बेबाक विचार

भूपेश बघेल की सियासत का पठोनी-गान

Byपंकज शर्मा,
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भूपेश बघेल की सियासत का पठोनी-गान
भूपेश बघेल ने दिल्ली और रायपुर में अपनी सियासी चौपड़ इस तरह बिछा ली है कि 2023 तक उनकी कुर्सी के पाये खिसकने के आसार दिखते नहीं हैं। 69 कांग्रेसी विधायकों में से 11 को मंत्री-साफ़ा पहना कर, 15 को संसदीय सचिव का तमगा लगा कर और 11 को राज्य के सार्वजनिक उपक्रमों-आयोगों में अध्यक्ष-उपाध्यक्ष की पदवियां बांटने के बाद किस मुख्यमंत्री को यह नहीं लगेगा कि अब उसके सियासी-सफ़र का कोई भी अलाएं-बलाएं क्या बिगाड़ लेंगी? मगर छत्तीसगढ़ की माटी का पठोनी-गान सुनने वाले बता रहे हैं कि प्रदेश के राजनीतिक आंगन में अगले साल की गर्मियों का इंतज़ार शुरू हो गया है। अब यह तो 2018 की सर्दियों में राज्य की सियासत के छत्तीस गढ़ों के अंतःपुर में मौजूद रहे कर्ता-धर्ता जानें कि भूपेश के सिर पर सेहरा बांधते वक़्त किन-किन वचन-मंत्रों का पाठ हुआ था? मगर तब कहा यही जा रहा था कि सरगुजा के महाराज त्रिभुवनेश्वर शरण सिंहदेव से मोहलत ली गई है। सो, अब यह गुनगुनाहट अंबिकापुरी की हवा में घुलना शुरू होने लगी है कि मोहलत के ढाई बरस 2021 की बारिश आते-आते पूरे हो जाएंगे। एक तो, कसमों-वादों का आज के दौर की सियासत में कौन कितना मान रखता है, और दूसरी बात यह कि, भूपेश की सेहराबंदी के समय ढाई-ढाई साल जैसा कोई वचन दिया-लिया भी गया था या नहीं, किसे पता? लेकिन दुनिया चूंकि सभी की क़ायम तो उम्मीदों पर ही रहती है, सो, अगले साल की गर्मियों से लेकर अगले साल की सर्दियों तक आस की तपेलियां नरम-गरम होती आंच पर खदकती तो ज़रूर रहेंगी। सियासत; योजना, रणनीति, अधिकार और कर्म-पालन से ज़्यादा; तुक़्के का खेल है। इसलिए न तो भूपेश ताल ठोक कर यह कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ में 2023 का चुनाव कांग्रेस को वे ही बतौर मुख्यमंत्री लड़वाएंगे और न कोई और यह दावा ख़म ठोक के कर सकता है कि जब चुनाव हो रहा होगा, तब भूपेश तो मुख्यमंत्री निश्चित ही नहीं रहेंगे। मेरे हिसाब से तो भूपेश की दीर्घजीविता इससे तय होगी कि अगले साल फरवरी-मार्च में कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन बनता है और किस तरह के सदस्य पार्टी की कार्यसमिति में चुन कर आते हैं? छत्तीसगढ़ की भावी शक़्ल कांग्रेस-संगठन की प्रतिच्छाया होगी। मुझे इसमें कोई शक़ नहीं है कि जब होंगे, राहुल गांधी ही कांग्रेस के अध्यक्ष होंगे। मगर अभी मैं यह नहीं कह सकता हूं कि, अगर कार्यसमिति के लिए चुनाव हुए तो, जिसे राहुल चाहेंगे, वह तो चुन कर आएगा और जिसे नहीं चाहेंगे, उसकी मिट्टी पलीत हो जाएगी। भूपेश के बारे में माना जाता है कि वे राहुल को पसंद हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि केंद्रीय संगठन के छत्तीसगढ़-प्रभारी से उनकी खट्टी-इमली अब मीठे-बेरों में तब्दील हो चुकी है। इस समीकरण का सामान्य नतीजा तो भूपेश के ही पक्ष में है। अगर छह महीने बाद राहुल को कांग्रेस की तराज़ू के पलड़ों में संतुलन बैठाने की कोई अखिल भारतीय ज़रूरत महसूस नहीं हुई तो छत्तीसगढ़ ही नहीं, सारे कांग्रेस-शासित राज्यों में यथास्थिति की पछुआ बहती रहेगी। लेकिन अगर 2024 की तैयारी करते वक़्त राहुल को लगा कि 2023 में मत-कुरुक्षेत्र का सामना करने वाले प्रादेशिक क्षत्रपों को बदले बिना बात नहीं बनेगी तो भूपेश का इंद्रासन भी कौन-सा अखंड-सौभाग्यशाली रहने का वरदान ले कर जन्मा है! सब जानते हैं कि कांग्रेस के केंद्रीय संगठन का दो सप्ताह पहले सामने आया चेहरा राहुल के अध्यक्ष बनने की औपचारिकता पूरी हो जाने तक के लिए ही है। उसकी असली शक़्ल तो छह महीने बाद ही तय होगी। राहुल तब जिसे छत्तीसगढ़ के लिए अपने आंख-कान सौंपेंगे, उससे मालूम होगा कि भूपेश के सिंहासन की आयु कितनी शेष है। छत्तीसगढ़ की विधानसभा में कांग्रेस का भारी बहुमत है। 90 में से 69 विधायक कांग्रेस के हैं। मगर वे कांग्रेस के हैं, भूपेश के नहीं। निजी और सांगठनिक निष्ठा के मामले में छत्तीसगढ़ हमेशा से ही ज़रा अलग तेवरों वाला रहा है। बीस साल पहले नया राज्य बनते वक़्त कांग्रेस के 62 विधायक थे। अजीत जोगी पहले मुख्यमंत्री बने और ख़ासे मज़बूत थे। मगर उनकी ‘टेढ़ो-टेढ़ो जाय’ मुद्राओं से छत्तीसगढ़ की जनता कांग्रेस से ऐसी बिदकी कि पूरे पंद्रह साल उसे 34-38 पर लटकाए रखी। आज भले ही भारतीय जनता पार्टी रमन सिंह के तीसरे कार्यकाल के भुरभुरेपन का ख़ामियाज़ा भुगत कर 14 पर सिमटी हुई है, वरना पंद्रह बरस तक वह पचास सीट के आंकड़े पर ही तैरती रही है। यह भूलना भी ठीक नहीं होगा कि 2018 के चुनाव में भले ही भाजपा को कांग्रेस से 10 फ़ीसदी वोट कम मिले हैं और उसके पहले 2013 में उसके वोट कांग्रेस से सिर्फ़ एक प्रतिशत ही ज़्यादा थे, लेकिन अब से पहले तक भाजपा अपनी झोली में 40 फ़ीसदी वोट हर बार समेट कर ले जाती रही है। इसलिए 2018 के वोट-प्रतिशत के गुदगुदे तकिए पर सोते रहने का जोख़िम कांग्रेस बहुत दिन नहीं उठा सकती है। संसदीय सचिवों और निगम-मंडल-आयोग पदाधिकारियों की थोक-ढेरियां हिनहिनाहट-प्रबंधन का ज़रिया तो बन सकती हैं, मगर वे सुशासन का सूचकांक नहीं होतीं। अगली गर्मियों में भूपेश को हर स्तर पर समीक्षा का निर्मम तबलावादन करना ही होगा। देखना होगा कि पहली बार मंत्री बनाए गए आधा दर्जन विधायकों के कामकाज के तौर-तरीके कहीं पार्टी-संगठन को पोला तो नहीं बना रहे हैं? तपे-तपाए खांटी चेहरों के क़दमों की ताल में ज़्यादा लचक तो नहीं आ गई है? सेवा-विस्तार और पसंदीदा कुर्सियां पाने के जुगतख़ोर अफसरों की करतूतें 2023 के आंगन को टेढ़ा तो नहीं बना रही हैं? अभी के जयकारे तीन साल बाद के हुंकारों में दब तो नहीं जाएंगे? भूपेश के लिए अपना कार्यकाल पूरा करना परम आवश्यक हो सकता है, मगर राहुल गांधी के लिए 2024 की गर्मियों का मौसम साधना बेहद ज़रूरी होगा। उसके एक साल पहले मिज़ोरम, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, तेलंगाना, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में विधानसभाओं के चुनाव होंगे। इनमें से छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ही तो कांग्रेस को अपनी सरकारें बचानी हैं। इस सूची के बाक़ी राज्यों में तो उसके पेड़ों पर अभी फल हैं ही नहीं। उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव तो, बहुत मुमक़िन है कि, लोकसभा चुनाव के साथ ही हों। वैसे भी इन चारों प्रदेशों में फ़िलहाल गै़र-कांग्रेसी सरकारें हैं। सो, आम चुनाव के पहले भूपेश बघेल और अशोक गहलोत के कंधों पर जितना बोझ है, उतना किसी के पर नहीं। ये कंधे किसी भी वज़ह से कमज़ोर पड़ते दिखाई दिए तो क्या कोई उनकी बगल को बैसाखियाों का सहारा देने की मुरव्वत करेगा? इसलिए अच्छे-अच्छे पहाड़ों को काट कर अपनी राह तैयार कर लेने वाले पराक्रमियों को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि पर्वत चढ़ लेने वाले बहुत बार ज़मीं से हार जाते हैं। किसी का हाथ जब सिर के नीचे होता है तो लगता है कि तकिए की कोई ज़रूरत ही नहीं है। लेकिन जन-समर्थन का तकिया अपनी बाहों में संभाले रहना इसलिए शाश्वत-ज़रूरत है कि तमाम बाहों का सहारा इसी तकिए की मुलायम रुई के फोहों से गुज़र तक आप तक पहुंचता है। राजमहल का चंडूखाना कभी-कभी मालूम ही नहीं होने देता है कि समय कहां निकल गया? तीन साल बहुत होते हैं, मगर वे इतने बहुत भी नहीं होते। सो, चेतने का यही सबसे सही वक़्त है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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