माघ मास में पूरे माह व्यक्ति को अपनी समस्त इन्द्रियों पर काबू रख काम, क्रोध, अहंकार, बुराई तथा चुगली का त्याग कर भगवान की शरण में जाना चाहिए। पद्मपुराण में एकादशी महात्म्य की व्याख्या करते हुए उसकी विधि- विधान का भी उल्लेख किया गया है। पद्मपुराण के ही एक अंश में षट्तिला एकादशी का श्रवण और ध्यान करने का विधान अंकित है।
18 जनवरी -षटतिला एकादशी
सर्वकामना पूर्ति के उद्देश्य से माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को षटतिला (षट्तिला) एकादशी व्रत मनाये जाने की पौराणिक परिपाटी है। अपने नाम के अनुरूप यह व्रत तिलों से जुड़ा हुआ है। तिल का महत्व तो सर्वव्यापक है, और भारतीय संस्कृति में यह बहुत पवित्र माना गया है। पूजा व अन्य धार्मिक आयोजनों में इनका विशेष महत्व होता है। षट्तिला एकादशी व्रत में भी तिल के उपयोग का बहुत महत्व है। इससे दुर्भाग्य, दरिद्रता तथा अनेक प्रकार के कष्ट से मुक्ति मिलती है। पौराणिक मान्यतानुसार माघ मास में कृष्ण पक्ष की एकादशी को षट्तिला एकादशी कहते हैं। इस व्रत को करने से मनुष्य के सभी पापों का नाश होने की पौराणिक व लोक मान्यता के कारण प्रतिवर्ष माघ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को षटतिला एकादशी का व्रत रखा जाता है। मान्यता है कि सर्वपाप नाशिनी षटतिला एकादशी के दिन भगवान विष्णु की शास्त्रोक्त विधि से पूजा कर तिलों से भरा घडा़ ब्राह्मण को दान करना चाहिए। जितने तिलों का दान वह करेगा उतने ही ह्जार वर्ष तक वह स्वर्गलोक में रहेगा।
माघ माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी को व्रत रखने से मनुष्य के सभी पाप समाप्त हो जाते हैं तथा उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। श्रद्धा भाव से षटतिला एकादशी का व्रत रखने वाले व्यक्तियों के सभी पापों का नाश होता है। इसलिए माघ मास में पूरे माह व्यक्ति को अपनी समस्त इन्द्रियों पर काबू रख काम, क्रोध, अहंकार, बुराई तथा चुगली का त्याग कर भगवान की शरण में जाना चाहिए। पद्मपुराण में एकादशी महात्म्य की व्याख्या करते हुए उसकी विधि- विधान का भी उल्लेख किया गया है। पद्मपुराण के ही एक अंश में षट्तिला एकादशी का श्रवण और ध्यान करने का विधान अंकित है।
इससे सम्बन्धित पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक बार देवर्षि नारद मुनि त्रिलोक भ्रमण करते हुए भगवान विष्णु के धाम वैकुण्ठ पहुंच कर वैकुण्ठ पति को प्रणाम करके उनसे अपनी जिज्ञासा व्यक्त करते हुए षट्तिला एकादशी की कथा और उस एकादशी को करने से मिलने वाले पुण्य के बारे में पूछा। विनीत भाव से देवर्षि द्वारा इस प्रकार प्रश्न किये जाने पर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु ने कहा कि प्राचीन काल में पुलस्य ऋषि ने दलभ्य ऋषि के षट्तिला एकादशी के सन्दर्भ में पूछे जाने पर उनको षट्तिला एकादशी व्रत के विधि – विधान, महात्म्य व कथा के बारे में जो कथा बताई थी, वही कथा में मैं आपको सुनाता हूँ। कथा के अनुसार प्राचीन काल में पृथ्वी पर एक ब्राह्मणी रहती थी। ब्राह्मणी मुझमें अर्थात विष्णु भगवान में बहुत ही श्रद्धा एवं भक्ति रखती थी। यह स्त्री विष्णु के निमित्त सभी व्रत रखती थी। एक बार इसने एक महीने तक व्रत रखकर विष्णु की आराधना की। व्रत के प्रभाव से स्त्री का शरीर तो शुद्ध तो हो गया परंतु यह स्त्री कभी ब्राह्मण एवं देवताओं के निमित्त अन्न दान नहीं करती थी इसलिए विष्णु ने सोचा कि यह स्त्री बैकुण्ठ में रहकर भी अतृप्त रहेगी। अतः विष्णु स्वयं एक दिन भिक्षा लेने उसके पास पहुंच गये।
स्त्री से जब विष्णु ने भिक्षा की याचना की तब उसने एक मिट्टी का पिण्ड उठाकर उनके हाथों पर रख दिया। विष्णु वह पिण्ड लेकर अपने धाम लौट आये। कुछ दिनों पश्चात वह स्त्री भी देह त्याग कर विष्णु लोक में आ गयी। यहां उसे एक कुटिया और आम का पेड़ मिला। खाली कुटिया को देखकर वह स्त्री घबराकर विष्णु के समीप आई और बोली की मैं तो धर्मपरायण हूं फिर मुझे खाली कुटिया क्यों मिली है? तब विष्णु ने उसे बताया कि यह अन्नदान नहीं करने तथा विष्णु को मिट्टी का पिण्ड देने से हुआ है। विष्णु ने फिर उस स्त्री से बताया कि जब देव कन्याएं आपसे मिलने आएं तब आप अपना द्वार तभी खोलना जब वे आपको षट्तिला एकादशी के व्रत का विधान बताएं। स्त्री ने ऐसा ही किया और जिन विधियों को देवकन्या ने कहा था उस विधि से ब्राह्मणी ने षट्तिला एकादशी का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसकी कुटिया अन्न धन से भर गयी। यह कथा सुनकर विष्णु ने नारद से कहा कि जो व्यक्ति इस एकादशी का व्रत करता है और तिल एवं अन्न दान करता है उसे मुक्ति और वैभव की प्राप्ति होती है।
षटतिला एकादशी के व्रत विधान के विषय में पुलस्य ऋषि ने दलभ्य ऋषि को बताते हुए कहा कि पवित्र और पावन माघ मास में व्रत और तप का बड़ा ही महत्व है। इस माह में कृष्ण पक्ष में आने वाली एकादशी को षटतिला कहते हैं। षटतिला एकादशी के दिन मनुष्य को भगवान विष्णु के निमित्त व्रत रख गंध, पुष्प, धूप दीप, ताम्बूल सहित विष्णु भगवान की षोड्षोपचार से पूजन करना चाहिए। उड़द और तिल मिश्रित खिचड़ी बनाकर भगवान को भोग लगाना चाहिए। रात्रि के समय तिल से 108 बार ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय स्वाहा इस मंत्र से हवन करना चाहिए। इस व्रत में तिल का छ: रूप में प्रयोग व दान करना उत्तम फलदायी होता है। मान्यता है कि जो व्यक्ति जितने रूपों में तिल का दान करता है उसे उतने हज़ार वर्ष स्वर्ग में स्थान प्राप्त होता है।ऋषिवर ने इस दिन छः प्रकार से तिल के उपयोग व दान की बात कही है -तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल का तिलक, तिल मिश्रित जल का सेवन, तिल का भोजन और तिल से हवन। इन चीजों का स्वयं भी प्रयोग करना चाहिए और किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उन्हें भी इन चीज़ों का दान देना चाहिए । विधि- विधान पूर्वक षटतिला एकादशी का व्रत रखने वाले भक्तों को भगवान अज्ञानता पूर्वक किये गये सभी अपराधों से मुक्त कर देते हैं और पुण्य दान देकर स्वर्ग में स्थान प्रदान करते हैं। षटतिला एकादशी व्रत की विधि – विधान के सम्बन्ध में पुलस्त्य ऋषि ने बताया कि सभी पापों का नाश हेतु माघ मास लगते ही मनुष्य को सुबह स्नान आदि करके शुद्ध रहना चाहिए। इस व्रत को करने के लिये भक्तों को एक दिन पूर्व यानी दशमी तिथि को सात्विक भोजन करना चाहिये। भक्तों को प्रात:काल उठकर नित्यक्रम से निवृत होकर पूजा करने के बाद ही भोजन ग्रहण करना चाहिये । भोजन पूरी तरह सात्विक होना चाहिये। भोजन में लहसुन, प्याज आदि का प्रयोग वर्जित है । रात्रि को एक हीं बार भोजन करना चाहिए ।
एकादशी तिथि को सुबह उठकर अपने नित्य कार्यों से निवृत हो स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण कर पूजा गृह अथवा पूजा स्थल को शुद्ध कर सभी पूजन सामग्री इकट्ठा कर व्रत का संकल्प लेना चाहिए। तत्पश्चात श्रीविष्णु भगवान की पूजा कर धूप-दीप अर्पित कर भोग लगाना चाहिए। भगवान का स्मरण करके बारम्बार श्रीकृष्ण नाम का उच्चारण करते हुए कुम्हड़े, नारियल अथवा बिजौरे के फल से भगवान को विधिपूर्वक पूजकर अर्घ्य देना चाहिए । अन्य सामग्रियों के अभाव में सौ सुपारियों के द्वारा भी पूजन और अर्घ्यदान किये जा सकते हैं। षट्तिला एकादशी की कथा सुनते अथवा सुनाते हुए तिल तथा कपास मिश्रित एक सौ आठ गोबर की पिण्डिकाओं से हवन करना चाहिए। कथा सम्पूर्ण होने पर श्रीविष्णु जी की आरती कर उपस्थित जनों में प्रसाद वितरित करना चाहिए। ब्राह्मणों को दान देना चाहिए। सारे दिन श्रीविष्णु भगवान का नाम जपते हुए सारी रात भगवान का कीर्तन एवं जागरण करना चाहिए। अगली सुबह उठकर नित्य क्रम कर, स्नान कर श्रीविष्णु जी का पूजन कर भोजन ग्रहण करना चाहिए।
षट्तिला एकादशी के व्रत में गोबर के कंडों (गोईठा) का अत्यंत महत्व है । इसके लिए पुराणों में विधान भी बताये गये हैं। इस विधि के अनुसार षट्तिला एकादशी करने के इच्छुक व्यक्ति को पुष्य नक्षत्र में तिल तथा कपास को गोबर में मिलाकर उसके 108 कण्डे बनाकर रख लेना चाहिए। माघ मास की षटतिला एकादशी को सुबह स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर व्रत करने का संकल्प करके भगवान विष्णु जी का ध्यान करना चाहिए। यदि व्रत आदि में किसी प्रकार की भूल हो जाए तब भगवान कृष्ण जी से क्षमा याचना करनी चाहिए। रात्रि में गोबर के कंडों से हवन करना चाहिए । रात भर जागरण करके भगवान का भजन करना चाहिए। अगले दिन भगवान का भजन-पूजन करने के पश्चात खिचड़ी का भोग लगाना चाहिए।
दीनों को शरण देने वाले और संसार के सागर में फंसे हुए लोगों का उद्धार करने वाले श्रीविष्णु की प्रार्थना करने के बाद व्यक्ति को ब्राह्मण की पूजा कर ब्राह्मण को जल से भरा घडा़, छाता, जूते तथा वस्त्र देने चाहिए। भगवान विष्णु ने नारद को एक सत्य घटना से अवगत कराते हुए एक षटतिला एकादशी के व्रत का महत्व बताया। इस प्रकार सभी मनुष्यों को लालच का त्याग करना चाहिए। किसी प्रकार का लोभ नहीं करना चाहिए। षटतिला एकादशी के दिन तिल के साथ अन्य अन्नादि का भी दान करने से मनुष्य का सौभाग्य बली होता है, कष्ट तथा दरिद्रता दूर होती है तथा विधिवत तरीके से व्रत रखने से स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है।