भोपाल। करीब साढ़े सात दशक पहले हमारे पूर्वजों ने अपना सब कुछ लुटा कर हमारे देश को विदेशी पंजे से मुक्त कराकर “कथित लोकतंत्र” अवश्य स्थापित कर लिया , किंतु आज मौजूदा बुजुर्ग पीढ़ी नई पीढ़ी को यह समझाने में पूरी तरह असमर्थ है कि हम वास्तविक लोकतंत्र में जी रहे हैं, क्योंकि आजादी के बाद से ही सभी देशवासी यह महसूस कर रहे हैं कि पहले विदेशियों के हाथों हम परतंत्र थे और आज हमारे अपने सत्ता के स्वार्थी राजनेताओं के रहते? क्योंकि आमतौर पर आजादी के बाद से ही यह महसूस किया जा रहा है कि जो भी राजनीतिक दल केंद्र में सत्तासीन रहता है, देश का लोकतंत्र उसी के कब्जे में रहता है, फिर वह जैसा चाहे उसका उपयोग करें, आजादी के बाद करीब 60 साल कांग्रेस ने अपने हिसाब से लोकतंत्र चलाया और अब पिछले डेढ़ दशक से भारतीय जनता पार्टी इसे अपने डंडे से हाक रही है।
मेरे इस कथन के एक नहीं अनेक सबूत है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण इंदिरा जी द्वारा आरोपित 19 महीने का आपातकाल है, जो देश के हर नागरिक को न सिर्फ भारी पड़ा था, बल्कि अंग्रेजी शासन की याद दिलाने को काफी था, उसके बाद से यह साबित हो गया कि जो केंद्र में सत्ता में रहता है, लोकतंत्र उसी के पास गिरवी होता है, फिर वह जिस तरह चाहे उसका उपभोग करें? पिछले 75 साल की अवधि में अकेला आपातकाल नहीं, केंद्र में सत्तारूढ़ दल की मनमानी के अनेक उदाहरण हैं, जिनका पूरा देश प्रत्यक्षदर्शी रहा है और हर स्थिति को देश के हर शख्स ने भुक्ता है, फिर इसमें भूमिका अकेले कांग्रेस की नहीं बल्कि मोरारजी भाई के जनता पार्टी शासन काल की भी रही है।
…..और यदि हम मौजूदा स्थिति का आंकलन कर उसकी बात करें तो हम यह पाते हैं कि मौजूदा सत्तासीन पार्टी भी अपने पूर्वजों की उसी परंपरा को आगे बढ़ा रही है, आज यदि हम लोकतंत्र के आईने में निष्पक्ष भाव से यदि हमारे देश को देखें तो हमें यह महसूस होगा कि आज भी न्यायपालिका को छोड़ प्रजातंत्र के शेष 2 अंग विधायिका और कार्यपालिका एकाकार ही है, विधायिका ने दबंगई से कार्यपालिका को अपने शिकंजे में ले रखा है, विधायिका ने न्यायपालिका को भी अपने कब्जे में लेने की भरसक कोशिश की, किंतु वह सफल नहीं हो पाई, इसलिए आज यदि विधायिका थोड़ी बहुत भयभीत है तो वह केवल और केवल न्यायपालिका से है, बाकी उसे किसी का डर नहीं है।
हमारे संविधान ने चाहे प्रजातंत्र के तीनों अंगों विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका को स्वतंत्र अधिकार व कर्तव्य सौंपे हो, किंतु क्या यह तीनों अंग आज अपने कर्तव्यों व दायित्वों का निर्वहन स्वतंत्र रूप से कर पा रहे हैं? आए दिन नए-नए प्रसंग देश के सामने आ रहे हैं, जिन से स्पष्ट होता है कि केंद्र में काबिज नेता और उनके दल जैसा चाहे वैसा करते हैं और उन पर किसी का भी नियंत्रण नहीं है, इसका ताजा उदाहरण महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम में कथित स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव आयोग की भूमिका है, जिसने बिना किसी अधिकारिक आंकलन के अपना फैसला महाराष्ट्र के कतिपय राजनीतिक दलों पर थोप दिया, इस फैसले में केंद्र में सत्तारूढ़ दल का अनुचित हस्तक्षेप साफ-सफ नजर आता है।
केंद्र में काबिज राजनीतिक दलों के अब तक ऐसे कई उदाहरण सामने आ चुके हैं, अब ऐसे में देश के हर जागरूक नागरिक के जेहन में एक ही सवाल फिर कौन्धने लगता है कि क्या देश में आज सच्चा लोकतंत्र है? और जिस लोकतंत्र की दुहाई देकर हम उसके साए में जी रहे, क्या वही सच्चा लोकतंत्र है? और क्या इस लोकतंत्र के चलते हम अपने आप में सुरक्षित महसूस करते हैं? अब यह प्रश्न हर एक देशवासी के लिए चिंतन का विषय हो गया है और अब समय आ गया है कि इस पर गहन चिंतन कर अपने भविष्य का फैसला ले ही लेना चाहिए।