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सरिस्का, सरकार और समाज

Byसंदीप जोशी,
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सरिस्का, सरकार और समाज
अनुपम मिश्र की समझ-सलाह, राजेन्द्र सिंह की कर्मठता और समाज की लगन ने जो बीज बोया था वह आज फला-फूला लग रहा है। इस बार की बारिश में बीस-तीस सालों की बरकत-हरकत साफ देखी जा सकती है। जयसमंद बांध, सिलिसेढ़ तालाब और देवरी गांव का कुआं लबालब भरे है। भू-जल गहरा, और कई सौ जलस्त्रोत साल-भर भरे रहते हैं। कोरोना काल में ब्रिटिश टीवी पत्रकार, प्रकृति इतिहासकार और लेखक डेविड एटनबरो की नेटफिल्मस् पर एक फिल्म आई थी- “अपने ग्रह पर एक जीवन।” उसमें वे कहते हैं कि मानव-दुनिया एक अनोखा और अद्भुत चमत्कार है। फिर भी हम इंसान जिस तरह इस पर रहते हैं, वह पृथ्वी को पतन की ओर ले जाना हैं। हम वन-जंगल की प्रकृति को बदल कर वश में करना चाहते हैं। इसीलिए हमारा ग्रह विनाश की ओर बढ़ रहा है। हमें प्रकृति के साथ जीना सीखना होगा। इसके खिलाफ या इसे वश में करने की कोशिशें छोड़नी होंगी। इस फिल्म को डेविड एटनबरो ने अपने 93 साल के घुमक्कड़ी जीवन का गवाहीनामां माना। और भविष्य के लिए इसको अपनी दूरदृष्टि कहा। मानसूनी बारिश के बाद राजस्थान के अलवर के पास सरिस्का के टाईगर सुरक्षित जंगल में जाना हुआ। बारिश से नहायी प्रकृति का अद्भुत चमत्कार देखा। जंगल जीवन की गजबई सुंदर, और अनोखी शांत छटा देखी। अपने जंगलीपन में प्रकृति बेहद खूबसुरत और आत्मानंद में दिखी। ऐसे ही समय में जानवरों को जंगल अपना लगने लगता है। जल जंगल जानवर की जुगलबंदी पर ही जन का भी कल्याण निहित है। लेकिन इंसानी विलासिता, अतिक्रमण और भ्रमण का सरकारी खेल भी समझ आता है। बेशक आज जंगल सीमित, जल मुश्किल और जानवर विलुप्त हो रहे हों लेकिन प्रकृति तो शालीनता से इंसान को बराबर याद दिलाती आयी है। और सभ्य समाज को प्रेरित करती रहती है। पिछली सदी के अस्सी के दशक में पहली बार सरिस्का जाना हुआ था। इंसानी विलासिता और अतिक्रमण के दर्शन तब भी हुए थे। प्रकृति तो हर साल कम, पर्याप्त या ज्यादा बारिश करती ही रही है। समय-समय पर धरती को नहलाती ही रही है। लेकिन जल, जंगल और जानवर को सुरक्षा देने वाली अरावली की पहाड़ियां नंगी, पेड़-पौधे विहीन और बदसूरत हो गयी थीं। कुएं कचराघर, कुंडों पर कुनबे और तालाबों पर खेती या फैकट्रियां पनपने लगीं थी। बारिश का जल जमीन पर बाढ़ ही लाता था। जंगल जानवर विहीन हो गए थे। वहां का हवा-पानी और पर्यावरण अस्त-व्यस्त हो कर नष्ट हो रहे थे। फिर भी इंसान सुविधा के नए-नए साधन खोजने में ही लगा था। जीवन के लिए जरूरी जल, हवा और पशु-मवेशी सभी त्रस्त नजर आए थे। राजस्थान के जल संरक्षण को समझने वाले, और “राजस्थान की रजत बुंदें” व “आज भी खरे हैं तालाब” लिखने वाले पर्यावरण प्रेमी अनुपम मिश्र को उसी समय जयपुर में रहने वाले राजेन्द्र सिंह मिले। अनुपम मिश्र की सलाह पर राजेन्द्र सिंह अलवर आए। जिले के भीखमपुरा में तरूण भारत संघ की स्थापना की। लोगों को राजस्थान की जल संरक्षण विरासत समझाने में लगे। सभी को साथ ले कर कुएं, कुंड, बावड़ी और तालाब खोदने व सफाई करने के काम में जुटाया। कई अड़चने और अतिक्रमण हटाए। जंगल और गांववालों को सहजीवन के विकल्प सुझाए। सरकारों के अड़ंगे समझे, और सुलझाए। जल का संरक्षण होने लगा। जल श्रोत भरने लगे। पेड़-पौधे उगने लगे। जंगल हरे-भरे हुए। इस सब के बावजूद सरकारी योजनाएं सिर्फ एक-तरफा साथ, और कुछ-एक का ही विकास करती रही हैं। मगर वोट के लिए सब का विश्वास जीतना चाहती हैं। जंगल भ्रमण के व्यापार का धन तो चाहती हैं मगर न तो जल को संजोती हैं, न जंगल फैलाती हैं और न ही जन अतिक्रमण रोकती हैं। टाईगर डेन में काम करने वाले धर्मवीर सिंह को जरूर आत्मनिर्भर रोजगार योजना के तहत अपनी बीस बीघा बंजर जमीन पर पेड़-पौधे लगाने का फायदा मिलेगा। आशा है जंगल भ्रमण की बाकि सरकारी व्यवस्थाएं भी सुधरेंगी। अनुपम मिश्र की समझ-सलाह, राजेन्द्र सिंह की कर्मठता और समाज की लगन ने जो बीज बोया था वह आज फला-फूला लग रहा है। इस बार की बारिश में बीस-तीस सालों की बरकत-हरकत साफ देखी जा सकती है। जयसमंद बांध, सिलिसेढ़ तालाब और देवरी गांव का कुआं लबालब भरे है। भू-जल गहरा, और कई सौ जलस्त्रोत साल-भर भरे रहते हैं। जल संरक्षण की इसी समझ से आज जन जीवंत हैं। जंगल हरे, और जानवर भरे हैं। समाज के इन्हीं नेताओं की सामुहिक सूझबुझ और कर्तव्यपथ निष्ठा से समयकाल की सभ्यता रची जाती है। अब सरिस्का सही में जन, जल और जानवर का जंगल है।
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