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रोगों को दूर करने वाली देवी शीतला माता

लोक मान्यतानुसार शीतला माता की पूजा के दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है, और परिवार के सभी लोग एक दिन पूर्व बनी हुई बासी भोजन ग्रहण करते हैं। आज भी लाखों लोग इस नियम का बड़ी आस्था के साथ पालन करते हैं। शीतला माता की उपासना अधिकांशत: वसंत एवं ग्रीष्म ऋतु में होती है। शीतला (चेचक रोग) के संक्रमण का यही मुख्य समय होता है। इसलिए इनकी पूजा का विधान पूर्णत: सामयिक है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है। इसलिए यह दिन शीतलाष्टमी के नाम से विख्यात है।

14 मार्च-शीतला माता व्रत

प्राचीन काल से ही भारत में आयु वृद्धि तथा संतान की कामना पूर्ति के उद्देश्य से शीतला माता का व्रत और पूजन किये जाने की परिपाटी है। इस व्रत में होली सम्पन्न होने के अगले सप्ताह अर्थात चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि से प्रारम्भ कर अष्टमी तिथि तक रोगों को दूर करने वाली देवी के रूप में मान्यता प्राप्त देवी शीतला के व्रत का आयोजन किया जाता है, लेकिन कुछ स्थानों पर इनकी पूजा होली के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार अथवा गुरुवार के दिन ही की जाती है। पुराणों के अनुसार शीतला का व्रत चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की सप्तमी –अष्टमी तिथि को होता है, और यही तिथि मुख्य मानी गई है। किन्तु कुछ जगहों पर बैशाख कृष्ण पक्ष की सप्तमी – अष्टमी तिथि को यह मनाई जाती है। कुछ अन्य स्थानों पर ज्येष्ठ अथवा आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी -अष्टमी तिथि को मनाई जाती है। स्कन्द पुराण के अनुसार इस व्रत को चार महीनों में, यथा चैत्र बैसाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ आदि चतुर्मासी शीतला सप्तमी-अष्टमी व्रत करने का विधान है। इसमें पूर्वविद्धा अष्टमी (व्रतमात्रेऽष्टमी कृष्णा पूर्वा शुक्लाष्टमी परा) ली जाती है। चूँकि इस व्रत पर एक दिन पूर्व बनाया हुआ बासी भोजन किया जाता है। इसलिए इस व्रत को बसौड़ा, लसौड़ा या बसियौरा भी कहते हैं। शीतला को चेचक नाम से भी जाना जाता है।

लोक मान्यतानुसार शीतला माता की कृपा पूरे परिवार बनी रहे इसलिए शीतला सप्तमी-अष्टमी के इस पर्व में शीतला माता का व्रत और पूजन किया जाता है। इस दिन श्वेत पाषाण रूपी माता शीतला की पूजा की जाती है।  विशेष रुप से उत्तरी भारत तथा बंगाल राज्य में प्रचलित और स्त्रियों के द्वारा किये जाने वाले इस व्रत में व्रत के दिन उपवास करने वाली स्त्रियों को गर्म जल से स्नान तथा गर्म भोजन करना सर्वथा वर्जित है। लोक मान्यतानुसार शीतला माता की पूजा के दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है, और परिवार के सभी लोग एक दिन पूर्व बनी हुई बासी भोजन ग्रहण करते हैं। आज भी लाखों लोग इस नियम का बड़ी आस्था के साथ पालन करते हैं। शीतला माता की उपासना अधिकांशत: वसंत एवं ग्रीष्म ऋतु में होती है। शीतला (चेचक रोग) के संक्रमण का यही मुख्य समय होता है। इसलिए इनकी पूजा का विधान पूर्णत: सामयिक है।

चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है। इसलिए यह दिन शीतलाष्टमी के नाम से विख्यात है। भगवती शीतला की पूजा का विधान भी विशिष्ट होता है। शीतलाष्टमी के एक दिन पूर्व उन्हें भोग लगाने के लिए बासी खाने का भोग अर्थात बसौड़ा तैयार कर लिया जाता है। अष्टमी के दिन बासी पदार्थ ही देवी को नैवेद्य के रूप में समर्पित किया जाता है और भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। यही कारण है कि संपूर्ण उत्तर भारत में शीतलाष्टमी त्यौहार, बसौड़ा के नाम से विख्यात है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन के बाद से बासी खाना खाना बंद कर दिया जाता है। यह बासी खाना खा सकने का ऋतु का अंतिम दिन होता है।

पुराणों तथा लोककथाओं व लोकगीतों में माता शीतला की महिमा व कथा का वृहत अंकन किया गया है । स्कंद पुराण में शीतला देवी का वाहन गर्दभ बताया गया है। माता शीतला हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इन बातों का प्रतीकात्मक महत्व है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाड़ू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोड़ों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है, इसलिए कलश का महत्व है। गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। शीतला मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है। स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में प्राप्त होता है। ऐसी मान्यता है कि इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने लोकहित में की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है। पुराणों में भगवती शीतला की वंदना करते हुए कहा गया है –

वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।।

मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।

अर्थात – गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तकवालीभगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से यह पूर्णत:स्पष्ट हो जाता है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी [झाडू] होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है।

मान्यता अनुसार इस व्रत को करने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं और व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतला की फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं। शीतला माता का मंदिर वटवृक्ष के समीप ही होता है। शीतला माता के पूजन के बाद वट का पूजन भी किया जाता है। मान्यता है कि शुद्ध मन से इस व्रत को करने वाली महिला के घर- परिवार को शीतला देवी धन-धान्य से पूर्ण कर प्राकृतिक विपदाओं से दूर रखती हैं।

स्वच्छता और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की प्रेरणा देने वाली भगवती शीतला माता के व्रत के सम्बन्ध में कई पौराणिक कथा भी प्रचलित है। कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक बार चैत्र के महीने में कृष्ण पक्ष अष्टमी के दिन शीतला माता घूमने निकली, लेकिन वे जहाँ भी गई उन्हें खाने में सभी के यहाँ गर्म भोजन ही मिली। इससे उनके पेट में गर्मी हो गई। जब वह एक निर्धन बुढ़िया के घर गई, तो उन्हें  ठंडी-ठंडी छाछ राबड़ी खाने को मिली। इससे उनके पेट में बहूत ठंडक मिली। तब माता ने वृद्धा से कहा कि तेरे यहाँ मुझे बहुत आराम मिला है। यह कह उन्होंने उसे एक लोटा पानी देते हुए कहा कि इसे अपनी झोपड़ी की चारों तरफ गिरा लेना। कल सम्पूर्ण नगर में आग लगेगी, परन्तु तुमने आज मुझे ठंडा-ठंडा भोजन खाने को दिया है,इसलिए तेरी झोपड़ी में आग नही लगेगी। बुढ़िया ने ऐसा ही किया और अपने झोपड़ी के चारों ओर माँ की दी हुई जल बिखेर दी। दूसरे दिन सम्पूर्ण नगर में आग लग गई, परन्तु उस बुढ़िया की झोपड़ी बच गई, तो नगर के राजा ने उस बुढ़िया को बुलाया और पूछा कि पूरा नगर जल गया, परन्तु तेरी झोपड़ी कैसे बच गई?

इस पर बुढ़िया ने बताया कि कल नगर में शीतला माता आई थी तो सबने उन्हें गर्म खाना दिया इससे उनके पेट में आग लग गई और जब वह मेरे घर पर आई तो मेरे पास तो ठंडी छाछ राबड़ी थी वह मैंने उन्हें दी, जिसे खाने पर उन्हें आराम मिला।यह जान राजा ने सम्पूर्ण राज्य में ढिंढोरा पिटवा मुनादी करवा दी कि आज के दिन सब लोग ठंडा खाना खायेगे, जो एक दिन पहले बना होगा और दूसरे दिन सब शीतला माता की पूजा करेंगे और उस दिन किसी के घर में चूल्हा नही जलेगा। यह घोषणा कर राजा ने प्रार्थना की कि हे शीतला माता जैसे उस बुडिया को बचाया वैसे ही सबकी रक्षा करना ।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार शीतला सप्तमी के दिन एक बुढ़िया व उसकी दो बहुओं ने व्रत रखा। उस दिन सभी को बासी भोजन ग्रहण करना था। इसलिए पहले दिन ही भोजन पका लिया गया था। लेकिन दोनों बहुओं को कुछ समय पहले ही संतान की प्राप्ति हुई थी। इसलिए बासी भोजन खाने से वे व उनकी संतान बीमार न हो जायें, यह सोचकर अपनी सास के साथ बासी भोजन ग्रहण न कर माता की पूजा अर्चना के पश्चात पशुओं के लिए बनाये गये भोजन के साथ अपने लिये भी रोट सेंक कर उनका चूरमा बनाकर बहुओं ने खा लिया। उनके इस कृत्य से माता कुपित हो गई और बाद में उन दोनों के नवजात शिशु मृत मिले। जब सास को पूरी कहानी पता चली तो उसने दोनों बहुओं को घर से निकाल दिया। दोनों अपने शिशु के शवों को लिये घर से निकल पड़ीं, और कुछ देर चलने के बाद एक बरगद के पास रूक विश्राम के लिए ठहर गई। वहीं पर अपने सिर में पड़ी जूंओं से बहुत परेशान ओरी व शीतला नाम की दो बहनें भी थी। दोनों बहुओं को उन पर दया आई और उन्होंने उन दोनों बहनों की मदद करते हुए उनके सिर से जुएँ निकाल दीं। ओरी व शीतला की सिर से जुएँ कुछ कम हुई तो उन्हें कुछ चैन मिला और बहुओं को आशीष दिया कि तुम्हारी गोद हरी हो जाये। इस पर बुढ़िया की दोनों बहुओं ने कहा कि उनकी तो हरी -भरी गोद ही लुट गई है। इस पर शीतला ने लताड़ लगाते हुए उन्हें कहा कि पाप कर्म का दंड तो भुगतना ही पड़ेगा। बहुओं ने शीतला माता को पहचान लिया कि साक्षात माता हैं तो चरणों में पड़ गई और क्षमा याचना की। माता को भी उनके पश्चाताप करने पर दया आई और उनकी कृपा से उनके मृत बालक जीवित हो गये। तब दोनों खुशी-खुशी गाँव लौट आयी। इस चमत्कार को देखकर सब हैरान रह गये। इसके बाद पूरा गाँव माता शीतला को मानने लगा।

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