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बेढब बबूल, सुघड़ देवदार और हम-आप

Byपंकज शर्मा,
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बेढब बबूल, सुघड़ देवदार और हम-आप
ज़िद्दी होना और दृढ़ होना, दो अलग-अलग प्रवृत्तियां हैं। पहली नकारात्मक चित्त-वृत्ति हैं और दूसरी सकारात्मक अंतःप्रकृति। ज़िद विस्तारवादी वासना है। दृढ़ता विरागवादी तरलता। इसके स्थूल रूपों का अध्ययन करना हो तो मैं आप से नरेंद्र भाई मोदी और राहुल गांधी के व्यक्तित्वों, क्रियाकलापों और आचरण पर निग़ाह डालने को नहीं, उन का ठीक से पारायण करने को कहूंगा। जो नरेंद्र भाई को पराक्रमी मानते हैं, उन्हें यह मानने का हक़ है। जो राहुल को पप्पू मानते हैं, उन्हें भी यह मानने का अधिकार मिलना चाहिए। जो नरेंद्र भाई को छंटा हुआ़ ज़ुमलेबाज़ मानते हैं, उन्हें यह मानने का हक़ है। और, जो राहुल को सच्चे मन से सच्ची बात कहने वाला मानते हैं, उन्हें भी यह मानने का अधिकार मिलना चाहिए। मैं मानता हूं कि नरेंद्र भाई का पराक्रम ज़िद के बीज से जन्मा बेढब बबूल है। मैं मानता हूं कि राहुल का पप्पूपन दृढ़ता के बीज से उपजा सुघड़ देवदार है। मैं जानता हूं कि नरेंद्र भाई को चाहने वालों को यह निष्कर्ष अखरेगा। उन्हें अखरना भी चाहिए। जिन के भुजबल-भरोसे वे भारत को पूरे विश्व का गुरु बनने का अधूरा सपना अपनी आंखों में संजोए आठ बरस से बैठे हैं, उन के बारे में यह आकलन उन्हें अप्रिय लगना ही चाहिए कि उन के आराध्य कोई वीरोदात्त नायक नहीं, दरअसल एक बेसबब ज़िद्दी प्रतिनायक हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो नरेंद्र भाई 2014 में ख़ुद प्रधानमंत्री बनने की ज़िद पर अड़ने के बजाय भारतीय जनता पार्टी को केंद्रीय सिंहासन पर बैठाने का दृढ़-संकल्प लेते। लेकिन उन्होंने पहली ही फ़ुर्सत में साफ़ कर दिया कि भाजपा तभी सत्तासीन होगी, जब प्रधानमंत्री उन्हें बनाया जाएगा। संघ-भाजपा के किसी भी व्यक्ति से आज भी रामायण पर हाथ रखवा कर पूछ लीजिए, वह यही कहेगा कि हक़ तो लालकृष्ण आडवाणी का बनता था, मगर वे चुनावी संसाधनों के प्रबंधन की असहायता के चलते दौड़ से बाहर हो गए। नरेंद्र भाई अगर ज़िद्दी होने के बजाय दृढ़-निश्चयी भाव वाले होते तो आठ साल के भीतर कभी तो आप का आंगन हुकूमत की फ़राख़दिल-फुहारों से भीगा होता! शासकीय-प्रशासकीय तौर-तरीक़ों में कभी तो नागरिकों के लिए अपनेपन की झलक दिखाई दी होती! कभी तो हमें नरेंद्र भाई के दिव्य-देनहार होने और ख़ुद उन का लाचार लाभार्थी होने के कसमसाहट भरे अहसास से, दो लमहे को ही सही, राहत मिली होती! मगर नहीं। अगर आप ज़िद्दी हैं तो आप के मन में कर्तव्यपरायणता के विनम्र भाव कभी अंकुरित ही नहीं होते हैं। आप हमेशा एहसान-मुद्रा में झूमते हुए घूमते हैं। इसी से उपजी दंभी-सोच आप से बार-बार कहलवाती है कि हम अस्सी करोड़ लोगों को दो साल से मुफ़्त राशन दे रहे हैं। गहरे तक धंसी इसी भाव-गति की वज़ह से आप को लगता है कि चुनाव में लोग इसलिए आप का साथ देंगे, क्योंकि उन्होंने आप का नमक खाया है। आप को लगता ही नहीं है कि जो आप दे रहे हैं, वह आप का है ही नहीं। वह तो उन्हीं का है, जिन्हें आप दे रहे हैं। सो, आप हैं कौन? मगर जब आप ज़िद्दी होते हैं तो किसी आपदा के कुप्रबंधन पर पश्चात्ताप करने के बजाय ज़ोर-ज़ोर से अपना नगाड़ा बजाने लगते हैं। आप की ज़िद आप को हर असहमति में षडयंत्र देखने वाली आंख प्रदान कर देती है। ज़िद आप को भीतर से भयभीत बनाती है। दृढ़ता आप को भीतर से मजबूत बनाती है। ज़िद्दी व्यक्ति भीतर से बुरी तरह सहमा रहता है। वह ज़रा-ज़रा से खटके पर सीधे तलवार निकाल लेता है। दृढ़निश्चयी आत्मविश्वासी होता है। वह बड़ी-बड़ी अलाय-बलायों के बीच से भी मुस्कराता हुआ गुज़र जाता है। दृढ़ता बेलौसी देती है। ज़िद अनावश्यक सूरमाई से लैस करती है। जिन्हें 2019 में जुलाई के पहले बुधवार को राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़े की औपचारिक घोषणा नौटंकी लगी थी, अब उनका मिजाज़ कैसा है? जो तीन साल में कांग्रेसजन की तरफ़ से बार-बार हो रही राहुल की मनुहार को मंचीय-प्रहसन बता कर साप्ताहिक-आकाशवाणी करते रहते थे कि वे अब लौटे कि अब लौटे, अब उनकी तबीयत कैसी है? जिन्होंने तीन साल पहले राहुल के इस ऐलान का कूद-कूद कर मखौल उड़ाया था कि न तो मैं कांग्रेस का अध्यक्ष बनूंगा और न मेरे परिवार का कोई और सदस्य यह पद संभालेगा, अब उनका रक्तचाप कैसा है? दृढ़ता इसे कहते हैं। कांग्रेस को हर हाल में अपने पैरों पर खड़ा करने का दृढ़संकल्प ही राहुल से डेढ़ सौ दिन की पांव-पांव यात्रा करा रहा है। राहुल के इस रूप का बहुतों को अब तक अंदाज़ नहीं था। नरेंद्र भाई भी उन में एक हैं। वे भी इस मामले में गच्चा खा गए। राहुल के धोबिया-पछाड़ से भाजपा और संघ-गिरोह की घिग्घी बंध गई है। नरेंद्र भाई हकबकाए हुए हैं और मोहन भागवत मस्जिद-मस्जिद दौड़ रहे हैं। पदयात्रा के पहले पंद्रह दिनों में यह हाल है। अभी तो 135 दिन बाकी हैं। यात्रा शुरू होने के दो दिन पहले मैं ने लिखा था कि उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में शुरू हो रही राहुल की पदयात्रा का जब अगले साल वसंत पंचमी और महाशिवरात्रि के बीच समापन हो रहा होगा तो देश के सियासी क्षितिज पर नया इंद्रधनुष दिखाई देगा। जिन्हें मेरी बात न मानने की ज़िद पर अड़ना है, अड़े रहें। आसमान पर तो नई इबारत के हर्फ़ उभरने लगे हैं। बदलती हवा देख कर बढ़ रही भीतर की चिड़चिड़ाहट का एक दयनीय दृश्य मैं ने लोक-कल्याण के पुरोधा के जन्म दिन पर देखा। ज़िल्लेसुब्हानी ने उस रोज़ राष्ट्रीय संचालन-तंत्र नीति का ऐलान करते हुए अपने भाषण में भारत के दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने के ज़िक्र किया। लेकिन जब पंद्रह सैकंड तक तालियां नहीं बजीं तो नथुने फूल गए और दांतों की किचकिचाहट के बीच से निकला स्वर गूंजा: ‘क्या ख़ुशी नहीं हुई आप लोगों को?’ लोग समझ गए। तालियां बजाने लगे। हेकड़-आवाज़ में चेतावनी आई: ‘देर आयद, दुरुस्त आयद।’ फिर हिकारत भरी हंसी का बघार भी डला। चंद लमहे बाद श्रोताओं को ज्ञान मिला कि ‘पहले हम कबूतर छोडते थे। अब चीते छोड़ते हैं।’ इस बार लोगों ने तपाक से तालियां बजाने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। भीतर भले ही हंसी छूट रही हो, मगर कौन चक्कर में पड़े? यह नज़ारा मैं ने आप को इसलिए याद दिलाया कि इसकी खोह से ज़िद्दीपन की गुत्थियों के अदरक-पंजे झांक रहे हैं। तालियां-थालियां बजवाने का शौक़ जब चर्रा जाता है तो आसानी से नहीं जाता है। सुल्तान ने जब-जब कहा, रिआया ने अपने-अपने छज्जों पर भांगड़ा करते हुए ताली-थाली बजाई। ऐसे में अगर अपने हर वाक्य के बाद कानों को तालियों की आवाज़ सुनने की आदत पड़ जाए तो इसमें सुल्तान का क्या क़ुसूर? सो, अब जब प्रजा एकाध बार समय पर तालियां बजाना भूल जाए तो उसे उसका कर्तव्य-पथ याद तो दिलाना ही पड़ेगा! मुस्बत-ज़ेहनी व्यक्तित्व यह फ़िक्र नहीं पाला करते कि कौन उनके कहे-किए पर तालियां बजाता है और कौन कंकर उछालता है। वे अपना काम करते हैं। उनके काम पर अपने आप तालियां बजती हैं। लेकिन जब हालात ऐसे हो जाएं कि किसी को तालियां भी धमकियों के ज़रिए बटोरनी पड़ें तो समझ लीजिए कि चला-चली की वेला आ गई है। सियासत का पहिया किसी भी तुर्रमखां की ज़िद से बेपरवाह होता है। बोझ ढोते-ढोते जब वह ऊब जाता है तो उलटा घूमना शुरू कर देता है। यह नौबत आ गई है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)
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