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नए सिरे से जनसंख्या नीति-रीति पर हो विचार

Byबलबीर पुंज,
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नए सिरे से जनसंख्या नीति-रीति पर हो विचार
अधिनायकवादी चीन की तुलना में भारत एक लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष देश है। यहां किसी भी महत्वपूर्ण नीति से आमूलचूल परिवर्तन तभी संभव होगा, जब उस संबंध में व्यापक जन जागरूकता बढ़े। यदि बहुलतावादी भारतीय सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण रखना है, उसमें निहित नैसर्गिक जीवनमूल्यों को 'मैं ही सच्चा, बाकी झूठे' जैसे विषाक्त चिंतन से सुरक्षित रखना है, तो उसके लिए आवश्यक है कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण हेतु भावी नीति बनाते समय इन बिंदुओं को ध्यान में रखने के साथ चीन की गलतियों से बचने का प्रयास करना चाहिए। गत दिनों चीन से दिलचस्प खबर आई। साम्यवादी चीन अपनी पांच दशक पुरानी सख्त चीनी जनसंख्या नियंत्रण नीति के बुरी तरह विफल होने के बाद नव-दंपत्तियों पर जल्द से जल्द बच्चे पैदा करने का दबाव बना रहा है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, चीनी अधिकारी न केवल नव-विवाहित महिलाओं से उनसे गर्भावस्था के बारे में पूछ रहे है, साथ ही उन्हें धमका भी रहे है कि वे एक वर्ष के भीतर बच्चे को जन्म दें। वास्तव में, यह चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के उस वक्तव्य के अनुकूल भी है, जिसमें उन्होंने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में एक बार फिर से नेता चुने जाने पर कहा था, "हम जन्म दर को बढ़ावा देने और बूढ़ी होती जनसंख्या को लेकर एक सक्रिय राष्ट्रीय रणनीति का पालन करने हेतु एक नीति को स्थापित करेंगे।" चीन ने वर्ष 1979-80 से एकल संतान संबंधित नीति को सख्ती के साथ लागू किया था, जो अगले साढ़े तीन दशकों तक प्रभावी रही। इस नीति का दुष्परिणाम यह हुआ कि चीन में बुजुर्गों (65 आयुवर्ष से अधिक) की संख्या अगस्त 2013 तक कुल आबादी की 10 प्रतिशत हो गई, जिसका अनुपात वर्ष 2027 तक 15 प्रतिशत, तो वर्ष 2035 में इसके 20 प्रतिशत से अधिक होने का अनुमान है। क्या इन वृद्धों के प्रति मानवाधिकार विरोधी चीनी सत्ता अधिष्ठान से मानवता की अपेक्षा की जा सकती है? चीनी सरकारी एजेंसी 'नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स' के अनुसार, वर्ष 2021 में चीन में एक करोड़ छह लाख से कुछ अधिक बच्चे पैदा हुए थे, जो 2020 में एक करोड़ बीस लाख की तुलना में काफी कम और चीन के इतिहास में सबसे कम दर्ज की गई जन्म दर है। इस वर्ष यह दर केवल एक करोड़ रह सकती है। इससे चिंतित चीन ने अपनी पुरानी जनसंख्या नीति में परिवर्तन करके वर्ष 2015 में दो संतान, तो बाद में तीन संतान पैदा करने की छूट दे दी। बकौल मीडिया रिपोर्ट, अब स्थिति यह हो गई है कि एक चीनी व्यक्ति को अगस्त में शादी करने के बाद अधिकारी दो बार उन्हें फोन कर चुके हैं और कह रहे है कि उन्हें बच्चे पैदा करने के लिए समय निकालना चाहिए। जनसंख्या नियंत्रण हेतु असंतुलित और अदूरदर्शी नीति का क्या दुष्परिणाम निकल सकता है?- चीनी एकल संतान नीति उसका सबसे बड़ा मूर्त रूप है। चीन में 1980-2015 के बीच जिस किसी दंपत्ति ने इस नीति की अवहेलना की, तो उसे चीन के उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। ऐसे 'अपराधियों' को सरकारी नौकरी आदि से लेकर अन्य सुख-सुविधाओं से वंचित कर दिया गया। यदि किसी दंपत्ति में दूसरे बच्चे का जन्म होता, तो वे उसका जन्म-प्रमाणपत्र नहीं बनवाते। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की एक रिपोर्ट बताती है कि चीन में 5 वर्ष से कम आयुवर्ष के लगभग 29 करोड़ बच्चों का जन्म प्रमाणपत्र नहीं है। एकल संतान नीति के परिणामस्वरूप, भ्रूण जांच में लड़की का पता चलते ही गर्भ में ही उसकी हत्या बढ़ गई। यहां बीते तीन दशकों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक चीनी बच्चियों को या तो गर्भ में ही मार दिया गया या फिर उन्हें छोड़ दिया गया। चीन में एक-बच्चा नीति के कारण लिंगानुपात में भी भारी अंतर आ गया। यहां 118 लड़कों पर 100 लड़कियां हैं। ऐसे में शादी न हो पाना भी चीन में बड़ी समस्या बन गई। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2030 तक चीन में 4 में से एक पुरुष ही शादी कर सकेगा, जबकि शेष चाहने के बाद भी अविवाहित रह जाएंगे। एकल संतान नीति से पूर्व जहां वर्ष 1980 के दशक में पैदा हुए बच्चों का पालन-पोषण विस्तृत परिवारों में हुआ, वही कालांतर में सख्त जनसंख्या नियंत्रण नीति के बीच पैदा हुए बच्चों को बहुत छोटे आकार के परिवार मिले। स्थिति यह हो गई कि कई बच्चे बिना किसी आनुवंशिक (चचेरे-ममेरे सहित) भाई-बहन के ही बड़े हो जाते है। अर्थात्— चीन की वर्तमान पीढ़ी पारंपरिक मानवीय संबंधों से विहीन हो चुकी है, जिससे सह-अस्तित्व, आपसी सहयोग और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना क्षीण हो गई है। यह ठीक है कि चीन में अकेली संतानें अपनी पिछली पीढ़ी से अधिक शिक्षित हुई, किंतु इससे शिक्षा और अधिक महंगी हो गई। सीमित संसाधनों के बीच भारत में भी जनसंख्या का विस्फोट देश की बड़ी समस्याओं में से एक है। किंतु यहां स्थिति चीन से काफी भिन्न है— बढ़ती आबादी में गहराता असंतुलन चिंता का बड़ा कारण है। इस संबंध में इस संबंध में बीते दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा था, "...जब-जब किसी देश में जनसांख्यिकीय असंतुलन होता है, तब-तब उस देश की भौगोलिक सीमाओं में भी परिवर्तन आता है। जन्मदर में असमानता के साथ साथ लोभ, लालच, जबरदस्ती से चलने वाला मतांतरण और देश में हुई घुसपैठ भी इसके बड़े कारण हैं। इन सबका विचार करना पड़ेगा...।" तब उन्होंने नए तीन देशों— ईस्ट तिमोर (ईसाई बहुल), दक्षिणी सुडान (ईसाई बाहुल्य) और कोसोवो (इस्लाम बहुल) का उदाहरण दिया था, जो 21वीं शताब्दी से पहले क्रमश: मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया, सुडान और ईसाई बहुल सर्बिया का भूभाग थे। सच तो यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप ने इस विकृति न केवल सर्वाधिक झेला है, अपितु उसकी अब भी जकड़ में है। क्या यह सत्य नहीं कि दुनिया के इस भूखंड में इस्लाम और ईसाइयत के आगमन पश्चात न केवल बीते एक सहस्राब्दी में व्यापक जनसांख्यिकीय परिवर्तन हुआ है, अपितु मजहब के नाम पर 1947 में देश का रक्तरंजित विभाजन तक हो चुका है? अधिनायकवादी चीन की तुलना में भारत एक लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष देश है। यहां किसी भी महत्वपूर्ण नीति से आमूलचूल परिवर्तन तभी संभव होगा, जब उस संबंध में व्यापक जन जागरूकता बढ़े। यदि बहुलतावादी भारतीय सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण रखना है, उसमें निहित नैसर्गिक जीवनमूल्यों को 'मैं ही सच्चा, बाकी झूठे' जैसे विषाक्त चिंतन से सुरक्षित रखना है, तो उसके लिए आवश्यक है कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण हेतु भावी नीति बनाते समय इन बिंदुओं को ध्यान में रखने के साथ चीन की गलतियों से बचने का प्रयास करना चाहिए।
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