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प्रतिपक्षी नेतृत्व के महासंघ का हवामहल

Byपंकज शर्मा,
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प्रतिपक्षी नेतृत्व के महासंघ का हवामहल
यह राजनीति का गगनगामी दौर है। किसी के भी पैर ज़मीन पर तो पड़ ही नहीं रहे हैं। नरेंद्र भाई मोदी तो चूंकि बचपन से ही मगरमच्छ से लड़ने के झूठे-सच्चे किस्से अपने बदन से लपेटे घूम रहे हैं, तो उनकी तो बात ही अलग है; लेकिन बाकियों में से ज़्यादातर को भी ख़ुद की सूरमाई पर ऐसा अश्वमेधी भरोसा है कि इधर उनका घोड़ा प्रस्थान करेगा और उधर वे चक्रवर्ती सम्राट बन जाएंगे। सियासत का ज़िन्न अच्छे-अच्छों को ऐसा भेंरू बना देता है कि संपट ही नहीं पड़ने देता है। सब-कुछ लुटाने के बाद भी होश में आना आसान नहीं रहने देता है। politics narendra modi opposition अब नरेंद्र भाई को ही देखिए। आठ-नौ साल पहले रायसीना पहाड़ी फ़तह करने की ऐसी सनक सवार हुई कि ऐसे दनदन करने लगे कि अगल-बगल के अपने सारे पितृ-पुरुषों को सबसे पहले कुचल डाला। फिर नज़रें चुराते, बीच-बीच में सुबकते और अपने अ-कुलीन होने का हीन-भाव लिए रायसीना के सिंहासन पर बैठे तो साढ़े सात साल में एक-एक कर भारतीय राजनीति की सारी सकारात्मक परंपराओं को, सारी आचरण संहिताओं को और सारे संवैधानिक संस्थानों को कुचल डाला। कोई मुरव्वत नहीं की। ज़रा-सा भी रहम नहीं आया। देश बिलखता रहा लेकिन नरेंद्र भाई अपनी पीठ ख़ुद ही इतने ज़ोर-ज़ोर से थपथपाते रहे कि उसके शोर में तबाही का रुदन घुट कर रह गया। अब जब तक़रीबन सारा कुछ लुट चुका है, तब भी नरेंद्र भाई की चाल-ढाल में आपको कहीं कोई फ़र्क़ दिखाई देता है? नहीं ना? वे और सीना फुला कर चलने लगे हैं। दोनों कंधे और चौड़े कर के पहलवानी मुद्रा में अट्टहास करते टहलते हुए उन्हें मुल्क़ को डराने में पहले से ज़्यादा मज़ा आने लगा है। उन्हें यह भान ही नहीं है कि जबरन कब्जाई उनकी लोकप्रियता की मोरनी को तो उनके धत्-कर्मों के मोर कभी के उड़ा कर ले जा चुके हैं। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा है कि उनके हाथ में अब सिर्फ़ छूंछ ही रह गई है। यह सब नरेंद्र भाई के कंधे पर लदे बेख़ुदी के बेताल की करामात है कि वे अब भी इंद्रासन-इंद्रासन पुकारे चले जा रहे हैं। विपक्ष भी इन दिनों लैला-लैला पुकारता बन-बन में घूम रहा है। उसे लगता है कि सत्ता की मेनका गोद में आकर बस बैठने ही वाली है। नरेंद्र भाई की करतूतों से आजिज़ आ गए देश की फड़कन को वह अपने पुरुषार्थ से अर्जित पुण्य समझ कर फूला नहीं समा रहा है। सूत और कपास अभी दूर है, लेकिन विपक्षी जुलाहे आपस में लट्मलट्ठा किए बिना मानने को तैयार नहीं हैं। बंगाल की दीदी के दिमाग़ में संख्या-शास्त्र के एक धंधेबाज़ मुंशी ने बिठा दिया है कि पूरब और दक्षिण की दो सौ लोकसभा सीटें पलक-पांवड़े बिछा कर उनकी रहनुमाई का इंतज़ार कर रही हैं। तब से दीदी के पैरों में ऐसे घुंघरू बंध गए हैं कि उनकी चाल देखते ही बनती है। उन्हें विपक्षी सियासी जग के अपने हमजोलियों से कोई लाज नहीं आ रही है और वे इतना जोर से नाच रही हैं कि घुंघरू टूट जाएंगे तो भी उन्हें मालूम नहीं चलेगा। दिल्ली के दादा भी आम आदमियों के बीच अपनी चतुराई के कामयाब होने पर इतने आत्ममुग्ध हैं कि जहां कहीं दिखी ज़गह कमीज़ को उतार कर पचास दंड मारने लगते हैं। वैकल्पिक राजनीति का पुरोधा बनते-बनते वे मोशा-सियासत का बिजूका बन कर रह गए हैं। अपने को दूसरी कतार का सबसे बड़ा पराक्रमी समझने की झोंक में उन्हें अहसास ही नहीं हुआ कि वे कब दिन के उजाले में छत से उलटे लटके रहने की नियति को प्राप्त हो गए। असलियत यह है कि अब पक्षी उन्हें जाति से बाहर कर चुके हैं और पशु उन्हें अपनी बिरादरी का मानने को तैयार नहीं हैं। उनकी इस लटकनपच्चू अवस्था पर बाकी भले ही किसी को भी तरस आ रहा हो, मगर वे विपक्ष की दीवार का प्लास्टर खुरचने की परपीड़ा का आनंद ले रहे हैं। suspension MPs Rajya Sabha Read also यूपी से जाहिर हिंदू की सच्चाई! उत्तर भारत में अखिलेश यादव और दक्षिण भारत में जगन मोहन रेड्डी दो ऐसी मिसालें हैं, जिनके पास उम्र और अवसरों के इतने वसंत अभी बाकी हैं कि अगर वे विपक्ष से मिलनी में मिलने वाले थालों में रखे तोहफ़ों के लिए लार न टपकाएं तो रायसीना के मंच पर बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। मगर अखिलेश की आंखें राजनीति के तात्कालिक लाभ की मस्ती में अधमुंदी हैं। उनकी दूरबीन में वे लैंस ही नहीं लगे हैं, जिनसे दिल्ली का समवेत दृश्य देखा जा सके। रही जगन की बात तो वे अपने में मगन रहने को मजबूर हैं। पुराने पापों की गठरी ने उन्हें मोशा-उद्योग में निर्मित अदृष्य बेड़ियों से ऐसा जकड़ रखा है कि छटपटाना भी दूभर है। सो, जब तक बांस बरेली को उलटे नहीं लदते, जगन के पास मन मसोस कर इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं है। यही दशा मायावती सरीखों की है और नवीन पटनायक जैसे महामना अपने मुमुक्षु-टापू में अंतिम सियासी-सांसें गिन रहे हैं। मौजूदा प्रतिपक्षी फलक पर शरद पवार और लालू प्रसाद यादव ही ऐसे हैं, जिनकी उपस्थिति के लिए आप कोई अभिनंदन पत्र तैयार कर सकें। दोनों का महत्व संख्या-बल से परे है। विपक्षी नैया के चप्पुओं को थामे रखने में दोनों के पसीने की बूंदें अगर न हों तो हाल और बेहाल हो जाए। बावजूद इसके कि उद्धव ठाकरे का राजनीतिक अतीत ज़्यादातर लोगों को उन पर आसानी से पूरा विश्वास नहीं करने देता होगा, मैं मानता हूं कि वे आज के विपक्ष का द्रोणागिरी पर्वत हैं। भारतीय जनता पार्टी से नाता तोड़ने के बाद मोशा-सैलाब को जैसी तालठोकू फटकार उद्धव ने लगातार लगाई है, किसी और की वैसी हिम्मत कभी नहीं हुई। नरेंद्र भाई की हड्डियों में कंपकंपी पैदा कर देने वाली इस कूवत के लिए विपक्ष को उद्धव का अभिवादन करना चाहिए। और, अंत में राहुल गांधी। कोई माने-न-माने, प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी केंद्रीय ताक़त अभी तो राहुल ही हैं। उन्हें अपना केंद्र बनाने से हिचकने वाले विपक्षी चेहरों का भी दिल यह तो जानता ही है कि बिन राहुल सब सून। आठ साल से मोशा-विपत्ति के सामने राहुल जिस अनवरतता और दृढ़ता के साथ रोज़-ब-रोज़ टिके हुए हैं, मैं तो इसके लिए उन्हें दाद दूंगा। राहुल के अगलियों-बगलियों का वश चलता तो वे अब तक कभी के राहुल को भूलभुलैया के हवाले कर आते। लेकिन अगर राहुल अपने बचे-खुचे द्वारपालों की गिरफ़्त से भी एकबारगी पूरी तरह बाहर आ जाएं तो खुली हवा में सांस लेते ही वे इस ख़ामख़्याली से भी मुक्ति पा लेंगे कि उनके पास कहारों की ऐसी फ़ौज है कि डोली रायसीना के मंडप में बस पहुंची ही समझो! वे समझ जाएंगे कि कितना रास्ता अभी बाकी है और उसे तय करने के लिए उन्हें आगे कैसी पैदल सेना चाहिए। राजनीति के अखाड़े में जीत की पहली शर्त है बुनियादी जीवंतता, बुनियादी चेतना, बुनियादी दृढ़ता और बुनियादी आत्मबल। इनके अभाव में किसी भी सांडे के तेल का लेप फ़िजूल है। जिस दिन यह बात समझने को भारत का प्रतिपक्ष राजी हो जाएगा, उसके दिन पलट जाएंगे। वरना अपने को प्रतापी समझ कर अपने-अपने हवा महल में बैठे अपनी-अपनी मूंछों पर ताव देने वाले पहले भी बहुत आए, बहुत गए; आगे भी आते-जाते रहेंगे। समय है कि सब समझें कि भारत अगर राज्यों का महासंघ है तो लोकतंत्र की हिफ़ाजत के लिए प्रतिपक्ष को भी फ़िलहाल तो नेतृत्व का महासंघ बनना ही होगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)
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