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संत रविदास वैदिक धर्म पर अडिग थे

महान संत रविदास को रामदास, गुरु रविदास, संत रविदास, रैदास के नाम से भी जाना जाता है। काशी निवासी संत रविदास का कहना था कि जाति भेद मिथ्या है, जन्म से कोई उँच-नीच नहीं होता, कर्म से व्यक्ति बड़ा होता है। जाति कोई भी हो, भगवत्भक्ति सभी का उद्धार करेगी। उनकी वैदिक धर्म पर परम आस्था थी, और वे वेद को सत्य ज्ञान की पुस्तक मानते थे।रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर होने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बतलाया और सबको परस्पर मिल जुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।

5 फरवरी -संत रविदास जयंती

सबमें मेल-जोल और आपसी भाईचारा बढ़ाने वाले संतों में अग्रगण्य संत, समाज सुधारक, कवि रविदास (1398-1518) गुरु स्वामी रामानंदाचार्यजी महाराज के शिष्य और संत कबीर के गुरूभाई थे। महान संत रविदास को रामदास, गुरु रविदास, संत रविदास, रैदास के नाम से भी जाना जाता है। काशी निवासी संत रविदास का कहना था कि जाति भेद मिथ्या है, जन्म से कोई उँच-नीच नहीं होता, कर्म से व्यक्ति बड़ा होता है। जाति कोई भी हो, भगवत्भक्ति सभी का उद्धार करेगी। उनकी वैदिक धर्म पर परम आस्था थी, और वे वेद को सत्य ज्ञान की पुस्तक मानते थे। अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले संत कुलभूषण कवि रविदास की रचनाओं में लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रहने के कारण जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता था। मधुर एवं सहज वाणी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह होने से भारी संख्या में लोग उनके अनुयायी हो रहे थे। रैदास की वाणी, भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी।

इसलिए उनकी शिक्षाओं का श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर होने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बतलाया और सबको परस्पर मिल जुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर गाया करते थे। अपने वैदिक विचारों के कारण संत रविदास अत्यंत प्रभावशाली संत माने जाते थे, और भारी संख्या में उनके अनुयायी थे, इसलिए मुसलमानों का सोचना था कि अगर संत रविदास इस्लाम मजहब स्वीकार कर लेते हैं, तो उनके हजारों अनुयायी भी मुसलमान बनेंगे। ऐसा सोचकर उन पर मुसलमान बनने के लिए अनेक प्रकार के दबाव आये, परन्तु उन्होंने वैदिक धर्म को नहीं त्यागा।

उस काल का तत्कालीन मुस्लिम सुल्तान सिकन्दर लोधी (लोदी) भी अन्य सभी मुस्लिम शासकों की भांति भारत के हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की उधेड़बुन में सदैव लगा रहता था। इन सभी आक्रान्ता मुस्लिम शासकों व आक्रमणकारियों की दृष्टि ग़ाज़ी उपाधि प्राप्ति पर लगी रहती थी। सुल्तान सिकन्दर लोधी ने संत रविदास को मुसलमान बनाने की जुगत में अपने मुल्लाओं को लगाया। जनश्रुति है कि कई मुल्ले संत रविदास महाराज से प्रभावित होकर स्वयं उनके शिष्य बन गए। सिकन्दर के कहने पर एक सदना पीर उन्हें मुसलमान बनाने के लिए आया। संत रविदास और सदना के मध्य शास्त्रार्थ हुआ, और सदना पीर रविदास के सामने निरूत्तर हो गया, और उसने हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता मान ली। रविदास की भक्ति और अध्यात्मिक साधना से भी वह इतना प्रभावित हुआ कि वह हिन्दू बन गया, और रामदास नाम से संत रविदास का शिष्य बन गया। उसकी देखा- देखी और भी बहुत से मुसलमान हिन्दू बने। सुल्तान सिकन्दर लोधी को इस बात की सूचना अनेक मौलवियों ने अपने- अपने ढंग से दी। सिकन्दर लोधी अपने षडयंत्र की इस दुर्गति पर चिढ़ गया, और उसने संत रविदास को बंदी बना लिया, और मुस्लिम होने के लिए अनेक प्रकार से दबाव डाला, बहुत कष्ट दिया, भांति- भांति के प्रलोभन भी दिखाया, परन्तु संत रविदास टस से मस नहीं हूए, और उन्होंने दृढ़ता पूर्वक हिन्दू धर्म में अपनी श्रद्धा, निष्ठा व्यक्त करते हुए कहा- वेद धरम त्यागूँ नहीं, जो गल चलै कटार। जान मार देने धमकी आने पर वे बोले – प्राण तजूँ पर धर्म न देऊँ।

बंदी संत रविदास की इस बात से खीझकर सिकन्दर लोधी ने उनके अनुयायियों को हिन्दुओं में सदैव से निषिद्ध खाल उतारने, चमड़ा कमाने, जूते बनाने के कार्य में लगा दिया। दुष्ट लोधी ने चंवर वंश के क्षत्रियों को अपमानित करने के लिए उनका नाम बिगाड़ कर उन्हें चमार संज्ञा से सम्बोधित किया। चमार शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग यहीं से शुरू हुआ। संत रविदास के बंदी बनाने का समाचार मिलने पर चंवर वंश के क्षत्रियगण दिल्ली पर चढ़ दौड़े और दिल्लीं की नाकाबंदी कर ली। विवश होकर सुल्तान सिकन्दर लोधी को संत रविदास को छोड़ना पड़ा । इस लड़ाई का उल्लेख इतिहास की पुस्तकों में नहीं है, और कहा गया है कि बाद में एक चमत्कार हुआ और सिकन्दर लोदी ने क्षमा मांगकर रविदास को कारागार से मुक्त किया। लेकिन संत रविदास रचित ग्रन्थ रविदास रामायण में इस लड़ाई और उसके परिणाम का उल्लेख करते हुए काव्य रूप में कहते हैं सबसे बड़े वेद धर्म को मैं क्यों छोडूँ, और अनुपम सच्चा ज्ञान देने वाले वेद को छोड़ झूठा कुरआन क्यों पढूँ?

उल्लेखनीय है कि संत रविदास राम के अनन्य भक्त थें। उनका भक्ति -भाव देखकर काशी नरेश उनके शिष्य बन गए, चित्तौड़ की महारानी झाली बाईसा, कुलवधू संत मीरा उनकी शिष्या बनीं। चित्तौड़ में संत रविदास की समाधि अवस्थित है। चित्तौड़ के महाराणा ने मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के लिए संत रविदास को बुलाया, तो ब्राह्मण पंडि़तों ने इसका विरोध किया। इस पर भी राजा ने रविदास का सम्मान किया। संत रविदास चंवर क्षत्रिय थे, और पिप्पल गोत्र के थे। संत रविदास अपने भजन में कहते है –

जाके कुटुम्ब सब ढोर ढोवंत,

आज बानारसी आस पासा

आचार सहित विप्र करहिं दंडवत, ।

तिन तनय रैदास दासानुदासा।।

अर्थात – रविदास जी के जाति भाई आज वाराणसी के आस पास मरे पशु ढो रहे हैं, परंतु उनके पूर्वज प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, जिन्हें ब्राहमण आचार सहित साष्टांग प्रणाम करते थे, इस क्षत्रिय चंवर कुल को इस तरह नीचे उतारने का काम सिकन्दर लोधी ने किया था।

ध्यातव्य है कि भारत में इस्लाम के पूर्व अस्पृश्यता नाम की कोई प्रथा नहीं थी, और इस्लाम के आक्रमण के बाद ही भारत में अस्पृश्यता का प्रवेश हुआ। पूर्व काल में हमारे ऋषि- मुनि मृगचर्म, व्याघ्रचर्म रखते थे, जंगलों में कोई मृत हिरण अथवा शेर मिलता था तो उसका चमडा उतारना और उसे साफ करने का कार्य वे और उनके शिष्य ही करते थे। परन्तु इन ऋषि – मुनियों को कभी चर्मकार (अछूत) नहीं कहा गया। उस समय भारत में सूत व रेशम के वस्त्र आम पहनावा होते थे, और इन वस्तुओं की निर्यात भी होती थी। रस्सी, धागा सूत या रेशम के होते थें। चमडे के जूते के स्थान पर लकड़ी की खड़ाऊ होती थी, परन्तु अरबस्थान में सूत या रेशम नहीं था, वहाँ चमड़े के अधोवस्त्र, चमड़े के जूते, चमड़े की थैली, चमड़े की रस्सी और चमड़े की जीन होती थी। वहाँ कृषि नहीं थी, सभी मांसाहारी थे। जब उनका भारत में आगमन हुआ, तो ये सब काम उन्होंने सर्वप्रथम भारत में शुरू किया। चमड़े की मांग सैकड़ों गुना बढ़ गई। मांसाहार भी सैंकड़ों गुना बढ़ गया, लाखों की संख्या में गाय, बैल और अन्य पशुओं की हत्या होने लगी। गोमांस भक्षक मुस्लिम आक्रांताओं ने बलपूर्वक, जबरदस्ती से परास्त हुए, गुलाम बने हिन्दू बंदियों को इस काम में लगाया। चमड़ा उतारना, जूता चप्पल बनाना, ढाल या अन्य युद्ध सामग्री बनाना आदि ये चमड़े का काम करने वाले हिन्दू बन्दी चर्मकार हो गए, और धीरे धीरे अछूत बन गए। जिन्हें पशु काटने का काम करना पड़ा, वे हिन्दू खटीक बन गए और फिर अछूत बन गए, परन्तु इन सभी ने अपना वैदिक हिन्दु धर्म नहीं छोड़ा। ये सारे धर्मयोद्धा हैं, परन्तु अत्यंत खेद की बात है कि जय भीम, जय मीम का नारा लगाने वाले आज के कुछ राजनेता दलित भाईयों का कठपुतली के समान प्रयोग कर रहे हैं। यह मानसिक गुलामी का लक्षण है। दलित-मुस्लिम गठजोड़ के रूप में बहकाना भी इसी कड़ी का भाग हैं। संत रविदास लम्बे समय तक चित्तौड़ के दुर्ग में महाराणा सांगा के गुरू के रूप में रहे हैं।

संत रविदास के महान, प्रभावी व्यक्तित्व के कारण बड़ी संख्या में लोग इनके शिष्य बने। आज भी इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में रविदासी पाये जाते हैं। जिस प्रकार उस काल में इस्लामिक शासक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए हर संभव प्रयास करते रहते थे, उसी प्रकार का कार्य वे आज भी कर रहे हैं। उस काल में दलितों के प्रेरणास्रोत्र संत रविदास सरीखे महान चिंतक, वैदिक विचारक थे, जिन्हें अपने प्राण न्योछावर करना स्वीकार था, लेकिन सत्य ज्ञान की पुस्तक वेदों को त्याग कर क़ुरान पढ़ना स्वीकार नहीं था। परन्तु इसके ठीक विपरीत आज के दलित राजनेता अपने तुच्छ लाभ के लिए अपने पूर्वजों की संस्कृति और तपस्या की अनदेखी कर रहे हैं, जो देश के बहुसंख्यक समाज के लिए घातक है।

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