पूरे दो साल उनका इलाज चला। उन्हें हर रोज़ 120 इंजेक्शन दिए जाते थे। रोज़ाना 32 एंटीबॉयोटिक गोलियां खानी पड़ती थीं। सब मिला कर 14 हज़ार से ज़्यादा एंटीबॉयोटिक गोलियां डॉ. लुबाना ने खाईं। दवाओं की इस असाधारण मात्रा की वज़ह से कई साइड इफ़ेक्ट होने लगे। …डॉ. लुबाना ने हिम्मत नहीं हारी। अपनी बीमारी से जूझते रहे और पिछले चार-पांच महीने से अपने मरीज़ों के लिए दिन-रात एक कर रहे हैं।
ज़िंदगी भर के तमाम अच्छे-बुरे अनुभव यादों की तराज़ू के एक पलड़े में और सियासत, शासन, प्रशासन और नागरिकों की सकल-ग़लतियों की वज़ह से आई कोरोना महामारी की ऐसी खूंखार दूसरी लहर के दौरान हुए अहसास का वज़न दूसरे पलड़े में। जनम भर के पलड़े पर इन तीन-चार महीनों का पलड़ा, भारी नहीं, बहुत भारी पड़ रहा है। ईश्वर की कृपा से मैं और मेरा एकल-परिवार तो महफ़ूज़ है, मगर कुटुंबियों, नाते-रिश्तेदारों और मित्र-परिचितों के किस्से सुन-सुन हाल बेहाल है।
असमर्थता, क्षोभ, गुस्से और अवसाद के इन मटमैले बादलों के बीच से झांकती एक देवदूत-शख़्सियत का ज़िक्र किए बिना रह नहीं पा रहा हूं। ऐसे कई और भी होंगे, जिनके समक्ष मन-ही-मन नमन-मुद्रा अख़्तियार करने में भीतरी सुकून का झरना आपके भीतर भी फूटे बिना नहीं रहेगा। अब जब चारों तरफ़ से दिन-रात आंसू भरी चिट्ठियां ही आंखों के सामने से गुज़र रही हैं, मैं आपको डॉक्टर नवदीप लुबाना से मिलवाना चाहता हूं। वे मेरे शहर इंदौर में हैं। सिर्फ़ साढ़े इकतीस बरस के हैं। रेस्पिरेटरी और क्रिटिकल केयर मेडिसिन में एमडी हैं।
इंदौर के मशहूर मनोरमा राजे टीबी अस्पताल के कोविड-प्रभारी डॉ. लुबाना 16-16 घंटे कोरोना मरीज़ों की जैसी तीमारदारी कर रहे हैं, वह दरअसल इसलिए रेखांकित की जाने लायक है कि जैसी बीमारियों से जूझ कर वे ख़ुद निकले हैं, उसने उन्हें एक ऐसे जज़्बे से भर दिया है कि अपने पास आए एक भी मरीज़ को खतरे से बाहर लाने के लिए वे जी-जान लगा देते हैं। मैं ने उनके पास जिस-जिस को भेजा, उसे अस्पताल से बाहर आने के बाद इस युवा-डॉक्टर की विनम्रता, धैर्य, मुस्कान और मनोबल-उपचार के तरीकों के प्रति नतमस्तक पाया।
डॉ. लुबाना को इस साल जनवरी और फरवरी में कोरोना वैक्सीन के दो डोज़ लगे। लेकिन फिर भी मार्च में पॉजिटिव हो गए। उन्होंने ख़ुद अपना इलाज़ किया और दूसरे पॉज़िटिव मरीज़ों की देखभाल भी करते रहे। निगेटिव होने के बाद से तो न दिन उनका है, न रात। कोरोना की दूसरी लहर में डॉ. लुबाना अब तक 900 मरीज़ों को ठीक कर घर भेज चुके हैं। इनमें से 250 ऐसे थे, जिनके फेंफड़ों में 80 से 90 प्रतिशत तक संक्रमण था। सरकार के मनोरमा राजे अस्पताल में आई क़रीब एक दर्जन गर्भवती महिलाओं को भी उन्होंने बिना ऑक्सीजन-सहयोग के कोरोना-मुक्त कर दिखाया।
2018 में डॉ. लुबाना को टीबी अस्पताल में काम करते-करते एमडीआर-टीबी हो गई थी। टयुबरकुलोसिस की यह क़िस्म बेहद खतरनाक होती है। इसमें दवाएं असर करना बंद कर देती हैं। बचना भगवान भरोसे ही हो पाता है। शुरू में वे अपना इलाज़ भी करते रहे और अपने मरीज़ों को भी देखते रहे। उनके फेंफड़ों में मवाद पड़ गया तो दिल्ली में रोबोटिक सर्जरी हुई। इंदौर लौटे तो संक्रमण दूर करने के लिए अलग-अलग दवाओं के 325 इंजेक्शन लगे।
कुछ दिनों ठीक चला, लेकिन 2019 में मगर जब हालत फिर बिगड़ने लगी तो डॉ. लुबाना को पंद्रह दिनों के लिए मुंबई के हिंदूजा अस्पताल में दाख़िल होना पड़ा। लौट कर इंदौर आए। कुल मिला कर पूरे दो साल उनका इलाज चला। उन्हें हर रोज़ 120 इंजेक्शन दिए जाते थे। रोज़ाना 32 एंटीबॉयोटिक गोलियां खानी पड़ती थीं। सब मिला कर 14 हज़ार से ज़्यादा एंटीबॉयोटिक गोलियां डॉ. लुबाना ने खाईं। दवाओं की इस असाधारण मात्रा की वज़ह से कई साइड इफ़ेक्ट होने लगे। पैर की नसें अवरुद्ध होने लगीं। उनमें रक्त-प्रवाह बनाए रखने के लिए बिजली के झटके देने पड़ते थे। उनके शरीर की चमड़ी का रंग भी सांवला पड़ गया। उन्हें दी गई दवाओं को अगर एक के ऊपर एक रख दिया जाए तो वे दुबई की बुर्ज़-ख़लीफ़ा इमारत जितनी ऊंचाई छू लेंगी।
इस सब में इतनी कम उम्र का कौन व्यक्ति अवसाद में नहीं चला जाता? लेकिन डॉ. लुबाना ने हिम्मत नहीं हारी। अपनी बीमारी से जूझते रहे और पिछले चार-पांच महीने से अपने मरीज़ों के लिए दिन-रात एक कर रहे हैं। ख़ुद की बीमारी से बाहर तो आ गए हैं, मगर लेकिन उसका उत्तर-प्रभाव अब भी तंग तो करता ही है। फिर भी महामारी की चपेट में आने वालों के लिए समूचे अंतर्मन से मजबूत सहारा बने हुए इस युवा डॉक्टर लुबाना को आप मेरे साथ अपने भावों की सलामी नहीं देंगे?