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तुष्टिकरण पर मिथ्याचार: तब संघ-भाजपा संगठन किस काम के?

Byशंकर शरण,
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तुष्टिकरण पर मिथ्याचार: तब संघ-भाजपा संगठन किस काम के?
सोशल मीडिया पर संघ-भाजपा के पक्ष में चलाई जा रही पोस्टों में बार-बार एक संदेश यह होता है कि हिन्दुओं सरकार के भरोसे नहीं रहें। सदैव किसी नायक का मुँह जोहना गलत है।.. अब जनता को उपदेशा जाता है कि ‘नेताओं पर दबाव डालें’। तब आखिर होल-टाइम राजनीति करने वाले संघ-भाजपा संगठनों का क्या काम है? क्या उन ने अपने को अ-हिन्दू मान रखा है, जिन्हें हिन्दू समाज के छीजने, मरने से कुछ अंतर नहीं पड़ना?.. यह मूढ़ता/ उत्तरदायित्वहीनता की पराकाष्ठा है। तब संघ परिवार कांग्रेस और 'स्यूडो-सेक्यूलरिज्म', 'तुष्टिकरण', आदि की निंदा क्यों करता था? संघ परिवार– 1 : राजनीतिक दलों का ‘आई.टी. सेल’ एक वास्तविकता है। किन्तु सोशल मीडिया में चल रही कौन सी बात इस की देन है, कौन अदद समर्थकों, सदस्यों की - यह कोई नहीं जानता। क्योंकि साझा हो रही अधिकांश  पोस्ट बिना नाम की होती हैं। दूसरे, उन पोस्ट में कौन बात सही, कौन सी झूठ है, यह अनिश्चित है। ऐसे आई.टी. सेल एक नई परिघटना हैं, जिस में नेताओं के इशारे पर हो रहे प्रचार की जिम्मेदारी किसी पर नहीं डाल सकते। अतः सोशल मीडिया पर संघ-भाजपा के पक्ष में चलाई जा रही सारी बात आधिकारिक भी है, और अनाधिकारिक भी। यह अदृश्य आधिकारिक लोगों द्वारा लोगों को बरगलाने, डराने, उकसाने का एक नया औजार है। ‘सूचना के अधिकार’ की जिम्मेदारी लिए केंद्रीय पदाधिकारियों को इस पर विचार करना चाहिए। बहरहाल, वैसे पोस्टों में बार-बार एक संदेश यह होता है कि हिन्दुओं को अपने देश, धर्म, और संस्कृति के लिए स्वयं लड़ना होगा। सरकार भरोसे नहीं रहें। सदैव किसी नायक का मुँह जोहना गलत है। इस तरह नेताओं की अकर्मण्यता, या हानिकर कामों को जनता के ही माथे डाला जाता है। साथ ही दिलासा कि 'सरकार पर दबाव' डालना चाहिए, आदि। चूँकि ऐसी ही बातें संघ-भाजपा कार्यकर्ता भी जहाँ-तहाँ कहते हैं, इस से लगता है कि यह सब एक ही स्त्रोत से चलाई जा रही हैं। लेकिन संघ-भाजपा नेता, कार्यकर्ता ऐसी बातें तब नहीं कहते थे जब कांग्रेस की सत्ता थी। बल्कि तब सपने दिखाते थे, 'आने दो हमें पूर्ण बहुमत में/ हमारे फलाँ नेता को'!  वे फलाँ भी अपने ही बारे में, अन्य पुरुष में दावे करते थे, '... नहीं करेगा, तो कौन करेगा!' अब हालत यह है कि पश्चिम बंगाल में जिहादी कत्लोगारत मचा दें, मंदिर तोड़ दें, हिन्दुओं से गाँव खाली करा लें, एक नहीं अनेक - तब भी उस दावेदार के मुँह से एक औपचारिक बयान तक नहीं आता! अब जनता को उपदेशा जाता है कि ‘नेताओं पर दबाव डालें’। तब आखिर होल-टाइम राजनीति करने वाले संघ-भाजपा संगठनों का क्या काम है? क्या उन ने अपने को अ-हिन्दू मान रखा है, जिन्हें हिन्दू समाज के छीजने, मरने से कुछ अंतर नहीं पड़ना?  कैसी विचित्र अपेक्षा है, कि भोले, अनजान, अपने-अपने जीवन-संघर्ष में दबे अदद लोग उन करोड़ों सदस्य-संसाधनों वाले संगठित महानुभावों पर दबाव डालें, जबकि बना-बनाया ‘संगठन’ अलग खड़ा बस उपदेशता रहेगा! यह मूढ़ता/ उत्तरदायित्वहीनता की पराकाष्ठा है। तब संघ परिवार कांग्रेस और 'स्यूडो-सेक्यूलरिज्म', 'तुष्टिकरण', आदि की निंदा क्यों करता था? तब सरकार को मुक्त रखकर जनता को 'स्वयं'  यह वह करने नहीं कहा था। अपने को 'सच्चा सेक्यूलर'  जो 'तुष्टिकरण किसी का नहीं' करेगा, वाला विकल्प बताकर पेश किया था। वह कथनी थी। अब करनी में, उन की नीतियाँ हिन्दू समाज के विरुद्ध धोखा साबित हुईं। जितना बड़ा धोखा इस से पहले केवल वीपी सिंह ने किया था, जो सत्ता भी संघ-परिवार समर्थित थी। उस समर्थन बिना न वह बन सकती, न एक दिन भी चल सकती थी। अत: हिन्दुओं को तोड़ने वाला मंडल-प्रहार, तथा लाखों कश्मीरी पंडितों को तबाह होते चुप देखना - इन दोनों धोखे में भी संघ परिवार नेताओं की कुछ जिम्मेदारी रही। चाहे  कितना भी इंकार करें। किसी सरकार की हानिकर नीतियों और विश्वासघात में, उसे समर्थन देने और दिए रहने वाले भी दोष के भागी हैं। पर संघ-भाजपा को हर हाल में दोषमुक्त रखने को उन के समर्थक अजीबोगरीब प्रोपेगंडा करते हैं। इधर कुछ लोग अभियान चला रहे हैं कि भारतीय नागरिकों को भी हथियार रखने की छूट हो, ‘आर्म्स एक्ट’ खत्म या संशोधित किया जाए। हैशटैग ‘गन-लॉ-रिफेरेंडम’ के साथ एक पोस्ट सोशल मीडिया में चली है। लेकिन रेफेरेंडम लोग नहीं कराते। वह सरकार कराती है। वह भी तभी, जब वह जनमत अनुसार चलना चाहे। लेकिन भारत में तो सभी दल अपनी मर्जी, अपने स्वार्थ अनुसार, जनता को अनुचर रखना चाहते हैं। इसीलिए यहाँ किसी सरकार ने, किसी मुद्दे पर, कभी रेफेरेंडम नहीं कराया। न कराएगी। अतः ऐसे अभियान अन्य उद्देश्य में इस्तेमाल हो रहे हैं। केवल हिन्दुओं को सशंकित, उकसाए रखने, एक दल का वोटबंधक बने रहने में। इस से अधिक कुछ नहीं। क्योंकि ऐसे अभियान चलाने वाले 'पार्टी' मानसिकता के बंदी हैं। इस बेड़ी में बँधे कि चाहे 'ख' पार्टी हू-ब-हू 'क' वाली नीतियाँ ही क्यों न रखे, उन्हें 'ख' का वफादार रहना है। उस की कुनीतियों पर भी मन मार कर चुप रहना है। यानी, मापदंड नीतियों, उस के परिणामों का नहीं कि देशहित या हिन्दू हित में क्या है, बल्कि पार्टी ही मापदंड है! अतः उसे दोष नहीं दे सकते। सो अंततः वही बचता  है: हिन्दुओं को दोष देना, उकसाना, भड़काना, डराना, किन्तु नीति-परिवर्तन न करना। केवल ऊपरी, सांकेतिक, झुनझुने, तमाशे जैसे काम ताकि आस बनी रहे। भोजनालय शब्दावली में कहें तो बर्तन-प्लेट-चम्मच-काँटे खनकने की आवाज आती रहे। पर भोजन सामने न आए। क्योंकि भोजन बनाने का इरादा/योग्यता ही नहीं है! क्योंकि, जिस भी दल या सत्ताधारी को जो काम करना हो, उस के लिए उन्हें कभी किसी की परवाह नहीं रही। वे मजे से कर गुजरते हैं। गत आठ दशकों में ऐसे दर्जनों, ऐतिहासिक निर्णय हुए, जिस में जनता को भनक, अंदाजा भी न मिला कि क्या होने जा रहा है!  यानी, नेता इसे अपना दैवी अधिकार मानते हैं कि जब जो चाहें करें। उन्हें मिले वोट को भी इसी की पुष्टि बताते हैं। फिर उन्हें किस दबाव की परवाह भी हो? इसलिए जनता को 'दबाव देना चाहिए', तब नेता यह या वह करेंगे - ऐसा कहना बचकानापन या धोखा है। कुछ लोग विभिन्न घटनाओं, तमाशों, या कार्रवाइयों को ऐसे दिखाते हैं, मानो हिन्दू-हित में काम हो रहे हैं। यह भोले-भाले हिन्दुओं को झुनझुने से बहलाना है। राजनीति में असली बात नीति है। तमाशे, घटनाएं आनी-जानी होती हैं। तमाशों और *नीतियों* में मौलिक अंतर है। घटनाएं, जलसे, आदि यदि नीतियों को न बदलें, तो यथास्थिति बनी रहती है। अतः भव्य आयोजन केवल भ्रम पैदा करते हैं, कि 'कुछ तो हो रहा है', जबकि नीतिगत रूप से सब कुछ पहले जैसा रहता है। बल्कि, नीतिगत क्षेत्र में उसी समय अधिक घातक काम हो रहे हो सकते हैं – जैसे, किसी उग्र समुदाय को अघोषित आरक्षण जैसी सुविधा देते; उन के विशेषाधिकार बढ़ाते जाना; किसी क्षेत्र विशेष को ‘विकास’ करने के नाम पर विदेशी मुसलमानों के हवाले कर देना; जातिगत भेदभाव द्वारा हिन्दुओं को और विखंडित करना; तथा हिन्दुओं को भी मुसलमानों के बराबर कानूनी अधिकार देने की आवाज उठाने वाले अपने सांसदों का मुँह बंद करना। ये सब *नीतियाँ* हैं - हिन्दू विरोधी नीतियाँ - जिन की तुलना में हल्की चीजों को भी 'तुष्टिकरण' कह-कह कर जिन्होंने हिन्दू समाज से धन, जमीन, वोट समर्थन, आदि दशकों से माँगा औ पाया - वही लोग आज अधिक हानिकर नीतियाँ बना फैला रहे हैं। जिन का विरोध करने वाला भी अब कोई नहीं, क्योंकि बाकी दल तो पहले से वही काम कर रहे थे। इस तरह, धोखा खाए हिन्दू समाज को आडंबरों, तमाशों के झुनझुने से बहलाना स्वयं को अ-हिन्दू मानने जैसा है। मानो, उक्त घातक नीतियों से ऐसे हिन्दू नेताओं के जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। (जारी)
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