाव का किसी विशेष समय में अधिक प्रचार होने का द्योतक है। जैसे शरद ऋतु में रोग और सूर्य के तेज की विशेषता होती है। इसी कारण शरद शब्द से विभाषा रोगातपयोः- इस पाणिनीय सूत्र द्वारा विशेष प्रत्यय का विधान किया जाता है। इसी से शरद ऋतु में नैमित्तिक श्राद्ध की विशेषता समझनी चाहिए। अर्थात साधनों के ठीक-ठीक न मिलने आदि पर श्राद्ध का नैमित्तिक करना कहा गया है। भोजन करने योग्य वस्तु सर्वोपरि उत्तम पदार्थ, वस्तु सब दूध से बनते हैं। और वर्षा ऋतु के होने से गौ आदि पशुओं के भक्ष्य घासादि की अधिकता से दूध अधिक उत्पन्न होता है। श्राद्ध में खीर आदि पुष्ट वस्तुओं का विधान किया गया है। और अन्नों के बीच उत्तम माने जाने वाले चावल भी वर्षा की अधिकता से शरद ऋतु में ही उत्पन्न होते हैं। इसी कारण आश्विन (क्वार) के महीने में पूर्वकाल से नैमित्तिक श्राद्ध की परिपाटी चलाई गई थी। लेकिन वह वैदिक सत्य परम्परा अब नष्ट हो गयी अर्थात वह श्राद्ध जिस उद्देश्य से पहले चलाया गया था, वैसा उद्देश्य अब नहीं रह गया है। अब कोई वैसे ज्ञानी लोगों को श्राद्ध के लिए न ढूंढता और न परीक्षा करता और न उसके मुख्य प्रयोजन को समझ कर श्राद्ध करता है, बल्कि अब अधिकांशतः विपरीत ही होता है। वर्तमान में श्राद्ध नित्य कर्म के रूप में कम और नैमितिक कर्म के रूप में ही होता ज्यादा दिखाई देता है।
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