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संघ परिवार: निर्बलता का प्रसार

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संघ-परिवार के नेताओं का छलपूर्ण तर्क यह बनता है कि जब कांग्रेस सत्ता में हों, तब तो हिन्दू-हितों की दुर्गति के लिए राजसत्ताधारी जिम्मेदार हैं! लेकिन जब भाजपा सत्ता में हो, तब हिन्दू समाज ही जिम्मेदार है। यदि ऐसी मतिहीनता और स्वार्थपरता देश के करोड़ों संघ-भाजपा सदस्यों में भरी गई है, तो निश्चय ही संघ-परिवार ने केवल निर्बलता सह डफरता का प्रसार किया है। आखिरकार, हिन्दू ज्ञान परंपरा ने केवल सत्य को ही शक्ति का स्त्रोत बताया है। मिथ्याचार, मिथ्याभाषण, मिथ्याडंबर को नहीं।…अतः संघ-भाजपा अपने आई.टी. सेल द्वारा सोशल मीडिया पर, तथा अपने संगठन-पार्टी के सदस्यों के बीच जो भी मौखिक मिथ्या प्रचार, दोषारोपण, और आडंबर करते हैं, वह समाज को कमजोर करना है। उस का चरित्र गिराना है।

कहावत है: ‘संगठन में बल होता है’। पर संघ परिवार मानो यह मुहावरा पलटने में लगा है। जो हिन्दू उन के पार्टी/संगठन में नहीं, वह तो सच को सच, और बुराई को बुराई बता रहा है, लड़ रहा है। लेकिन जो संगठन में हैं, वही हर झूठ, घात, विश्वासघात, अन्याय, कुकर्म पर मन से या बेमन से चुप रहता है। अथवा, इच्छा अनिच्छा से उन कुकर्मों को सही ठहराता है। तो संगठन ने उसे बलवान या निर्बल बनाया?

यदि ऐसे ‘संगठित’ व्यक्ति यहाँ करोड़ से बढ़कर दो करोड़ भी हो जाएं, जो हिन्दुओं पर हो रहे जुल्म, अन्याय, विश्वासघात पर चुप रहेंगे – फलतः जिहादियों, वामपंथियों, मिशनरियों, आदि को प्रोत्साहित करेंगे – तो समाज अधिक सबल होगा या निर्बल?

यही विचारणीय है। संघ-परिवार का सारा जोर, समय, बुद्धि केवल ‘शाखा लगाने’, यानी अपना दल फैलाने पर लगी है। वे अन्य हिन्दू संगठनों, पार्टियों को मिटा देना चाहते हैं। उन के लोग ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ जैसा नारा देते हैं। जो स्वतः अन्य हिन्दू पार्टियों के लिए भी लागू है। उन के ऐसे प्रयत्न महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली, बिहार तक दिखते भी रहे हैं। संघ-भाजपा के सत्तासीन लोग किसी तबलीगी संस्थान या इस्लामी नेता पर हाथ नहीं डालते। किन्तु हिन्दुओं से भरी हर पार्टी और संगठन पर टेढ़ी नजर रखते हैं।

इस तरह, हिन्दुओं को अपने संगठन में लाकर, अधकचरी, या झूठी बातें पिलाकर, भ्रमित, अंधविश्वासी, बँधुआ सा, मुँह-सिला अनुचर बनाते हैं जो प्रश्न न पूछे। प्रश्न पूछने वाला अपना स्वयंसेवक भी उन्हें अविश्वसनीय, ‘निगेटिव’ लगता है! वे केवल अंध-अनुगामी चाहते हैं। किन्तु ऐसा कर के वे निस्संदेह केवल निर्बलता का प्रसार कर रहे हैं। इसे वे स्वयं जो समझें, पर दशकों से केवल राजसत्ता पाने की झक पालकर संघ ने अपने को और हिन्दू समाज को भ्रमित किया। ऊर्जा और समय का घोर अपव्यय किया। क्योंकि सत्ता लेकर वे अधिकाधिक भगोड़े, भीरू होते गए हैं। जब भी हिन्दुओं पर चोट पड़ती है, उन का संगठन, सत्ता, एजेंसियाँ, बल चुपचाप देखता रहता है।

आखिर, राज्यतंत्र या संगठन-पार्टी में भी स्वतः कोई शक्ति नहीं होती। मात्र उतनी होती है जितनी उस का नेतृत्व करने वाले के कलेजे में हिम्मत, हृदय में विवेक और माथे में बुद्धि होती है। जब किसी नेतृत्व में वह साहस व विवेक हो तभी राज्य या संगठन में भी बल होता है। वरना, सत्ता की कुर्सी या कार्यालय एक निर्जीव वस्तु है। यह संघ-परिवार के असंख्य नेताओं ने भी दशकों से लज्जाजनक रूप से बार-बार दिखाया।

आज भी दिल्ली से जम्मू, और बंगाल से महाराष्ट्र तक हिन्दुओं पर होते भौतिक, सांस्कृतिक हमलों पर कुछ कार्रवाई तो दूर, एक बयान देने का साहस भी संघ-भाजपा  नेताओं में नहीं दिखता। उन की हिन्दू-चिंता वाले छिट-पुट बयान भी उसी जमाने के मिलेंगे जब वे सत्ताविहीन थे। जब हिन्दुओं के विरुद्ध भेदभाव करने के लिए ही कांग्रेस की निन्दा करते थे। तो, अपना संगठन-पार्टी फैला कर, सत्ता लेकर वे बलवान हुए, या भीरू?

उन का हाल देख कर कौन उत्साहित और कौन हताश होगा – हिन्दुओ के सभ्यतागत शत्रु या हिन्दू समाज?

इस का उत्तर इस से भी मिलता है कि सत्तासीन हो जाने पर संघ-भाजपा के कार्यकर्ता हिन्दू समाज को ही कोसते हैं, कि वह ‘खुद क्यों नहीं लड़ता’! यानी, न केवल संघ-परिवार राजकीय तंत्र हाथ में लेकर उस के प्राथमिक कर्तव्य – नागरिकों की सुरक्षा – से भागता है, बल्कि अपनी आरामपसंदगी पर पर्दा डालने के लिए उसी समाज को कोसता है, जिसे उस ने छला है। यानी, पहले घाव देना, फिर उस पर नमक भी छिड़कना।

क्योंकि प्रथम, यदि हिन्दू समाज को खुद ही जिहादियों, मिशनरियों, और वामपंथी हमलावरों से लड़ना था, तो संघ-भाजपा और इस के सैकड़ों उपसंगठन किस लिए बनाए थे? दूसरे, यदि अपनी रक्षा के लिए हिन्दुओ को राज्यतंत्र से आशा नहीं रखनी है, तो यह बात कांग्रेस के सत्ताधारी रहते क्यों नहीं कही थी? केवल इसलिए, कि तब 1. उन्हें सत्ता लेने की अपनी चाह के लिए कोई दलील नहीं रहती; 2. संघ-भाजपा नेताओं (जो हिन्दू समाज के अगुआ बनते थे) को आगे बढ़कर ‘खुद लड़ कर’ दिखाना होता जो उन्होंने कभी नहीं किया।

इस प्रकार, संघ-परिवार के नेताओं का छलपूर्ण तर्क यह बनता है कि जब कांग्रेस सत्ता में हों, तब तो हिन्दू-हितों की दुर्गति के लिए राजसत्ताधारी जिम्मेदार हैं! लेकिन जब भाजपा सत्ता में हो, तब हिन्दू समाज ही जिम्मेदार है। यदि ऐसी मतिहीनता और स्वार्थपरता देश के करोड़ों संघ-भाजपा सदस्यों में भरी गई है, तो निश्चय ही संघ-परिवार ने केवल निर्बलता सह डफरता का प्रसार किया है।

आखिरकार, हिन्दू ज्ञान परंपरा ने केवल सत्य को ही शक्ति का स्त्रोत बताया है। मिथ्याचार, मिथ्याभाषण, मिथ्याडंबर को नहीं। प्राचीनतम उपनिषदों से लेकर आज के विवेकानन्द, श्रीअरविन्द, जैसे सभी मनीषियों ने कभी भी मिथ्या स्वांग, पार्टीबंदी और अपनी चमड़ी बचाने वाली चतुराई को शक्ति का लक्षण नहीं कहा है। यह व्यवहार में भी जगजाहिर है कि भौतिक विज्ञान या समाज विज्ञान, दोनों में सत्य को झुठला या छिपा कर कोई उन्नति, आविष्कार या समाधान नहीं हो सकता।

अतः संघ-भाजपा अपने आई.टी. सेल द्वारा सोशल मीडिया पर, तथा अपने संगठन-पार्टी के सदस्यों के बीच जो भी मौखिक मिथ्या प्रचार, दोषारोपण, और आडंबर करते हैं, वह समाज को कमजोर करना है। उस का चरित्र गिराना है। क्योंकि सदैव नेतृत्वकारी लोगों (महाजनो येन गतः …) के गुण-अवगुण, तौर-तरीके ही समाज में फैलते हैं। इस रूप में, जिस हद तक संघ-भाजपा देश का नेतृत्व हैं, उस हद तक उन के आडंबर, भीरुता, और उत्तरदायित्वहीनता हमारे समाज को दुष्प्रभावित कर रही है।

उन के बयानों, प्रकाशनों, तौर-तरीकों में भी शक्ति-संपन्नता का कोई आभास नहीं मिलता। जैसे, सामने मीठी पीछे क्षुद्र बातें करना। पार्टी-संगठन द्वारा चलाई जा रही संस्था को भी अराजनीतिक, ‘स्वतंत्र’ बताना। जिस से सहयोग माँगा जा रहा हो, उस के पूछने पर भी पूरी जानकारी न देना जिस काम के लिए सहयोग की अपील की जा रही हो, आदि। वे ऐसे खोखले दावे भी करते हैं जिन की सच्चाई स्कूली छात्र भी देख सकता है। जैसे, अपने को ‘सांस्कृतिक’ संगठन कहना जिस का दलीय राजनीति से संबंध नहीं या ‘संघ चरित्र-निर्माण करता है’, आदि।

वस्तुतः यह दुर्बलता एवं उत्तरदायित्वहीनता ही है कि वे अपने सदस्यों को भी अंधेरे में रखते हैं। गंभीर और दूरगामी महत्व के क्रियाकलापों पर भी। अपने नेताओं के अप्रत्याशित कामों, बयानों पर संघ-भाजपा के सक्रिय कार्यकर्ता तक भौंचक्के रह जाते हैं। पूछने पर उन्हें गोलमोल दिलासाओं से चुप किया जाता है। ऐसे दिलासे सदैव हवाई होते हैं और जिम्मेदारी लेकर नहीं कहे जाते। वे गुपचुप तथा अपरीक्षणीय होते हैं। अर्थात्, बेचारे विश्वासी अनुयायी भी छले जाते हैं। अनुत्तरदायी ढंग से दिलासे का आशय ही यही है कि आगे, या उसी समय कहीं और, दिलासे देने वाले वही नेता उन बातों से पल्ला झाड़ सकते है कि ऐसी कोई दिलासा हम ने नहीं दी थी!

फलत:, आए दिन उठने वाले राजनीतिक, सांस्कृतिक, और बौद्धिक प्रसंगों में अच्छे-भले कार्यकर्ता और  सहयोगी भी असहाय रहते हैं। नेताओं के भ्रामक, हानिकर कामों और झूठे बयानों पर भी मौन रहते हैं। जिन पर वे कदापि मौन न रहते, यदि उस संगठन में न होते। उन के वरिष्ठतम लोग भी सिर हिलाते हैं कि शिकायत तो ठीक है, पर ‘हम नहीं बोल‌ सकते’।

यह सब मनोबल कमजोर होते जाने का प्रमाण है। इसीलिए संघ-भाजपा के नेता, कार्यकर्ता किसी मामूली भी, किन्तु निर्भीक शत्रु के सामने प्रायः भगोड़ी प्रवृत्ति दिखाते हैं। चाहे चुनौती शाब्दिक हो या भौतिक राजनीतिक । तो ऐसे संगठन ने उन्हें बलवान बनाया या दुर्बल? जब वे अपने भी नेताओं के झूठ, या हानिकर कार्य पर मैदान छोड़ देते हैं और संघर्ष कर रहे किसी हिन्दू को ही लांछित करते हैं।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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