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महामहिमों के लिए ‘ॐ अपवित्रः पवित्रो वा’ मंत्र-जाप

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महामहिमों के लिए ‘ॐ अपवित्रः पवित्रो वा’ मंत्र-जाप
द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति और जनोन्मुख-राज्यपाल धनखड़ को उपराष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद, अगर वे रखना चाहेंगे तो, सबसे ज़्यादा केंद्रित निग़ाह इस पर रखनी होगी कि देश के संविधान की धमनियों में शुद्ध रक्त का प्रवाह कहीं अवरुद्ध तो नहीं हो रहा है? अगर वे देश के हृदय का स्पंदन निष्कंटक बनाए रख सके तो भारतमाता उनकी बलैयां लेगी। नहीं तो भारतमाता बिलखती रहेगी। राष्ट्रपति भवन में रामनाथ कोविंद की उपस्थिति का तो देश को पांच साल में कभी अहसास ही नहीं हुआ। उम्मीद करें कि अगले पांच बरस राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भवन की दीवारें पहले से ज़्यादा संप्रेषणीय साबित होंगी। यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति का चुनाव हारना ही था। वे हार गए। द्रौपदी मुर्मू को जीतना ही था, वे जीत गईं। इसी तरह उपराष्ट्रपति के चुनाव में जगदीप धनखड़ को जीतना ही है, वे जीतेंगे। मार्गरेट अल्वा को हारना ही है, वे हारेंगी। इन चुनावों के ये नतीजे भारत के मौजूदा सियासी उफ़ुक पर लिखे दूर से नज़र आ रहे थे। मसला सिर्फ़ इतना था कि इस बहाने, जगत प्रकाश नड्डा की नहीं, नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भारतीय जनता पार्टी अपनी बांह-मरोड़ू ताक़त को तौलना चाहती थी और रहनुमाविहीन विपक्ष अपने गोंद की अचलता का आकलन कर लेना चाहता था। 2024 के आम चुनाव के मद्देनज़र हो रही इस तख़मीना कसरत का आधा नतीजा सामने है। आधा अगस्त के पहले शनिवार की रात औपचारिक आंकड़ों के साथ सामने आ जाएगा। लेकिन आधे नतीजे से ही साफ है कि कोई आसमानी-सुल्तानी हो जाए तो बात अलग है, वरना टूटी टांगों और शिथिल बाहों वाले विपक्ष की यह हैसियत अभी नहीं है कि वह नरेंद्र भाई की छप्पन इंची छाती पर अपना पांव रख कर दो साल बाद का समर पार कर जाए। नरेंद्र भाई लोकतंत्र का लाज-हरण कर रहे हैं या नहीं, आप जानें। द्रौपदी मुर्मू जनतंत्र को जीवंत बनाए रखने का अपना वादा कितना पूरा कर पाएंगी, वे जानें। मैं तो इतना जानता हूं कि अपना-तेरी की चिल्लर-सोच से सने विपक्ष से उठ रही आज की दुर्गंध को दबाने के लिए किसी शमामा इत्र की बूंदों ने अगर चार महीनों में आकार नहीं लिया तो जनतंत्र का जनाजा तो विपक्ष के चार बड़े दिग्गज अपने कंधों पर लिए ख़ुद घूम रहे होंगे। द्रौपदी मुर्मू की जीत पर ताली-थाली बजाने वालों को ख़ुशियां मनाने का पूरा हक़ है। यह अलग बात है कि सोमवार को महामहिम द्रौपदी एक ऐसे बेहद उदास दौर में राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करेंगी, जब देश के सामाजिक सद्भाव का ताना-बाना बेतरह छिन्न-भिन्न है, लोकतंत्र की तमाम संस्थाएं बुरी तरह हांफ़ रही हैं, बेरोज़गारी और महंगाई ने आठ बरस के कीर्तिमान भंग कर दिए हैं और संसार की चौथी सबसे अमीर शख़्सियत के भारत में ग़रीबों की तादाद 90 करोड़ के आंकड़े को छू रही है। आने वाले दिनों में उन्हें ऐसे समय का सामना करना है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों पर जनजातियों का अधिकार और कम होते जाने के आसार हैं; जिसमें आदिवासियों के विस्थापन और पुनर्वास की परेशानियां और बढ़ती दिखाई दे रही हैं; जिसमें उनके स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा से जुड़े मसले हल होने की रफ़्तार बढ़ती नज़र नहीं आ रही है और जिसमें जनजातियों के शोषण, आर्थिक और तकनालॉजिकीय पिछड़ेपन और सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाओं के बादल और घनेरे होने का डर खुल कर सताने लगा है। पहले के 14 राष्ट्रपतियों में से किसी की भी जीत का सेहरा सत्तारूढ़ दल ने कभी इतना उछल-कूद कर अपने सिर पर शायद ही बांधा होगा। जीत के इस ज़श्न की झील में यह तथ्य सिराने का काम चुपचाप करने की सहूलियत मिल गई कि महामहिम मुर्मू जीती हैं, अच्छे मतों से जीती हैं, लेकिन उनके पहले सात राष्ट्रपति उनसे भी कहीं ज़्यादा मत-प्रतिशत पा कर जीते थे। इस लिहाज़ से 15 राष्ट्रपतियों में वे आठवें पायदान पर हैं। इसी तरह यशवंत सिन्हा की हार को विपक्ष की घनघोर पराजय बताने का नगाड़ा बजाने वालों ने यह तथ्य चुपके से अपने तकिए के नीचे सरका दिया कि राष्ट्रपति चुनाव में इससे पहले हारे उम्मीदवारों में से दो को ही सिन्हा से ज़्यादा मत-प्रतिशत मिला था। पूरे एक दर्जन उपराष्ट्रपति प्रत्याशी तो उनसे भी ज़्यादा बुरी तरह हार चुके हैं। सो, राष्ट्रपति चुनाव तक में पाला-बदल मतदान करा लेने की अपनी क्षमता पर इतरा रहे महानुभावों से मेरी गुज़ारिश है कि अगर वे यह सोच रहे हैं कि विपक्ष के पैर क़ब्र में लटक गए हैं तो अपनी इस अहमक़ाना जन्नत से, जितनी जल्दी हो सके, बाहर आ जाएं। रही उपराष्ट्रपति चुनाव की बात तो जगदीप धनखड़ की जीत पर कोई सवाल पहले भी नहीं था और अब तो ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने इस चुनाव के मतदान में हिस्सा न लेने का ऐलान कर उनकी जीत को और पुख़्ता बना दिया है। धनखड़ को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के नरेंद्र भाई के फ़ैसले पर मेरी आंखें इसलिए फटी नहीं रह गईं कि छह महीने पहले मैं ने जनवरी के अंतिम सप्ताह में ही लिख कर कह दिया था कि, कोई माने-न-माने, उन्हें प्रत्याशी बनाए जाने की संभावनाएं सबसे ज़्यादा हैं। धनखड़ की उम्मीदवारी का ऐलान होने के बाद प्रधानमंत्री ने मत-कुरुक्षेत्र में उनका प्रक्षेपण किसान-पुत्र और संविधानवेत्ता कह कर ऐसे ही नहीं किया है। धनखड़ किसान-पुत्र भी हैं और संविधानवेत्ता भी। कोई भले ही बुरा माने, लेकिन मैं यह कहने से अपने को रोक नहीं सकता कि अनुभवी और अल्पसंख्यक होने की कलगी के बावजूद विपक्ष की उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा की प्रतिच्छाया धनखड़ से दस कोस पीछे है। अगर अब तक के सभी उपराष्ट्रपतियों में धनखड़ सबसे ज़्यादा मत-प्रतिशत हासिल कर ले जाएं तो मुझे तो कोई ताज्जुब नहीं होगा। मत्स्य पुराण में राजनीति को साधने के लिए सात सूत्र बताए गए हैं। साम, दाम, दंड, भेद, उपेक्षा, माया और इंद्रजाल। भारत में मोशा-युग के पहले दशक में इन मंत्रों का जैसा ‘ॐ हुं हुं फट् स्वाहा’ पाठ हुआ है, आज़ादी के बाद पहले कभी नहीं हुआ था। राजनीति में उठापटक पहले भी थी, राजनीति में घालमेल पहले भी था, राजनीति में दांवपेच पहले भी थे, राजनीति में शत्रुहंता तिकड़में पहले भी थीं; मगर सियासत की चौपाल से एकात्म मानववाद का भाव इस तरह कभी लुप्त नहीं था। मारधाड़ थी, मगर उसकी एक आचार संहिता भी थी। नरेंद्र भाई के आगमन ने इस आचार संहिता को एकाधिकारवाद की भाड़ में झौंक दिया। उनके अवतरण ने हमारे विचार उपनिषद की मूल अवधारणा को अधिनायकत्व के उफनते लावे के हवाले कर दिया। द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति और जनोन्मुख-राज्यपाल धनखड़ को उपराष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद, अगर वे रखना चाहेंगे तो, सबसे ज़्यादा केंद्रित निग़ाह इस पर रखनी होगी कि देश के संविधान की धमनियों में शुद्ध रक्त का प्रवाह कहीं अवरुद्ध तो नहीं हो रहा है? अगर वे देश के हृदय का स्पंदन निष्कंटक बनाए रख सके तो भारतमाता उनकी बलैयां लेगी। नहीं तो भारतमाता बिलखती रहेगी। राष्ट्रपति भवन में रामनाथ कोविंद की उपस्थिति का तो देश को पांच साल में कभी अहसास ही नहीं हुआ। बड़े-बड़े थपेड़ों ने भी उन्हें विचलित नहीं किया। इस मामले में उपराष्ट्रपति मुप्पावरपु वेंकैया नायडू की संवेदनशीलता फिर भी कभी-कभी चिलमन से झांकती रही। उम्मीद करें कि अगले पांच बरस राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भवन की दीवारें पहले से ज़्यादा संप्रेषणीय साबित होंगी। उनके आंगन पहले से ज़्यादा मुक्ताकाशी होंगे। उनके परकोटे पहले से ज़्यादा जीवंत बनेंगे। उनके गलियारे होंठ भींच कर टकटकी लगाए रखने के बजाय जम्हूरियत की तबस्सुम से लबरेज़ रहा करेंगे। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति ऐसी संवैधानिक संस्थाएं नहीं हैं, जिनसे अंगूठाटेक-घुटनाटेक होने की अपेक्षा की जाए। वे संसदीय व्यवस्था की बुनियादी मर्यादाओं की पालनहार-भूमिका अदा करने के लिए वचनबद्ध संस्थाएं हैं। उनमें यह कर्तव्यबोध हमेशा बना रहना चाहिए। ऐसा न होना अकल्याणकारी होगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लेबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)
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