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जरूरी है निर्भयता की मशाल

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जरूरी है निर्भयता की मशाल
राहुल गांधी की हिम्मत नहीं टूटती। वे सच बोलते हैं। सरकार को चेतावनी देते हैं। मगर खुद उनकी पार्टी के लोग ही उनके साथ खड़े नहीं होते। उनकी बात को आगे नहीं बढ़ाते।.. कांग्रेस के प्रवक्ता आलोक शर्मा की टीवी डिबेट का एक वीडियो बहुत वायरल हो रहा है। हर कांग्रेसी को उसे देखना चाहिए। टीवी वाले चिल्ला रहे हैं कि राहुल ने विदेश में जाकर बोला। भाजपा के नेता भी यही कह रहे हैं। पता नहीं कौन किससे प्रभावित होकर या सीख कर बोलता है मगर दोनों मिलकर भाषा एक ही बोलते हैं। राहुल पर हमले एक ही सुर में करते हैं। तो अभी उसका जवाब देते हुए आलोक शर्मा ने पूछा कि विदेश में जाकर यह किसने कहा था कि 2014 से पहले भारत में जन्म लेना शर्म की बात हुआ करती थी? जब सारी संस्थाएं हथियार डाल दें तब किसी छोटे से इंन्स्टिट्यूशन का खड़े रहना बहुत राहत और हिम्मत देता है। लोकतंत्र मूलत: संस्थाओं की स्वायत्तता और उनकी निर्भय भूमिका पर ही डिपेंड होता है। लेकिन पिछले आठ सालों में हर संस्था पीछे हटते चली गई। लोकतंत्र में सरकार पर अंकुश रखने की जिम्मेदारी खासतौर पर न्यायपालिका और मीडिया की मानी जाती है। लेकिन भय का ऐसा आलम है कि कोई भी सरकार के खिलाफ बोलने को तैयार नहीं है। एक अज्ञात भय सबके मन में भरा हुआ है। राहुल गांधी इसलिए बार-बार कहते हैं कि डरो मत। मगर उनकी आवाज पर अमल करने की हिम्मत कोई नहीं दिखा पा रहा है। एक खुद वे ही अकेले बार बार साहस करके बोलते हैं। लोगों को प्रेरित करने की कोशिश करते हैं। मगर सरकार और भाजपा उन पर इस तरह टूट पड़ती है कि बाकी लोग, संस्थाएं फिर हिम्मत नहीं कर पाते। मगर वे राहुल को नहीं देखते कि इसके बावजूद राहुल की हिम्मत नहीं टूटती। वे सच बोलते हैं। सरकार को चेतावनी देते हैं। मगर खुद उनकी पार्टी के लोग ही उनके साथ खड़े नहीं होते। उनकी बात को आगे नहीं बढ़ाते। अभी कांग्रेस के प्रवक्ता आलोक शर्मा की टीवी डिबेट का एक वीडियो बहुत वायरल हो रहा है। हर कांग्रेसी को उसे देखना चाहिए। टीवी वाले चिल्ला रहे हैं कि राहुल ने विदेश में जाकर बोला। भाजपा के नेता भी यही कह रहे हैं। पता नहीं कौन किससे प्रभावित होकर या सीख कर बोलता है मगर दोनों मिलकर भाषा एक ही बोलते हैं। राहुल पर हमले एक ही सुर में करते हैं। तो अभी उसका जवाब देते हुए आलोक शर्मा ने पूछा कि विदेश में जाकर यह किसने कहा था कि 2014 से पहले भारत में जन्म लेना शर्म की बात हुआ करती थी? उन्होंने भाजपा पर जोरदार व्यंग्य करते हुए कहा कि सेना में भर्ती बंद, पर केपिटा इनकम कम, विश्व सूचकांक में भूखमरी बढ़ती जा रही है, एफडीआई आ नहीं रहा मगर इस पर बात करो तो कहते हैं कि मोदी जी भाषण बहुत अच्छा देते हैं! कांग्रेस की समस्या यह है कि उसके नेता ही राहुल का बचाव नहीं करते हैं। तीन दिन से पूरी सरकार, भाजपा और मीडिया राहुल के पीछे पड़ी हुई है। मगर कोई उन्हें यह बताने वाला नहीं है कि विदेशों में जाकर भारतीय होना शर्म की बात है यह कहने वाले तो हमारे प्रधानमंत्री मोदी थे। राहुल ने तो चेतावनी दी है कि समय रहते चेत जाओ। नहीं तो देश का बहुत बड़ा नुकसान कर दोगे। तो बात संस्थाओं की हो रही थी। एक संस्था के तौर पर कांग्रेस का इतिहास बहुत गौरवशाली और प्रेरणादायी रहा है। मगर आज खुद कांग्रेसी अपने गौरवशाली इतिहास को याद नहीं करते हैं। खासतौर से उसे हिन्दी में बताने वाले तो बहुत ही कम है। कांग्रेस को आठ साल में भी यह बात समझ में नहीं आ रही है कि बिना हिन्दी पट्टी में उद्धार हुए उसकी पुनर्वापसी नहीं होगी। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, उत्तराखंड, झारखंड, हिमाचल सब प्रदेशों में हिन्दी ही बोली और समझी जाती है। यहां की जनता के लिए हिन्दी में प्रभावी जवाब बहुत जरूरी हैं। भाजपा हिन्दी में ही बोलती है। उसके दक्षिण भारत के नेता तक हिन्दी में बोलते थे। वैंकय्या नायडू तो बोलते ही थे। आडवानी जो अंग्रेजी में ज्यादा सहज हैं हिन्दी में बोलते थे। मगर कांग्रेस के नेता, प्रवक्ता हिन्दी में बोलना अपनी तौहीन समझते हैं। उन्होंने अपनी अध्यक्ष सोनिया गांधी से नहीं सीखा जो जनता से तो हिन्दी में संवाद करती ही हैं। सीडब्ल्यूसी या कांग्रेस सम्मेलन जहां सिर्फ पार्टी के लोग ही होते हैं। विभिन्न भाषाओं के। वहां वे अंग्रेजी में बोलती हैं मगर अपने संबोधन का एक हिस्सा हिन्दी में जरूर रखती हैं। जनता के मुहावरे में जब आप जनता की बात कहेंगे तो उसका असर कई गुना बढ़ जाएगा। खैर बात करना हमने संस्थाओं के कमजोर होने से शुरू की थी और उसमें किसी की संघर्षशीलता के महत्व पर लिखना चाहते थे। मगर इसी संदर्भ में बात साहस और निर्भयता से होती हुई मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पर गई। तो बात प्रेस की करना चाह रहे थे। पहले जब केवल अख़बार ही थे तो इसे प्रेस ही कहा जाता था। शार्ट में तब पत्रकार भी नहीं कहा जाता था केवल यही पूछा जाता था कि प्रेस में हैं?  तो उस दौरान बने प्रेस क्लब ने अभी भी पत्रकारिता की संघर्षशील परपंरा को बरकरार रखा है। यह कोई साधारण बात नहीं है। जैसा कि शुरू में लिखा कि सारी संस्थाएं हिम्मत छोड़े जा रही हैं। खास तौर पर मीडिया। जिसे पहले व्यंग्य में कहा गया गोदी मीडिया मगर अब तो जिनकी गोद में बैठा है वे भी कह देते हैं कि अरे उसकी बात नहीं कीजिए वह तो गोदी मीडिया वाला या वाली है। अब पत्रकारों का साफ वर्गीकरण हो गया है कि गोदी मीडिया वाला और बिना गोदी का अपने पांव पर खड़ा पत्रकार। पत्रकारों के लिए यह विभाजन अच्छी बात नहीं है। पत्राकारों की एकता उन्हें हमेशा ताकत और जनता के लिए काम करने की हिम्मत देती रही है। पत्रकारों के विभिन्न संगठनों का काम ही उन्हें एकजुट रखना था। मगर पहले बाजार के दबाव में और अब सरकार के डर की वजह से सारे पत्रकार संगठन केवल कागजी होकर रह गए हैं। कोरोना के समय हजारों पत्रकारों की नौकरियां गईं। सैकड़ों बिना इलाज के मदद की गुहार लगाते हुए मर गए। नौकरी जाने पर आत्महत्याएं कीं। बहुत बुरे दौर से पत्रकार गुजरे। पत्रकारिता इससे पहले ही बुरे समय में प्रवेश कर चुकी थी। गोदी मीडिया बन जाने के बावजूद उस पर हमले नहीं रूके। दरअसल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्ति का मूल अधिकार है। पत्रकारों से इतर लेखक, कलाकार बुद्दिजीवी, प्रोफेसर सब के काम और चरित्र का यह अहम हिस्सा है। इन पर हुए हमलों के खिलाफ पत्रकारों ने 2014 -15 में ऐतिहासिक पहल की थी। प्रेस क्लब आफ इंडिया के बैनर तले पत्रकारों, लेखकों ने असहिष्णुता के खिलाफ एक बड़ी सभा से इसकी शुरुआत की थी। देश में लिंचिंग, लेखकों पत्रकारों पर हमलों का एक नया सिलसिला 2014 के बाद ही शुरू हो गया था। विभाजन और नफरत की राजनीति की शुरूआत ने देश में असहिष्णुता का ऐसा माहौल बना दिया था कि उस समय के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी इसकी आलोचना की थी। इसी के विरोध में लेखकों, कवियों, वैज्ञानिकों कलाकारों ने सरकारी पुरस्कार वापस करना शुरु किए थे। प्रेस क्लब से पत्रकार, लेखकों का एक बड़ा जुलूस साहित्य अकादमी के दफ्तर पहुंचा था। जहां उसका विरोध करने के लिए सरकार समर्थक लोग भी इकट्ठा कर लिए गए थे। लेकिन पत्रकार, लेखकों ने भड़काए जाने वाले काउंटर प्रदर्शन की अनदेखी करते हुए संयम और शांति से अपना विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम किया। इसके बाद तो कांग्रेस ने राष्ट्रपति भवन तक पैदल मार्च करते हुए असहिष्णुता के खिलाफ राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने खुद संसद से रायसीना पहाड़ी चढ़ते हुए राष्ट्रपति भवन तक पैदल मार्च करते हुए इसकी अगुवाई की। प्रेस क्लब ने अभिव्यक्ति की आजादी की मशाल को बुझने न देकर उस समय जो पहल की थी वह उसने आज तक कायम रखी। इसलिए पिछले आठ साल में प्रेस क्लब को स्वतंत्र पत्रकारों से हटाने के लिए तीन चार बड़ी कोशिशें हुईं। मगर इस बार के चुनाव में तो सत्ता पक्ष और उसके आईटी सेल ने खुल कर कमान संभाल ली थी। पैसा पानी की तरह बहाया गया। लगा कि यह पत्रकारों के किसी संगठन का चुनाव नहीं कोई बड़ा आम चुनाव है। प्रेस क्लब पर यह बड़ा हमला स्वाभाविक भी था। क्योंकि सारी संस्थाओं के ढहते चले जाने के इस निराशाजनक दौर में यह एक छोटा सा संस्थान खड़ा रहा। लड़ता रहा। चाहे पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हो, व्यापम की कवरेज के लिए मध्य प्रदेश गए टीवी पत्रकार अक्षय सिंह की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो या लेखक, बुद्धिजीवी, एमएम कुलबर्गी, गोविन्द पनसार, दाभोलकर की हत्या हो या पत्रकारों के दमन का कोई भी मामला हो इस संस्था प्रेस क्लब ने अपनी सामर्थ्य भर आवाज हमेशा उठाई। इसलिए इस चुनाव में उन लोगों की हार जो गोदी मीडिया की तरह प्रेस क्लब को भी गोदी क्लब बना देना चाहते थे देश भर में च्रर्चा की विषय बनी। भारत की प्रेस की आजादी को लेकर विदेशों में भी जो चिंता रहने लगी है उनके लिए भी यह राहत की बात रही कि यहां के पत्रकारों ने अभी संघर्ष, साहस और स्वतंत्रता के मूल्यों को छोड़ा नहीं है। आज जो थोड़े से अख़बार, दूसरे संस्थान, पत्रकार प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए काम कर रहे हैं उन सबके लिए यह लड़ाई बहुत मह्त्वपूर्ण थी। बाकी विचारों की असहमति, विरोध सब अपनी जगह है मगर यह समय हिम्मत की, निर्भयता की मशाल जलाए रखने का है। राजनीति से लेकर न्याय, कार्यपालिका, विधायिका हर जगह हताशा और भय है। ऐसे में उम्मीद की किरण किसी संघर्ष से ही निकलेगी। इसलिए इस विभाजनकारी और असहिष्णु समय में हर संघर्ष महत्वपूर्ण है और किसान आंदोलन की तरह हर जीत लोगों की हिम्मत और बढ़ाने वाली है।
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