शरद यादवः उनसे मिली नई राजनीतिक दृष्टि

शरद यादवः उनसे मिली नई राजनीतिक दृष्टि

शरद जी को मैं भारतीय राजनीति का एक बड़ा नेता मानता हूं। …देश की समस्याओं, राजनीति, वैचारिक मुद्दों, याआफ रिकार्ड या आन रिकार्डखबरों से बार-बार अहसास होता था कि शरदजी की सियासी सोच कितनी साफ है। अपने छात्र जीवन में जिन कुछ नेताओं के भाषण और उनकी विचारधारा मुझे प्रभावित करती थी, उनमें से एक शरदजी थे।

लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव

सुबह आंख खुलते मोबाइल पर जो पहला संदेश दिखातो उसने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। बिस्तर से उठ बैठा। एक के बाद एक कई बाते, यादें दिमाग में आती गई। बहुत सी यादे, बहुत सी बाते और साथ में यह आत्मग्लानि भी कि मैं एक अरसे से उनसे नहीं मिला। आप जिस पेशे में रहते हैं, उससे संबंधित जितने लोगों से मिलते हैं, उनमें कुछ से निजी मित्रता भी हो जाती है। एकाध आपके बहुतकरीबि, निज रिश्ते से हो जाते हैं। उनसे काफी कुछ सीखते हैं, स्नेह पाते हैं। मेरी पत्रकारिता में ऐसे जो दो चार नेता थे उनमें शरद यादव भी थे। मेरे और रामविलास पासवान की मित्रता के बारे में कई लोग जानते हैं। पर शरद जी घनिष्ठ संबंधों को कम ही लोग जानते हैं। संयुक्त मोर्चे की सरकार, जनता दल और तीसरे मोर्चे की पार्टियों को कवर करने वाले पत्रकार जानते है। पर उन यादों से अधिक मुझे पछतावा यह हैं कि मैं उनसे उनकी बीमारी के दौर में भी नहीं मिला। वजह बहुत हैं, पर सच यह भी है कि शायद मैंने उनसे मिलने के लिए पूरी कोशिश नहीं की।

मुझे जिस मित्र ने सुबह मैसेज दिया वह शरदजी के मंत्रालय में संयुक्त सचिव के पद पर काम कर चुके थे। उन्हे मेरी एक बार की सिफारिश पर, बगैर इनसे किसी पूर्व परिचय के सेंट्रल डेपूटेशन में अपने मंत्रालय में बुला लिया था। मेंरे ऊपर उनका भरोसा था, इसलिए मेरे उन पर भी उनका भरोसा हुआ। शरद जी को मैं भारतीय राजनीति का एक बड़ा नेता मानता हूं। ऐसा राजनीति में उनकी बनाई जगह, उनके राजनीतिक कद की वजह से ही नहीं, बल्कि उनसे अंतरंग बातचीत में जानी हकीकतों से है। देश की समस्याओं, राजनीति, वैचारिक मुद्दों, या‘आफ रिकार्ड’ या ‘आन रिकार्ड’खबरों से बार-बार अहसास होता था कि शरदजी की सियासी सोच कितनी साफ है। अपने छात्र जीवन में जिन कुछ नेताओं के भाषण और उनकी विचारधारा मुझे प्रभावित करती थी, उनमें से एक शरदजी थे। पत्रकारिता में आने के बाद उनसे संपर्क में मैंने धीरे-धीरे उनसे बहुत कुछ सीखा। उनसे बहस होती थी, सवाल जवाब करता था, कभी कभी ऐसा गुस्सा करते जैसे मैंने क्या बकवास कर दी है, पर वे जवाब पूरा देते। दिल्ली में जब मुझे जूनियर पत्रकारों की श्रेणी में माना जाता था तब भी पूरा तव्वजों देते। सच पूछा जाए तो हिंदुस्तान की राजनीति में जाति और सामाजिक समीकरण के अत्यधिक महत्व को शरद जी से ही मैंने ठीक तरीके से जाना। फिर मैं भी मानने लगा कि यदि आप हिंदुस्तान की जाति व्यवस्था को नहीं जानते, समाज को नहीं जानते तो हिंदुस्तान की राजनीति को भी नहीं जानते।

बात 1995-96 की है। शरद जी के साथ मैं अकेला उनके इलाहाबाद, मिर्जापुर और पूर्वांचल के दौरे पर जा रहा था। जनसत्ता की तरफ से रिर्पोटिंग करने के लिए था। सैकेंड क्लास एसी के लोअर बर्थ पर वें और में आमने- सामने थे। राजनीति पर हो रही चर्चा में उन्होंने कहा इस देश में प्रदीप, जाति ‘एक जमी काई’ की तरह है। लोकशाही के लिए अभिशाप है। फिर बताना शुरू किया किस तरह जाति समाज, कल्चर, खान पान, रहन सहन, कपड़ों, उनके पहनने के तरीके पर प्रभाव डालती है। गांवों में ब्राह्मण, पिछड़े और दलित कैसे खैनी को दोनों हथेलियों, एक अंगूठे से, तीन ऊंगलियों से रगड़ कर अलग-अलग तरीके से बनाते हैं। इसी तरह बीड़ी और सिगरेट पीने का अलग तरीका। इन तीनों वर्ग की जातियां किस तरह अलग अलग तरीके से धोती पहनते हैं, धोती का फेंटा कैसे अलग होता है, शास्त्रीय संगीत में क्यों केवल अगड़ी जातियों के लोगों का वर्चस्व रहा, सब कुछ बताते रहे।

संगीत की बात पर मेरे मुंह से गलती से बांसुरीवादक हरिप्रसाद चौरसिया का नाम निकल गया और वे ठहाका मार कर हंसे। बताया वे पान वाले चौरसिया नहीं हैं, ब्राह्मण हैं। फिर उनके साथसालों लंबे संपर्क में उनकी कई बातों से मष्तिक के द्वार खुलने लगे। 8-9 साल हो गए थे पत्रकारिता में आए। पहले मैं चुनावी और राजनीतिक समीक्षाओं में भी जाति के आधार पर विश्लेषण करने से बचता था। लगता था ऐसा करने से मैं जाति व्यवस्था के बढ़ावा दूंगा। पर शरद जी ने बिना कहे यह समझा दिया कि यदि जाति की समझ मुझमें नहीं हैं तो मैं राजनीतिक विश्लेषण ईमानदारी से कतई नहीं कर सकता। मैंने पिछले सालों में केसी त्यागी, अपने वरिष्ठ पत्रकारों सहित कईयों के सामने स्वीकार किया है कि शरद जी ने मुझे एक नई राजनीतिक दृष्टि दी थी। वह शुरूआती तीन दिन का उनके साथ अकेले में किया प्रोफेशन असाइंमेंट मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण समय बन गया।

उसी दौरान जीप से इलाहाबाद से मिर्जापुर जाते समय रात को उनसे गांधी पर भी बात हुई। उनका मानना था कि अगर देश की राष्ट्रीय धारा से ‘गांधीवादी सोच को अलग रखते है तो राज तो चलेगा, पर देश की समस्याओं का हल नहीं निकलेगा।‘ लोहिया को उन्होंने राजनीति का सबसे बड़ा दर्शनशास्त्री बताया। पर उन्होंने यह भी कहा कि लोहिया ने गांधीवादी सोच को ‘डाईकास्ट’ किया, समाजवाद का स्वरूप निकाला, इससे एक सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम निकला।

1996 में ही जनसत्ता के लिए मुझे दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने गांधी जी के अंतिम सीढ़ी पर बैठे व्यक्ति को अपनी तरह से परिभाषित किया था। उन्होंने कहा कि ‘दिहाड़ी मजदूर देश का अंतिम आदमी’ है। उसकी स्थिति सुधरी तो देश की स्थिति सुधर जाएगी। इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि देश का सबसे ज्यादा रोजगार खेती और दस्तकारी से जुड़ा है। पर इन्हें मजबूत करने की जगह इन्हें खत्म किया जा रहा है। आज उदारवाद की बुखार उतरने के बाद यह सच बहुत से लोग महसूस कर रहे है।

वे बड़े नेता इसलिए भी थे क्योंकि पत्रकारों से बात करते समय वे वरिष्ठ और जूनियर पर नहीं, पत्रकार की राजनीति समझ को ज्यादा तव्वजों देते थे। कई संपादकों से उनकी मित्रतता थी, पर उस अखबार के रिपोर्टरों पर ना यह जाहिर होने देते और ना ही बातचीत में इस अंतर पर ध्यान रखते थे। मुझे मालूम था कि मेरे अखबार में उनकी प्रभाष जी, व्यास जी,राय साहब, सभी से गहरी मित्रता है, पर बातचीत में कभी उनका नाम नहीं लेते, संदर्भवश आ जाए तो अलग बात है। ओम थानवी जब चंडीगढ़ से दिल्ली  संपादक बन कर आए तो एक दिन मुझसे कहा शरद जी से टाइम लो, मिलना चाहते हैं। उन्हें मालूम था कि उनसे मेरे अच्छे संबंध हैं। शरद जी ने उन्हें घर लंच पर बुलाया, पर साथ में मुझे भी बुलाया। पूरे लंच और बातचीत के दौरान उन्होंने और रेखा भाभी जी ने कहीं भी यह महसूस नहीं होने दिया कि मै थानवीजी का जूनियर हूं, वैसे थानवी जी या जनसत्ता के हर संपादक भी इस मामले में समाजवादी रहे।

इसी तरह नेपाली कांग्रेस के नेता विमलेंदु निधि ने गांधी जी पर रखे एक सेमीनार में शरद जी, त्यागी जी और दो अन्य वक्ताओं के साथ मुझे भी काठमांडू बुलाया था। पत्रकार नहीं बल्कि वक्ता के रूप में। काठमांडू में जहाज से उतरते ही शरद जी ने मुझसे कह दिया यहां से खबर करने की कोई जरूरत नहीं है। पत्रकार के रूप में नहीं आए हो।उनके साथ वहां मैं पीएम हाउस में प्रधानमंत्री कोइराला के साथ, देउबा और कई नेताओं से लंच डिनर पर मिला। भारत के राजदूत से अलग से बातचीत हुई। हर जगह उन्होंने अपने साथ रखा। ज्यादातर नेता यह चाहते थेकि यह सब दिल्ली में खबर बने। पर शरद जी को खबर की कम, हमारे सम्मान की ज्यादा फिक्र थी।  कम्युनिष्ट नेता प्रचंड से भी गोपनीय स्थान पर उसकी खुद की सुरक्षा के बीच बातचीत हुई। प्रचंड सें इटरव्यू एक महत्वपूर्ण बात थी और शरद जी ने मेरा मन देखते हुए प्रचंड से कह कर इसका मौका भी दिलाया। वह इंटरव्यू जनसत्ता में छपा.।

वे खबर देते थे, पर सीधे नहीं, सूत्रों में। अगर उस सूत्र का हल आपने निकाल लिया तो आपको खबर मिल गई। पंडारा रोड स्थित उनके बंगले में राजग को समर्थन देने को ले कर जनता दल की बैठको का दौर चल रहा था तो उन्होंने सूत्रों के जरिए ही मुझे सबके सामने समझा दिया कि जनता दल में दो फाड़ होगा। मेरे अलावा दो तीन पत्रकारों ने वह सूत्र पकड़ा और केवल उन्ही के अखबार में खबर छपी।

ढेर सारी बाते और यादे हैं। मैं उन्हें कभी नहीं भूल पाऊंगा। उनसे लंबे अरसे से ना मिलने का पछतावा भी मुझे खाता रहेगा। समाजवादी आंदोलन के बचे खुचे स्तंभों से एक बड़ा स्तंभ आज गिर गया। यह अजीब बात है कि समाजवादी आंदोलन से जुड़े नेता एक के बाद एक कुछ ही समय में निकल गए। रामविलास पासवान, मुलायम सिंह, ऱघुवंश प्रसाद सिंह और अब शरदजी।

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