देश में विचारधारा से कहीं अलग दो नैरेटिव बन चुका है- मोदी समर्थन और दूसरा मोदी विरोधी। जो मोदी विरोधी मतदाता है वे भी इस स्थिति में पहुंच चुके हैं कि जो पार्टियां इस मुद्दे पर चुप रहेंगी, खुल कर सामने नहीं आएगी, उन्हें वे मोदी का समर्थक ही मानेगी। मतलब या तो आप इस तरफ हो या फिर उस तरफ। इसलिए किसी ना किसी वजह से जो विपक्षी पार्टियां इस विरोध में कांग्रेस से अलग खड़ी थी उन्हें मजबूरन सबके साथ आना पड़ा।
प्रदीप श्रीवास्तव
पिछले सोमवार को ससंद परिसर में विपक्षी पार्टियों की जो एकता देखने को मिली वह अभूतपूर्व थी। काले कपड़े पहने, काले बैनर के साथ 17 विपक्षी पार्टियों के सासंदों ने अदानी घोटाले और राहुल गांधी की संसदीय अयोग्यता के फैसले के खिलाफ जिस तरह प्रदर्शन किया उसने निश्चित तौर पर मोदी सरकार और भाजपा नेताओं की नींद उड़ाई होगी। इस प्रदर्शन में तृणमूल कांग्रेस, आप और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियों के सदस्य भी थे, जिन पर कुछ समय पहले तक भाजपा की ‘बी टीम’ होने का कुछ लोग आरोप लगा रहे थे। रात में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे के घर पर डिनर पर जो बैठक हुई उसमें भी सभी विपक्षी दल शामिल हुए। संघर्ष की साझा भावी रणनीति बनी। इसमें अगले साल होने वाले आम चुनाव की कोई बात नहीं थी। दरअसल सोमवार को सुबह हुए प्रदर्शन को जो लोग इसे 2024 के आम चुनाव नजरिए से देख रहे हैं, वे सही नहीं है। यह एकता चुनाव के चलते कतई नहीं है, चुनाव में अभी एक साल से ज्यादा समय है और गठबंधन का इतिहास उठा कर देखे तो कभी भी इतनी पहले विपक्षी पार्टियों के बीच एका नहीं हुई। दरअसल चुनावी गठबंधन में क्षेत्रीय मुद्दे, पार्टियों के अपने हित, सीटों के बंटवारे, पार्टियों के अपने भावी अस्तित्व जैसी समस्याओं को ले कर कई बाधाएं आती हैं जिनके समाधान चुनाव के ऐन पहले तक ढ़ूढने की कोशिश होती है।
अभी जो विपक्षी एकता दिखाई दे रही है वह तकरीबन खत्म होने की कगार पर पहुंचीहुई लोकतांत्रिक व्यवस्था, लोकतांत्रिक मूल्यों की चिंता के चलते है। साथ में इन पार्टियों को अपने अपने अस्तित्व का संकट भी परेशान करने लगा है। विपक्ष की आवाज को खत्म करने के लिए, विपक्षी पार्टियों को नेस्तनाबूत करने की खातिर जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं, सरकारी एजेंसियों को बुलडोजर में तब्दील किया जा रहा है, संवैधानिक प्रावधानों की जिस तरह धज्जिया उड़ाई जा रही है, उसे ले कर है। मोदी सरकार ने इन पार्टियों के सामने यह स्थिति ला दी है कि उनके पास एकमात्र यही रास्ता बचा है- “करो या मरो’। फिर ये पार्टियां समझ गई है कि देश में विचारधारा से कहीं अलग दो नैरेटिव बन चुका है- मोदी समर्थन और दूसरा मोदी विरोधी। जो मोदी विरोधी मतदाता है वे भी इस स्थिति में पहुंच चुके हैं कि जो पार्टियां इस मुद्दे पर चुप रहेंगी, खुल कर सामने नहीं आएगी, उन्हें वे मोदी का समर्थक ही मानेगी। मतलब या तो आप इस तरफ हो या फिर उस तरफ। इसलिए किसी ना किसी वजह से जो विपक्षी पार्टियां इस विरोध में कांग्रेस से अलग खड़ी थी उन्हें मजबूरन सबके साथ आना पड़ा।
जो कुछ पिछले एक हफ्ते में हुआ, उसमें असल राहुल गांधी या कांग्रेस की राजनीति या उनके भविष्य का सवाल नहीं है, ना ही अगले आम चुनाव का।सवाल है कि देश में संसदीय लोकतंत्र, दलीय व्यवस्था, अब रहेगी या नहीं,? सवाल है कि एक व्यक्ति के लिए प्रधानमंत्री और उनकी सरकार द्वारा देश में 70 साल में मेहनत से खड़ी की गई समूची व्यवस्था को क्या दांव पर लगाया जा सकता है?
लोकसभा सचिवालय के फैसले के नोटिफिकेशन के दूसरे दिन अपनी प्रेस कांफ्रेस में भी राहुल गांधी ने यहीं कहा कि असल मुद्दा उनकी अयोग्यता या उन्हें जेल भेजने की कोशिशों का नहीं है। असल मुद्दा लोकतंत्र का है और यह लोकतंत्र प्रधानमंत्री अपने उद्योगपति दोस्त गौतम अदानी को बचाने के लिए खत्म कर दे रहे हैं। कांग्रेस ने संदेश दिया कि अदानी- मोदी की दोस्ती की वजह से सभी लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रख कर राहुल गांधी पर पिछले एक हफ्ते से पूरी सरकार, पूरा प्रशासन अपनी पूरी ताकत लगा कर हमला कर रहा था, उनको सबक सिखाने को ले कर लोकसभा के स्पीकर, विशेषाधिकार समिति से ले कर न्यायपालिका की ताकत का गलत इस्तमोल करने की पुरजोर कोशिश की जा रही थी। सारी प्रक्रिया, पंरपंराओं, लोक लाज को दरकिनार करके आनन फानन में उन्हें अयोग्य सासंद साबित करके ही प्रधानमंत्री ने सांस ली। तभी लोगों के दिमाग में प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं कि यह सब कुछ कानून सम्मत कार्रवाई के तहत हुआ है या यह व्यक्तिगत प्रतिशोध का नतीजा है? गंभीर बात यह है कि शहर के चाय की दूकानों से ले कर गांव के खलिहानों में इस सवाल का जवाब ढ़ूढा जा रहा है।
ध्यान रहे कि राहुल गांधी भ्रष्टाचार के किसी आरोप में अयोग्य नहीं हुए हैं। सदन में उन्होंने असंसदीय व्यवहार नहीं किया था। लोकसभा सदस्य होने के नाते किसी तरह के विशेषाधिकार का हनन नहीं किया था। उनकी गलती शायद केवल इतनी थी कि उन्होंने एक उद्योगपति को लेकर ससंद में बजट पर हो रही चर्चा के दौरान कुछ सवाल पूछ दिए थे। यह सवाल उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री से पूछे थे। इस उद्योगपति गौतम अदानी को देश विदेश में मिल रहे ठेके, उन्हें बेचे जा रहे हवाई अड्डे, समुद्री बंदरगाह, रेलवे, सड़क मार्ग, सार्वजनिक क्षेत्र की दूसरी कंपनियों के मामलो को ले कर हांलाकि वे पहले से ही सवाल पूछ रहे थे, अपनी भारत जोड़ों यात्रा के दौरान भी जगह जगह अदानी के मुद्दे को उठाया, पर हिडनबर्ग की रिपोर्ट से देश विदेश में हंगामा खड़ा होने के बाद भी सरकार की तरफ से अदानीके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई तो सदन में राहुल ने ये दोनों खतरनाक सवाल पूछ लिए। लगता है प्रधानमंत्री और उनकी टीम राहुल गांधी के इन सवालों से हिल गई। उन्होने अदानीके प्रधानमंत्री संबंधो के साथ यह भी पूछा कि अदानी के पास शेल कंपंनियों के जरिए जो कथित बीस हजार करोड़ रूपए आए हैं वह किसके है? चर्चा पर जवाब देते समय प्रधानमंत्री ने कांग्रेस सदस्य के पूछे इन सवालों का जवाब नहीं दिया। उल्टे इन सवालों को स्पीकर ने सदन कार्रवाई से निकाल दिया ताकि राहुल के यह सवाल ससंदीय इतिहास के पन्नों में दर्ज ना हो जाए, और शायद इसलिए भी कि आगे की पीढियों में कोई यह ना जान पाए कि देश के एक प्रधानमंत्री ने एक वरिष्ठ सासंद के पूछे या लगाए आरोपों का जबाब देने की जगह चुप्पी साध ली थी।
फिर देश ने पहली बार यह भी देखा कि लंदन में राहुल के जिस भाषण को ले कर सत्ता पक्ष के सासंदों राहुल के इस्तीफे की मांग शुरू कर दी, हफ्ते भर सदन की कार्यवाही को ठप रखा, कुछ मंत्री इतने गुस्से में बोले कि लगा देश की मर्यादा और सुरक्षा संकट में है, वह उन्होंने कहा ही नहीं था। उस अंश को भाजपा के नेता तमाम वाही तबाही बोलने के बावजूद सामने नहीं ला पाए। जनता ने यह भी पहली दफा देखा कि सरकारी पक्ष खुद संसद की कार्यर्वाही को चलने नहीं दे रहा है। यह संसदीय इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। ऐसा भी कभी नहीं हुआ था कि प्रधानमंत्री से माफी मांगने, उन्हें हटाने की मांग की जगह विपक्ष के एक नेता के सदस्यता के इस्तीफे, मांफी की मांग पर कई दिनों तक सदन की कार्यवाही ठप रखी गई।
यहीं नहीं राहुल के जिस भाषण को ले कर हमला किया जा रहा था वह उन्होंने कहा ही नहीं। हांलाकि उन्हें यह मालूम है कि भाजपा के लिए यह नई बात नहीं है। मजे की बात यह भी है कि राहुल को अयोग्य ठहराने के फैसले के साथ भाजपा की निगाह में देश की इज्जत वापस आ गई है। अब उनके नेताओं को ओबीसी वर्ग के अपमान की चिंता सताने लगी है।
पिछले पांच-छह सालों में तकरीबन कोई भी क्षेत्रीय पार्टी ऐसी नहीं बची थी जिसके विधायकों को तोड़ने की कोशिश ना हुई हो, एक बेबस गाय की तरह अपने बछड़ों को बचाने के लिए इन पार्टियों को अपने विधायकों को इधर-उधर होटलों में ना ले जाना पड़ा। ईडी, सीबीआई, इंकम टैक्स के छापों को झेलना पड़ा। सभी दल अभी भी भय की छाया में जी रहे थे। पर राहुल प्रकरण से वे समझ गए कि अब चुप रहने का अर्थ है इच्छा मृत्यु को अपनाना। दोनो तरफ से, सत्ता में बैठी पार्टी की तरफ से और शायद उनके अपने मतदाताओं की तरफ से भी। शायद इसीलिए राहुल गांधी प्रकरण के बाद केजरीवाल का प्रधानमंत्री के खिलाफ जो दो दिन बयान आया उसे सुन कर सभी स्तब्ध रह गए। ना केवल उसकी भाषा से बल्कि केजरीवाल के तेवर से भी। लग रहा है अब शायद यह होड़ लग गई है कि असल मोदी विरोधी कौन है। यह विरोध रातोरात नहीं समझ में आया होगा, इस बारे में इन नेताओं और उनकी पार्टियों को जमीन से रिपोर्ट मिलनी शुरू हो गई होगी।
कुल मिला कर अभी तक विपक्षी पार्टियों के बीच जो एका दिखाई दे रही है उसमें जनता के दबाव की भी एक बड़ी भूमिका है। माना जा रहा है कि मोदी सरकार ने विपक्ष, खास तौर पर राहुल गांधी से निपटने के लिए जिस तरह गैर-राजनीतिक रणनीति पर अमल किया है, प्रधानमंत्री ने परिस्थितियों से ज्यादा व्यक्तिगत प्रतिशोध को जिस तरह तव्वजो दी है उससे जनता के बीच नाराजगी बढ़ी है। राहुल गांधी ने मोदी- अदानीके संबंध को जिस तरह राजनीतिक मुद्दा बनाया है उसका भी असर शुरू हो गया है। विपक्षी दलों के लिए एकजुट हो कर सत्ता का विरोध करना मजबूरी बन रही थी। मोदी विरोध में जो मतदाता राज्यों में इन क्षेत्रीय पार्टियों के साथ है उनमें भी इन दलों की चुप्पी को ले कर संदेह उठने लगे है । यह संदेश अब चारो तरफ फैल रहा था कि मोदी और भाजपा की नीतियों के खिलाफ केवल एक ही व्यक्ति, एक ही पार्टी निर्भीक हो कर बोल रही है। मोदी विरोध का एकमात्र विकल्प कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी बनने लगे थे। तभी विपक्ष की एकता दिखती हुई है, पर चुनाव तक यह ठोस शक्ल ले पाए, इसमें संदेह है।