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परमात्मा और प्रकृति से है सृष्टि रचना

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परमात्मा और प्रकृति से है सृष्टि रचना
ऋग्वेद 10- 129 -3 में कहा गया है कि सृष्टि बनने से पूर्व न कुछ स्वरूपवान था और न ही कुछ अस्वरूपवान था। न व्योम था, और न ही उससे परे कुछ था। वहां अंधकार था। उस अंधकार से निश्चल, गंभीर न जानने योग्य एक बह जाने वाला पदार्थ सब स्थान पर था। वह सर्वत्र भरा हुआ था। वेद के अनुसार प्रकृति अर्थात सलिल बह जाने वाला पदार्थ था, परंतु वह कणदार निश्चल अर्थात तमस (इनर्ट) था। जब प्रकृति से परमात्मा की शक्ति का संयोग हो जाता है, तब सृष्टि रचना कार्य आरम्भ हो जाता है, अर्थात निश्चल प्रकृति में गति उत्पन्न हो जाती है। इस चलायमान प्रकृति में जब दूसरे चेतन तत्व का समावेश हो जाता है, तो एक प्राणी सृष्टि हो जाती है। हम अपने चारों ओर जो देखते हैं, उससे हम उसका ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, जिससे यह जगत बना है, जैसे बना है, और जिस प्रयोजन से बना है। इस दृश्यमान जगत को देखने और उसका अध्ययन करने से वह ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे यह जगत बना है। इससे यह भी पता चलता है कि कुछ एक गुण कुछ पदार्थों में हैं, और कुछ पदार्थों में नहीं है। कुछ गुणों के स्वामी पदार्थों को हम शरीरी कहते हैं, और अन्य को हम अशरीरी कहते हैं। इस चराचर जगत में दो प्रकार के पदार्थ दिखाई देते हैं - चेतन और जड़। चेतन के अंतर्गत मनुष्य, जानवर, पक्षी, जलचर, कीट -पतंग इत्यादि अनेक इसी प्रकार के जंतु आते हैं। जड़ पदार्थों में कुर्सी, टेबल, मकान, पर्वत, जलवायु इत्यादि की गणना कर सकते हैं। जड़ पदार्थ का प्रत्येक कण स्थिर रहता है, अथवा सीधी रेखा में एक स्थिर गति से चलता रहता है, जब तक उसके ऊपर किसी दूसरी शक्ति का प्रभाव नहीं होता है। ब्रह्मसूत्र 2-2-4 में कहा गया है- व्यतिरेकानवस्थितेश्च अनपेक्ष त्वात। अर्थात- जड़ पदार्थ अपने अवस्था नहीं बदलते, जब तक इन पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता। पाश्चात्य वैज्ञानिक न्यूटन ने भी इस सिद्धांत को स्वीकारा है। उल्लेखनीय है कि टेबल, कुर्सी आदि जहां रखी जाएं, वहीं पड़ी रहती हैं, वे अपनी स्थान नहीं बदलती। इसलिए ये अप्राणी जड़ पदार्थ हैं, परंतु मनुष्य, घोड़ा, जानवर, पक्षी आदि जो अपनी इच्छा से स्थान बदलते हैं। ये चलते, फिरते, उड़ते इत्यादि अपनी इच्छा से हैं। इसलिए ये प्राणी चेतन है। मनुष्य, घोड़ा, जानवर इत्यादि और मेज, कुर्सी आदि के अतिरिक्त एक अन्य श्रेणी के पदार्थ भी दिखाई देते हैं-  यह पदार्थ है वनस्पति इत्यादि। पेड़ -पौधे आदि के अपने स्थान पर खड़े दिखाई देने के कारण इनको एक तीसरे प्रकार का पदार्थ माना जाता है, परंतु ये भी प्राणी श्रेणी के पदार्थ ही हैं। यह भूमि इत्यादि पर स्थित इस कारण हैं, क्योंकि यह अपना भोजन भूमि इत्यादि पर स्थित होकर ही प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य इत्यादि को भोजन ऐसे स्थानों से प्राप्त होता है, जो भूमि की भांति स्थिर नहीं हैं। इस पर भी यह प्राणियों की एक विशेष श्रेणी है। ऋग्वेद 1- 264 -1 में प्राणी के लक्षण व्यक्त करते हुए कहा गया है कि इस सुंदर वृद्धता को प्राप्त हो जाने वाले प्राणी के शरीर का कर्म करने वाला भ्राता अर्थात आत्मा इसके मध्य में बैठा है, और प्रकृति का भोग करता है। इन दोनों का एक तीसरा भाई है, जो अपने सात पुत्रों अर्थात शरीर के प्राणों के साथ इसकी रक्षा करता है। यह प्राणवान पदार्थ की वैदिक परिभाषा है। इसका प्रयोग प्राणी के लिए भी किया जाता है। पदार्थ उसको कहते हैं, जिसका ज्ञान हमें किसी शब्द अथवा शब्द समूह से हो। इसलिए पदार्थ शब्द किसी भी वस्तु, तत्व, विचार अथवा सिद्धांत के लिए प्रयोग किया जाता है। ऋग्वेद 2- 164- 20 में कहा गया है – द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते। तयोरण्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ।। अर्थात- दो आत्म तत्व शाखा के रुप में साथ -साथ संबंधित, समान रुप में एक प्रकृति रूपी वृक्ष पर स्थित हैं। उनमें से एक तत्व वृक्ष अर्थात प्रकृति के पके फलों का स्वाद लेता है, और दूसरा उसका भोग नहीं करता। वह केवल साक्षी रूप में देखता ही है। ऋग्वेद में वर्णित यह प्राणी चित्रण पूर्ण प्राणी जगत के लिए है, परंतु मनुष्य पर यह अधिक लागू होता है। जीवात्मा युक्त शरीर को प्राणी कहते हैं। बिना जीवात्मा के भी शरीर कार्य करता है। बिना जीवात्मा के शरीर के कार्य करने का एक विख्यात उदाहरण है- जब शुक्राणु डिंब से संयुक्त तो होता है, परंतु अभी मां के गर्भाशय से संयुक्त नहीं होता। वैदिक विद्वानों के अनुसार मां के गर्भाशय से संबंध बन जाने के उपरांत भी कुछ दिनों तक जीवात्मा भ्रूण में नहीं आता। वह तभी शरीर में आता है, जब उसके रहने योग्य स्थान अर्थात हृदय में गुहा तैयार हो जाती है। इसमें गर्भ स्थिति के उपरांत 40 दिन लग जाते हैं। कुछ भी हो, यह तो निश्चित ही है कि कुछ समय संवेग के कारण शरीर बनता रहता है, और जब यह जीवात्मा के रहने योग्य हो जाता है, तब जीवात्मा उसमें आकर रहने लगता है। तब तक शरीर में उसी प्रकार कार्य चलते रहते हैं, जैसे कि स्थिर ज्वाला में उपापचयिक क्रियाएं होती रहती हैं। परंतु उस समय उसमें एक स्थिर जवाला की भांति जीवात्मा अर्थात चेतन तत्व के लक्षण नहीं आते। चेतन तत्व के लक्षण वैदिक विज्ञान में इस प्रकार बताया गया है- इच्छाद्वेषप्रयत्नसुख दुःखज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति। - न्याय दर्शन 1-1-10 अर्थात - आत्मा के लिंग अर्थात चिह्न हैं - इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना, अनुकूल को प्राप्त करने का यत्न करना, सुख तथा दुःख को अनुभव करना, और अपने में चेतना रखना। न्याय दर्शन1-1-10 में चेतना शब्द के लिए ज्ञान शब्द आया है, जो विशेष अर्थ वाला है। इसके लिए ब्रह्मसूत्रों में ईक्षण  शब्द का प्रयोग किया गया है, और अधुनातन विज्ञान में डिस्क्रीट शब्द का। ईक्ष का अर्थ डिस्क्रिमिनेट अर्थात भेदभाव करने वाला और दिशा काल का निश्चय करने वाला होता है। वैदिक मत में इन गुणों से संयुक्त पदार्थ प्राणी कहाता है, और वह शरीर जीवात्मा सहित होता है। इन गुणों को न रखने वाला पदार्थ अप्राणी अर्थात बिना जीवात्मा के होता है। वैदिक विज्ञान में जगत के पदार्थों को दो श्रेणियों में बांटा गया है- जड़ और चेतन। चेतन प्राणी कहे जाते हैं, और जड़ अप्राणी हैं।। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक विज्ञान में शरीर सहित जीवात्मा को चेतन कहा गया है, तथा जड़ वे पदार्थ हैं, जो कभी कहीं ठहरे हों, तो ठहरे ही रहते हैं अथवा चलते हों तो सीधी रेखा में और एक स्थिर गति में चलते ही रहते हैं। परंतु हम देखते हैं कि जगत के पदार्थ प्रायः गतिशील होते हैं। इसी कारण उनको जगत का नाम दिया गया है। जगत का शाब्दिक अर्थ ही है जो गति कर रहा है। अभिप्राय है कि जगत के पदार्थ गतिशील है, परंतु यह निश्चित गति से एक सीधी रेखा में चल नहीं रहे। इसका अर्थ यह है कि जगत के पदार्थ भी जड़ से कुछ अधिक हैं। जैसे प्राणी मृत शरीर से कुछ अधिक होता है, इसी प्रकार जगत के पदार्थ सर्वथा जड़ से कुछ अधिक हैं। ध्यातव्य है कि किसी बाहरी पदार्थ के प्रभाव के बिना जड़ पदार्थ अपनी अवस्था नहीं बदलते। दूसरी ओर हम देखते हैं कि जगत के सब पदार्थ चल रहे हैं, और अंडाकार गति में चल रहे हैं। इस गति का कारण न्यूटन ने एक सार्वभौमिक शक्ति को माना है, जिसे भू आकर्षण कहते हैं। इस भू आकर्षण की शक्ति की उपस्थिति से ग्रह सूर्य के चारों ओर अंडाकार मार्ग पर घूमते हैं। एक शक्ति के द्वारा किसी वस्तु में गति उत्पन्न किये जाने से वह वस्तु सीधी रेखा में जाने चाहिए। भू आकर्षण की शक्ति से पृथ्वी, चंद्र को अपनी ओर खींच रही है। चंद्र की सीधी रेखा में गति का वेग इससे संतुलित हो पृथ्वी के चारों ओर इसकी गति को अंडाकार बना देता है। लेकिन न्यूटन के सिद्धांत में चंद्र अथवा ग्रहों में यह गति अथवा शक्ति कहां से आ रही है, इसका वर्णन नहीं किया गया है। लेकिन वेदादि ग्रंथों में इसका स्रोत बताया गया है। यजुर्वेद 40-1 में कहा गया है कि इस चलायमान जगत में जो कुछ भी चल रहा है, सब कुछ उस परमात्मा से आच्छादित है। यह जगत त्यागने योग्य है। इसका लालच मत कर। वैदिक विज्ञान के अनुसार यह आकर्षण- विकर्षण की शक्ति परमाणुओं में उपस्थित होती है, परंतु मूलावस्था में यह परस्पर एक दूसरे को विलीन कर रही होती है, इसे साम्यावस्था कहते हैं। इस साम्यावस्था को परमात्मा भंग करता है, तब परमाणु में आकर्षण - विकर्षण होने लगता है। क्योंकि परमाणुओं की साम्यावस्था उस समय भंग होती है, जब सृष्टि रचना का समय होता है। इस कारण यह माना जाता है कि परमात्मा में ईक्षण करने की शक्ति है। यह उस साम्यावस्था को भंग करने का स्थान और समय निश्चय करता है, और उस समय उस स्थान पर असंख्य परमाणुओं में साम्यावस्था भंग कर देता है। एक परमाणु में तीन शक्तियां -सत्व, रजस और तमस होती हैं। यह त्रिकटी के समान एक दूसरे को निःशेष कर रही होती हैं। इसमें तमस उदासीन है, रजस है ऋण अर्थात ऋणात्मक और सत्व है धनात्मक। परमात्मा की शक्ति से जब यह शक्तियां विमुक्त हो जाती हैं, तब यह परस्पर आकर्षित- विकर्षित होने लगती है। इस आकर्षण - विकर्षण से पांच प्रकार की शक्तियां प्राप्त होती हैं। इसको पञ्च तन्मात्र कहते हैं। इसमें एक तन्मात्र भू - आकर्षण है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परमाणुओं की यह शक्ति किसी अति महान शक्तिमान की करनी का ही फल हो सकती है। संसार में अन्य कोई दिखाई नहीं देता जो करोड़ों और पद्मों परमाणुओं की साम्यावस्था को भंग कर उनमें की शक्ति को सक्रिय कर सके। वैदिक मतानुसार शक्ति में ईक्षण नहीं होता। यह गुण शक्ति के अतिरिक्त किसी ज्ञानवान में ही संभव है कि शक्ति को विमुक्त करने का काल, स्थान, दिशा इत्यादि का निश्चय करे। शक्ति ज्ञान की स्वामिनी नहीं है। जैसे विद्युत शक्ति है, परंतु यह कहां कार्य करे? कब कार्य करे और क्या कार्य करे? यह निश्चय वह स्वयं नहीं करती। यह तो कोई चेतन ही निश्चय करता है। इस कारण शक्ति से शक्ति के प्रयोग करने वाले को पृथक माना जाता है। यही बात परमाणुओं से शक्ति के विमुक्त करने की है। वैदिक विज्ञान शक्ति और शक्तिमान को पृथक- पृथक मानता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जगत में दो प्रकार के पदार्थ दिखाई देते हैं। एक को प्राणी कहते हैं, और दूसरे को अप्राणी। अप्राणी अर्थात जड़ पदार्थों में भी दो प्रकार के पदार्थ हैं -गतिशील और निश्चल पदार्थ। वर्तमान विज्ञान में भी एक पदार्थ को गतिहीन और अदृश्य मानते हुए इसे न्यूट्रीज का नाम दिया गया है। न्यूट्रीज एक विपरीत आवेश वाला इलेक्ट्रॉन और विपरीत आवेश वाला प्रोट्रोन होता है। अभिप्राय है कि सामान्य इलेक्ट्रॉन पर ऋण विद्युत का आवेश होता है। विपरीत आवेश वाले इलेक्ट्रॉन पर धन विद्युत का आवेश होता है। इसी प्रकार सामान्य प्रोट्रोन  पर धन विद्युत का आवेश होता है और विपरीत आवेश वाले प्रोट्रोन पर ऋण विद्युत का होता है।इन विपरीत आवेश वाले कणों को विपरीत उपादान कहते हैं। यह कहा जाता है कि जब उपादान और विपरीत उपादान के कण परस्पर टकरा जाते हैं, तो पहले एक मीजोन कण बनता है और वह शीघ्र ही एक द्रव्यमान रहित कण बनकर दृष्टि से ओझल हो जाता है। यह न्यूट्रीज है। यह गतिहीन जड़ कण परमाणु है। इसके विषय में ऋग्वेद 10- 129 -3 में कहा गया है कि सृष्टि बनने से पूर्व न कुछ स्वरूपवान था और न ही कुछ अस्वरूपवान था। न व्योम था, और न ही उससे परे कुछ था। वहां अंधकार था। उस अंधकार से निश्चल, गंभीर न जानने योग्य एक बह जाने वाला पदार्थ सब स्थान पर था। वह सर्वत्र भरा हुआ था। वेद के अनुसार प्रकृति अर्थात सलिल बह जाने वाला पदार्थ था, परंतु वह कणदार निश्चल अर्थात तमस (इनर्ट) था। ऋग्वेद 10-129-2 के अनुसार उस समय वह  निश्चल प्राण अपने आप धारण हुआ प्रकृति था और इससे दूसरा और कुछ भी नहीं था- आनीदवातं स्वध्या तदेकं तस्माद्धान्यन्नः परः किं चनास। ऋग्वेद 10-129-2 यह सृष्टि रचना के पूर्व उपस्थित पदार्थ के विषय में बताते हुए कहा गया है कि एक निश्चल पदार्थ था और एक निश्चल शक्ति थी। प्रकृति सलिल (बह जाने वाली) अर्थात कणदार, अति सूक्ष्म कणों में निश्चल उपस्थित थी।वह गतिहीन थी। इसलिए मृतप्राय थी। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी देखा है कि जिस समय मैटर, एंटीमैटर से टकरा जाता है, उस समय उसमें से गामा किरणें निकलती है। इससे यह सिद्ध होता है कि उस गामा किरण से ही वह कण गतियुक्त हुआ था। वैदिक विज्ञान के अनुसार वह शक्ति परमात्मा की है। उल्लेखनीय है कि शक्ति बिना शक्तिमान के कार्य नहीं कर सकती। इसी शक्ति को ऋग्वेद 10-129 -2 में अनीदवातं  स्वध्यया तदेकं कहकर संबोधित किया गया है। इस शक्ति के विषय में ऋग्वेद 10-129 -3 में ही आगे कहा गया है कि उस, जो चारों ओर से ढकी हुई थी, पर एक तपस अर्थात तप्त और महान शक्ति उत्पन्न हुई। जब प्रकृति से परमात्मा की शक्ति का संयोग हो जाता है, तब सृष्टि रचना कार्य आरम्भ हो जाता है, अर्थात निश्चल प्रकृति में गति उत्पन्न हो जाती है। इस चलायमान प्रकृति में जब दूसरे चेतन तत्व का समावेश हो जाता है, तो एक प्राणी सृष्टि हो जाती है। इसीलिए ऋग्वेद 1-164-20 में एक प्राणी में दो तत्व चेतन तत्व होने की बात की गई है। ब्रह्मसूत्र 1-2-11 के अनुसार भी गुहा में दो आत्म तत्वों के होने से यह शरीर कार्य करता है। यह गुहा प्राणी के हृदय (मस्तिष्क) में एक छोटा सा रिक्त स्थान है, जहां परमात्मा और आत्मा की उपस्थिति सिद्ध होती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस चलायमान अगत में परमात्मा और प्रकृति के संयोग अर्थात सक्रिय सहयोग से रचना कार्य होता है और प्राणी के शरीर में दो आत्म तत्व - परमात्मा और आत्मा का वास है।  
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