बेबाक विचार

असलियत के लिए मूल इस्लामी किताबे पढ़े

Byशंकर शरण,
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असलियत के लिए मूल इस्लामी किताबे पढ़े
 ‘इस्लामोफोबिया’ एक झूठा शब्द है, जिसे अनजान लोगों को बरगलाने के लिए गढ़ा गया। अनजान लोगों में असंख्य भले मुसलमान भी हैं जिन्हें झूठी बातों से गैर-मुसलमानों के विरुद्ध भड़काया जाता है। भारत-पाकिस्तान इस के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जहाँ पिछले सौ साल से हिन्दुओं का भयावह संहार होता रहा है। पिछले 75 सालों में लगभग आधा भारतवर्ष हिन्दुओं से खाली कराया जा चुका। बचे भारत में भी निरंतर जिहाद चल रहा है। फिर भी, दोनों देशों में मुसलमानों को विविध प्रकार की झूठी बातों से हिन्दुओं के विरुद्ध शिकायतों से भरा जाता है। इस में सबसे बड़ा कारण वह अज्ञान है, जिस में आम मुसलमान डूबे हुए हैं। इस का एक उदाहरण हैरिस की पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड:  ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ में है। (पृ. 187-88)। कुछ पहले प्यू रिसर्च सेंटर ने पाकिस्तानियों के सर्वे में पाया कि 84%  मुसलमान शरीयत के पक्ष में हैं। लेकिन जो पार्टियाँ शरीयत सचमुच लागू करना चाहती हैं, उन्हें 5 या 7 % से अधिक वोट नहीं मिलते। क्योंकि आम मुसलमानों ने शरीयत का अपना खयाली अर्थ बनाया हुआ है। जब पक्की इस्लामी पार्टियाँ उन्हें शरीयत बताती हैं, तो उन्हें ‘कट्टरपंथी’ कहकर अधिकांश पाकिस्तानी दूर रहते हैं। सर्वे में मात्र 9 %  पाकिस्तानी लोग इस्लामी स्टेट के समर्थक मिले, जो सचमुच इस्लाम को हू-ब-हू लागू कर रहा था। वह भी उसे अपने शब्दों में ‘प्रोफेट मेथडोलॉजी’ से। यानी जैसा प्रोफेट मुहम्मद ने किया था। लेकिन 28 %  पाकिस्तानी इस्लामी स्टेट के विरुद्ध थे, और 62 %  पाकिस्तानी इस से अनभिज्ञ थे कि इस्लामी स्टेट सचमुच इस्लामी है या नहीं। इसी प्रकार, 72 % पाकिस्तानी तालिबान के विरोधी मिले। जबकि तालिबान प्रोफेट मुहम्मद के पक्के इस्लाम की तुलना में नरम ही है। यही स्थिति इंडोनेशिया में मिली जहाँ 72 %  लोग शरीयत के पक्षधऱ हैं, मगर केवल 4 % ने इस्लामी स्टेट का समर्थन किया था। यह विडंबना समझने की है। यदि आप इस्लाम के पक्के समर्थक हैं तो आपको इस्लामी स्टेट जैसी सरकार ही चुननी होगी। लेकिन आम मुसलमान, विशेषकर गैर-अरब देशों के मुसलमान पूरी तरह इस्लाम को नहीं जानते। मौलाना वर्ग उन्हें कटा-छँटा इस्लामी सिद्धांत, और झूठा इतिहास वर्तमान बताकर अपने बस में रखता है। झूठी बातों से उन में शिकायत, नाराजगी और लड़ाकूपन बनाए रखता है। यह सब इस्लामी राजनीति बढ़ाने की रेडीमेड पूँजी-सी इस्तेमाल होती है। दूसरी ओर, इस्लाम से पूर्णतः अनजान गैर-मुस्लिम लोग उन शिकायतों, नाराजगी के दबाव और सहानुभूतिवश उन्हें सुविधाएं देते जाते हैं। इस तरह, अंततः अपने ही खात्मे का इंतजाम करते हैं। यह उन सभी लोकतांत्रिक देशों में देखा गया है, जहाँ मुस्लिम जनसंख्या एक खास सीमा पार कर गई। वहाँ राष्ट्रीय कानूनों को धता बताकर शरीयत लागू की जाती है। हिंसा, शिकायत और छल की तीन तकनीक से निरंतर इस्लामी दबदबा बढ़ाया जाता है। पश्चिमी देशों में कानून तोड़ने और हर तरह के अपराधों में मुसलमानों का अनुपात बेतरह ऊँचा है। विशेषकर घृणित अपराधों में। इस की प्रतिक्रिया स्वरूप लोगों में ‘मुस्लिमफोबिया’ बना है, जो अधिक सही शब्द है। ‘इस्लामोफोबिया’ के बदले ‘मुस्लिमफोबिया’ इसलिए सही शब्द है, क्योंकि सभी मुसलमान जिहादी या संपूर्ण शरीयत के समर्थक नहीं हैं। हैरिस ने चार प्रकार के मुसलमान पाए हैं: जिहादी, इस्लामी, बेपरवाह, और सेक्यूलर। इन में सबसे बड़ी संख्या बेपरवाहों की है, जो इस्लाम के समर्थक हैं मगर इस की बुरी बातों से लगभग अनजान हैं। सेक्यूलर मुसलमान बहुत कम हैं जो इस्लाम की सचाई जानते हैं और उसे पसंद नहीं करते। इसलिए, हैरिस का सुझाव है कि बेपरवाह मुसलमानों को इस्लामी की सचाई पूरी तरह जाननी चाहिए, और पक्के इस्लामियों से बहस करनी चाहिए। तभी दुनिया में मिल-जुल कर रहने का माहौल बन सकेगा। ऐसे बहस-विमर्श की एक रूप-रेखा भी उन्होंने दी है (पृ. 195-207)। इस्लामियों की दलीलें लोगों के अज्ञान का फायदा उठाते हुए दी जाती हैं। ताकि संदेहों को किसी तरह खत्म कर उन्हें इस्लामियों का मुखर/मौन समर्थक बनाए रखें। उन से निपटने का उपाय यह है कि मूल इस्लामी किताबों को खुद पढ़ें। वे ज्यादा नहीं हैं। एक हाथ में सारी आ जाएंगी। उन की परख अपने विवेक और वास्तविक घटनाओं से करें। मुल्लों और मुस्लिम नेताओं पर निर्भर न रहें। वैज्ञानिक विकास के युग में सही सिद्धांत वही है जिसे कसौटी पर कस सकें। ताकि यदि कुछ गलत हो तो दिख जाए। बिना कसौटी के महज ‘फेथ’ वाली बातों पर सच का सर्टिफिकेट नहीं लग सकता। इस्लाम के धार्मिक रिवाजों, जैसे नमाज, रोजा, हज, आदि पर किसी कसौटी की जरूरत नहीं। लेकिन राजनीतिक इस्लाम - यानी काफिरों या स्त्रियों के प्रति व्यवहार, जिहाद, शरीयत, कानून, भौतिक तथ्य और इतिहास – इन सब को कसौटी पर परखना होगा। क्योंकि इस्लाम का दावा उन के ‘स्थाई सच’ होने का है। लेकिन सच (ट्रुथ) और विश्वास (फेथ) दो अलग-अलग चीजें हैं। धर्म के मामले में फेथ चल सकता है, मगर राजनीति में नहीं। इस के घाल-मेल से ही खुद इस्लामी समाजों में सदैव हिंसा रही है। प्रोफेट मुहम्मद के समय से ही। इसी नाम पर मुसलमान दूसरे मुसलमान को मारते हैं। अधिकांश खलीफा, ईमाम और मुहम्मद के वंश के लोगों की हत्याएं हुईं, जो मुसलमानों ने ही की। वही आज भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया, यमन, तुर्की, नाइजारिया, आदि अनेकानेक मुस्लिम देशों में हो रहा है। क्योंकि राजनीति और धर्म, दोनों में इस्लामी एकाधिकार का दावा है। जबकि इस्लामी राजनीति शुरू से ही छल-प्रपंच-हिंसा से बनी है। उस में कोई सच नहीं है। केवल मनमानी है। इसलिए, यह दोष इस्लामी मतवाद में है, जिसे ‘कर्स ऑफ गॉड’  या ‘अल्लाह का अभिशाप’ नाम देना गलत नहीं। पिछली 14 सदियों की इस्लामी हिंसा गलत प्रस्थापनाओं पर आधारित है। उस से मुसलमानों को मुक्त होना होगा। चूँकि इस्लाम का बड़ा हिस्सा (कम से कम 86 %) राजनीति ही है, इसलिए व्यवहारतः यह इस्लाम से ही मुक्त होने की बात हो जाती है। इस प्रकार, हैरिस सुलतान एक मुलहिद बनते हैं। उन के अनुसार, अभी मुलहिदों की छोटी संख्या से मायूसी नहीं होनी चाहिए। पाकिस्तान के 19 करोड़ मुसलमानों में केवल 40 लाख सेक्यूलर, नास्तिक, आदि हैं। किन्तु संख्या बढ़ रही है। दूसरे, सच्ची बातों की अपनी ताकत है, जिस के सामने बम-बंदूकें कुछ नहीं कर सकतीं। इसीलिए एक इब्न वराक, एक सलमान रुशदी, तसलीमा नसरीन या वफा सुलतान से सारी दुनिया की मुस्लिम सत्ताएं परेशान हो जाती हैं। आखिर इन लेखकों ने कुछ शब्द ही तो लिखे हैं! मगर ऐसे सच्चे शब्द, जिन की ताब तमाम मुस्लिम सरकारें और लाखों मदरसों पर शासन करने वाले हजारों आलिम-उलेमा नहीं झेल पाते। अर्थात् जैसे-जैसे सचाई अधिकाधिक मुसलमानों के सामने आएगी, वैसे-वैसे इस्लाम का प्रभाव सिकुड़ेगा। यह गणितीय सच, मैथेमेटिकल सर्टेनिटी, है। इस में काफिर नजरिए से एक बात और जोड़ सकते हैं। बिना किसी दावे, प्रचार या संस्थानों के दुनिया की असंख्य महान पुस्तकें – उपनिषद, महाभारत, रामायण, योगसूत्र, से लेकर बुद्ध, कन्फ्यूशियस, प्लेटो, शेक्सपीयर, टॉल्सटॉय, आइंस्टीन की बातें – दुनिया के लोगों पर स्वतः अपना प्रभाव रखती हैं। उन में अनेक पुस्तकें इस्लाम से सदियों पहले की हैं। उन्हें ‘मनवाने’ को लिए किसी जोर-जबर्दस्ती की जरूरत नहीं पड़ती! जबकि किसी सर्वशक्तिमान अल्लाह के स्थाई सच के रूप में कुरान, और मानवता के सर्वोच्च मॉडल के रूप में मुहम्मद को जबरन बनाए रखने के लिए अंतहीन हिंसा होती रही है। दूसरों पर भी और आपस में भी। एकदम शुरू से। कुरान और मुहम्मद की बातों को कभी छिपा कर, कभी झूठी बातें जोड़कर, तरह-तरह से बना-सँवार कर, नई-नई सफाइयाँ दी जाती हैं। क्या ऐसे मतवाद की असलियत हमेशा छिपी रह सकती है? (समाप्त)  
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