धर्म कर्म

श्रृद्धा बिनु धर्म नहिं होई......

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श्रृद्धा बिनु धर्म नहिं होई......
एक देश जो अपनी जड़, अपनी जमीन, अपने जल, अपने जंगल, अपनी संस्कृति को पहचान कर उसी में विकसित होना चाहता है। संक्रमित और संकर नहीं रहना चाहता। रामराज का तात्पर्य अपने मूल चरित्र में बने रह कर अपने को विकसित करने का संकल्प है।“ फिर वे आगे कहते हैं, “जो अपने ही सिंहासन की धुल झाड़ता है वो रामराज स्थापित नहीं कर सकता। राम की तरह अपना सर्वस्व त्यागने वाला ही रामराज स्थापित कर सकता है। आज हर कहीं और कैसे भी धर्म शब्द का इस्तेमाल हो रहा है। टेलीविज़न मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक हम पर इसका आक्रमण बढ़ता ही जा रहा है। आग उगलने वाली महापंचायतें और संसदें चलाई जा रही हैं। खुद समझे बिना धर्म का अर्थ समझाया जा रहा है। आखिर समाज में धर्म की शिक्षा देता कौन है? टीवी देखने वाला दस साल का बच्चा अगर आज सवाल करे की धर्म शब्द का क्या मतलब है, तो हम क्या जवाब देगें? क्या हम कहेंगे की हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन या बौद्ध ही अलग-अलग धर्म हैं? बचपन में हमारे दादा-दादी, नाना-नानी या घर के बड़े और आस-पड़ोस के बुजूर्ग व संत-महात्मा से हमें धर्म की शिक्षा मिलती थी। आज गूगल-गुरू ही हमारे ज्ञान की निरंतर बहती गंगा है। जो धर्म को पंथ बता रहा है। आज “मज़हब नहीं सीखाता ....” कोई नहीं सुन रहा है। धर्म कहें या मज़हब, दोनों सनातन हैं। मगर पंथ और जमात राजनीतिक ही रहे हैं। पंथ-जमात बेशक अपने अपने अहमं और आस्तित्व के लिए हिंसा पर उतारु होते रहे हैं लेकिन धर्म हो या मज़हब, अहिंसा की ही बात करते हैं। देश के कई हिस्सों से रामनवंमी और हनुमान जयंती के दौरान पंथ व जमात के बीच हिंसा और आगजनी की खबरें आयीं। जिस रामराज की अवधारणा महात्मा गांधी ने दुनिया के सामने रखी थी वो अहिंसा और सर्वोदय की नींव पर टिका स्वराज था। गांधी जी ने भारतीय परंपरा से ही धर्म और अहिंसा को समझा था। हर मनुष्य का अपना स्वधर्म होता है। संपूर्ण मानवता का धर्म मनुष्यता है। पंथ-जमात राजनीतिक धड़े हैं जिन्हें सभ्यता के नाम पर भेड़ की तरह चराया, चलाया जाता है। गांधी के रामराज की कल्पना पुरुषोत्तम प्रभू राम के त्याग और करुणा की मर्यादा में से निकली थी। आध्यात्म के रामराज को गांधी जी ने राजनीति का स्वराज कहा। उसी को समाज की सभ्यता के लिए स्थापित करने में लगे। जैसा स्वधर्म, वैसा ही स्वराज। स्वराज यानी स्वयं पर स्वयं का राज। स्वयं के काम, क्रोध, मोह व लोभ पर सत्य, त्याग और करुणा का राज कायम किया जाए। अयोध्या का जमीन फैसला आने से पहले से, वहां के सांसद लल्लू सिंह राजधानी में अयोध्या पर्व कराते आ रहे हैं। अयोध्या की आस्था, संस्कृति और आर्थिकी को सहेजने, संवारने के लिए उत्सव कराते हैं। हर साल राममय गुणगान के साथ गांधी के रामराज पर भी चर्चा कराते हैं। इस बार का अयोध्या पर्व गांधी स्मृति के सत्याग्रह मंडप में मना। वक्ता थे अयोध्या के हनुमत सदन मंदिर के विद्वान महंत मिथिलेश नंदिनी शरण। उनके साथ वक्ता थे हिंद स्वराज पर अपना जीवन अर्पण करने वाले गांधीजन राजीव वोरा। महंत जी ने गांधी के रामराज की अवधारणा को जिस आस्था और आत्मविश्वास से सुनने वालों के सामने रखा वह महापंचायत व संसदों के हाली वातावरण में अनुठा था। महंत जी ने गांधी के रामराज का अर्थ बताया, “एक देश जो अपनी जड़, अपनी जमीन, अपने जल, अपने जंगल, अपनी संस्कृति को पहचान कर उसी में विकसित होना चाहता है। संक्रमित और संकर नहीं रहना चाहता। रामराज का तात्पर्य अपने मूल चरित्र में बने रह कर अपने को विकसित करने का संकल्प है।“ फिर वे आगे कहते हैं, “जो अपने ही सिंहासन की धुल झाड़ता है वो रामराज स्थापित नहीं कर सकता। राम की तरह अपना सर्वस्व त्यागने वाला ही रामराज स्थापित कर सकता है। राम ने जो साधारण केवट को सम्मान, सत्कार दिया वह रामराज की स्थापना का पहला चरण है।“ जब राम केवट को गंगा पार कराने की मजदूरी देते हैं तो वह मना करते हुए कहता है, “आप धर्म की स्थापना के लिए राजगद्दी त्याग सकते हो तो क्या मैं आपके लिए अपनी मजदूरी नहीं त्याग सकता। ........ चौदह वर्ष अगर भरत खपते नहीं तो क्या रामराज स्थापित हो सकता था?“ फिर राम के बनवासी किस्सों से महंत जी समझाते हैं कि “रामराज संपूर्ण पृथ्वी पर समंवय की बात करता है। प्रेम और आदर्श की बात रखता है। तुम अगर इस दुनिया को सुखी करना चाहते हो तो अपने हिस्से का थोड़ा सुख छोड़ दो।” रामराज और धर्म की ऐसी ही व्याख्या से प्रभू राम और गांधी भी धन्य हुए। मिथिलेश नंदिनी शरण जी ने भारतीय ऋषि परंपरा को गौरांवित किया। समाज ऐसे संतों से ही धर्म समझ सकता है।
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