इस दिन मंदिरों में विशेष सेवा पूजन किया जाता है। इस दिन शिव, पार्वती और कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है। इसी दिन कार्तिक स्नान के साथ, राधा-दामोदर पूजन व्रत धारण करने का भी विधान है। माताएं अपनी संतान की मंगल कामना से देवी-देवताओं का पूजन करती हैं। विवाह होने के बाद पूर्णिमा अर्थात पूर्णमासी के व्रत का नियम शरद पूर्णिमा से ही प्रारम्भ किये जाने का विधान है। उल्लेखनीय है कि भगवान विष्णु के अवतारों मे से केवल भगवान श्रीकृष्ण में ही सोलह कलाओं से संयुक्त शरद पूर्णिमा की रात्रि की चन्द्रमा की भांति सोलह कलाओं का समावेश है, इसीलिए इन्हें षोडश कलायुक्त योगीश्वर श्रीकृष्ण कहा जाता है।
9 अक्टूबर- शरद पूर्णिमा
शरद पूर्णिमा के नाम से आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन सर्व मनोकामना पूर्ति और सन्तान सुख के लिए शरद पूर्णिमा व्रत किया जाता है। इसे शरत पूर्णिमा, रास पूर्णिमा, टेसू पूनै, बंगाल लक्ष्मी पूजा, कौमुदी व्रत, कोजागरी लक्ष्मी पूजा भी कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार संपूर्ण वर्ष में सिर्फ आश्विन शुक्ल पूर्णिमा के दिन ही चन्द्रमा षोडश कलाओं का होता है। इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से सुधा झरने के कारण श्रीकृष्ण ने जगत की कल्याण के लिए रासोत्सव का यह दिन निर्धारित किया है। इस दिन श्रीकृष्ण को कार्तिक स्नान करते समय स्वयं कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने की कामना से देवी पूजन करने वाली कुमारियों को चीर हरण के अवसर पर दिए वरदान की याद आई थी और उन्होंने मुरली वादन करके यमुना के तट पर गोपियों के संग रास रचाया था।
इस दिन मंदिरों में विशेष सेवा पूजन किया जाता है। इस दिन शिव, पार्वती और कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है। इसी दिन कार्तिक स्नान के साथ, राधा-दामोदर पूजन व्रत धारण करने का भी विधान है। माताएं अपनी संतान की मंगल कामना से देवी-देवताओं का पूजन करती हैं। विवाह होने के बाद पूर्णिमा अर्थात पूर्णमासी के व्रत का नियम शरद पूर्णिमा से ही प्रारम्भ किये जाने का विधान है। उल्लेखनीय है कि भगवान विष्णु के अवतारों मे से केवल भगवान श्रीकृष्ण में ही सोलह कलाओं से संयुक्त शरद पूर्णिमा की रात्रि की चन्द्रमा की भांति सोलह कलाओं का समावेश है, इसीलिए इन्हें षोडश कलायुक्त योगीश्वर श्रीकृष्ण कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा के दिन भगवान कृष्ण ने दिव्य प्रेम और नृत्य के संगम महारास को स्वयं वृंदावन में रचा था। इसलिए बृज क्षेत्र में शरद पूर्णिमा को रस पूर्णिमा भी कहा जाता है।
ज्योतिष शात्र की मान्यताओं के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा की किरणों में उपचार करने की शक्ति विद्यमान होती हैं। परंपरागत रूप से शरद पूर्णिमा के दिन देशी गाय के दूध में दशमूल क्वाथ, सौंठ, वासा, अर्जुन की चाल चूर्ण, तालिश पत्र चूर्ण, वंशलोचन, बड़ी इलायची पिप्पली इन सबको आवश्यक मात्रा में मिश्री मिलाकर पकाकर बनी खीर अथवा कोई अन्य मिष्टान्न में ऊपर से शहद और तुलसी पत्र मिलाकर ताम्बे के साफ़ वर्तन में रात भर पूर्णिमा की चांदनी में खुले आसमान में जालीदार ढक्कन अथवा कपडे से ढककर अपने घर की छत पर चन्द्रमा को अर्ध्य देकर रख देना चाहिए, जिससे कि उन व्यंजनों में भी अमरत्व की शक्ति प्रवेश कर जाए। रात्रि जागरण कर रहे दमे के रोगी को सुबह ब्रह्म बेला में इस खीर को सेवन कराने से दमे के रोगी को रोग से मुक्ति मिलती है।
इससे रोगी को सांस और कफ दोष के कारण होने वाली तकलीफों में लाभ मिलता है। रात्रि जागरण के महत्व के कारण ही इसे जागृति पूर्णिमा भी कहा जाता है। इसका एक कारण रात्रि में स्वाभाविक कफ के प्रकोप को जागरण से कम करना है। स्वस्थ व्यक्ति सामान्य रूप में और मधुमेह से पीड़ित रोगी भी मिश्री की जगह प्राकृतिक मीठा स्टीविया की पत्तियों को मिला कर इस खीर का सेवन कर सकते हैं। इस पूरे महीने मात्रा अनुसार सेवन करने साइनोसाईटीस जैसे उर्ध्वजत्रुगत (ई.एन.टी.) से सम्बंधित समस्याओं में भी लाभ मिलता है। आयुर्वेदिक चिकित्सक शरद पूर्णिमा की रात दमे के रोगियों को रात्रि जागरण के साथ कर्णवेधन भी करते हैं, जो वैज्ञानिक रूप सांस के अवरोध को दूर करता है। वैज्ञानिक मान्यतानुसार भी शरद पूर्णिमा की रात्रि चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होने के कारण स्वास्थ्य वर्द्धक व सकारात्मकता प्रदान करने वाली मानी जाती है। शरद पूर्णिमा की रात्रि चन्द्रमा की किरणों में विशेष प्रकार के लवण और विटामिन आ जाते हैं।
पृथ्वी के निकट होने पर इसकी किरणें खाद्य पदार्थों पर सीधी पड़ती हैं, तो उनकी गुणवता में वृद्धि होती है। मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात्रि चन्द्रमा चन्द्रमा सोलह कलाओं से सम्पन्न होकर अमृत वर्ष करता है, इसीलिए इस रात दूध से बने खीर को खुले आसमान में रखा जाता है, और सुबह उसे प्रसाद मानकर खाया जाता है। मान्यता है कई इससे रोगों से मुक्ति मिलती है और उम्र लम्बी होती है। निरोग तन के रूप में स्वास्थ्य का कभी न खत्म होने वाला धन दौलत से भरा भंडार मिलता है। आश्विन मास की पूर्णिमा शरद पूर्णिमा की महिमा का वर्णन करते हुए षोडश कलायुक्त श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता 15/13 में स्वयं कहा है-
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।’
अर्थात -रसस्वरूप अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।
शरद पूर्णिमा की पौराणिक कथा श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों संग महारास रचाने से तो जुड़ी ही है, लेकिन इसके महत्व को प्रदर्शित करती एक अन्य कथा भी प्रचलित है। शरद पूर्णिमा से सम्बन्धित उस पौराणिक कथा के अनुसार एक साहूकार की दो पुत्रियां थीं और दोनों ही पूर्णमासी का व्रत करती थीं। बड़ी बहन तो सम्पूर्ण व्रत विधिवत करती थी परन्तु छोटी बहन आधी- अधूरा व्रत कर इसे इतिश्री समझ लेती थी। समय पर दोनों बहनों की शादी हुई। शादी के बाद छोटी बहन की उत्पन्न होने वाली सभी संतान जन्म लेते ही मर जाती थी, और बड़ी बहन की सभी संतानें जीवित रहतीं। इस बात से चिंतित छोटी बहन ने एक दिन पण्डितों को बुलाकर उन्हें अपना दु:ख बताया तथा इससे निवारण का कारण पूछा। इस पर पण्डितों ने बताया- तुम्हारे द्वारा अब तक अधूरा पूर्णिमा व्रत किये जाते रहने के कारण ही तुम्हारी संतानों की अकाल मृत्यु हो जाती है। पूर्णिमा का विधिपूर्वक पूर्ण व्रत करने से तुम्हारी संतानें भी तुम्हारी बड़ी बहन की संतानों की भांति ही जीवित रहेंगी। तब उसने पण्डितों की आज्ञा मानकर उनके बतलाये विधि-विधान से पूर्णमासी का व्रत किया। कुछ समय बाद उसके लड़का हुआ, लेकिन वह भी शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब उसने लड़के को पीढ़े पर लेटाकर उसके ऊपर कपड़ा ढक दिया।
फिर उसने अपनी बड़ी बहन को बुलाया और उसे वही पीढ़ा बैठने को दे दिया। जब बड़ी बहन उस पीढ़े पर बैठने लगी तो उसका वस्त्र पीढ़े व मृत बच्चे से छू गया। उसके वस्त्र बच्चे से छूते ही लड़का जीवित होकर रोने लगा। तब क्रोधित होकर बड़ी बहन छोटी बहन से बोली- तू मुझ पर कलंक लगाना चाहती थी। यदि मैं पीढ़े में बैठ जाती तो यह लड़का मर जाता और तुम मुझ पर भांति- भांति के आरोप लगाती और उलाहने देती । तब छोटी बहन बोली- यह तो पूर्व से ही मरा हुआ था, और अब तेरे भाग्य से जीवित हुआ है। हम दोनों बहनें पूर्णिमा का व्रत करती हैं तू पूरा करती है और मैं अधूरा, जिसके दोष से मेरी संतानें मर जाती हैं। लेकिन तेरे पुण्य से यह बालक जीवित हुआ है। इसके बाद उसने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा घोषणा करवा दिया कि आज से सभी पूर्णिमा का पूरा व्रत करें, यह संतान सुख देने वाला है। कहा जाता है कि तब से ही यह व्रत प्रारम्भ हुई।
मान्यता के अनुसार इसी दिन माता लक्ष्मी का जन्म हुआ था। इसलिए धन प्राप्ति के लिए यह तिथि सबसे उत्तम मानी गई है। ऐसी मान्यता है कि चन्द्रदेव द्वारा बरसाई जाने वाली चांदनी, खीर या दूध को अमृत से भर देती है। आश्विन पूर्णिमा के दिन ही रावण अपनी नाभि पर चन्द्रमा की किरणों को लेकर पुन: शक्तिशाली होता था। पौराणिक कथाओं के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात भगवान विष्णु माता लक्ष्मी के साथ विचरण पर निकलते हैं और उनके हाथ में अमृत कलश होता है। वह जहां-जहां जाते हैं, अमृत की बूंद गिरती है। कहा जाता है कि इस रात घरों में न तो अंधेरा करना चाहिए और न ही सोना चाहिए। रात में लोग जागरण करके भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की आराधना करते हैं।
प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत माता लक्ष्मी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं। शरद कोजागरी पूजा भारतीय राज्य जैसे उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और असम में अश्विन पूर्णिमा के दौरान देवी लक्ष्मी को समर्पित होती है। लक्ष्मी पूजा का यह दिन कोजागरी पूर्णिमा या बंगला लक्ष्मी पूजा के रूप में भी जाना जाता है। शरद पूर्णिमा के ही दिन ही ब्रज क्षेत्र में टेसू और झेंजी का विवाह संपन्न होता है। इस विवाह के बाद ही क्षेत्र में विवाह उत्सव आदि प्रारम्भिक कार्य शुरू हो जाते हैं। एक मान्यता के अनुसार सबसे पहले टेसू का विवाह होगा, फिर उसके बाद ही कोई विवाह उत्सव की प्रक्रिया प्रारंभ कर सकेगा।