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परंपरा - कर्मकांड किसकी ? राष्ट्र की या धर्म की...?

ByVijay Tiwari,
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परंपरा - कर्मकांड किसकी ? राष्ट्र की या धर्म की...?
क्या ऋषिकेश की गंगा को कानपुर की मैली गंगा में भी शुद्ध रखा जा सकता हैं ? वर्षों से केंद्र की काँग्रेस और अब मोदी सरकार कोशिश करती रही हैं, पर परिणाम वही “ढाक के तीन पात” रहे। नदी किनारे की बस्तियों को सिवेज को शुद्ध करने के लिए प्लांट लगाने के लिए पैसा सरकारों द्वारा दिया गया हैं परंतु नौकरशाही और अफसर शाही ने नदी की सफाई के मूल काम से अधिक अपने कारकुनों के लिए आफिस, निवास और गाड़ी खरीदने में खर्च किया हैं। अब डॉ. मोहन भागवत जी गंगा को निर्मल बनाने के लिए राम मंदिर जैसा अभियान चलाने का आवाहन कर रहे हैं। इसके पूर्व उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री उमा भारती के बयानों को जान लेना चाहिए और केंद्र द्वारा इस कार्य हेतु दिये गए धन के आवंटन और उसके उपयोग का निरीक्षण करना चाहिए ! क्योंकि उनका उद्देश्य सर्वथा स्वागत योग्य हैं। लेकिन अफसरशाही ने इस मद में काफी खेल किया हैं, उसकी जांच होनी चाहिए।  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों के पूर्व अनेक मुद्दे सार्वजनिक क्षेत्र में डाल रहे हैं जो बीजेपी के लिए हिन्दू मतदाताओं का चुनावी मुद्दा बनाने में सहायक हैं। ये मुद्दे ऐसे हैं जो उनके मन को छूते हैं। 1. उन्होंने बयान दिया कि गंगा को साफ करने के लिए -राम मंदिर ऐसे अभियान की जरूरत हैं। जिस प्रकार राम मंदिर लिए बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया, फिर उसके लिए जिस प्रकार अदालत में दावे और शोध प्रस्तुत किए गए – उन पर भी अब सवाल उठ खड़े हुए हैं। तब पुरातत्व विभाग के बड़े - बड़े अफसरों ने खुदाई के समय इस्लामी वस्तुओं के अवशेश पाये जाने का दावा किया था। जो तत्कालिन मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाए जाने के दावे को पुष्टि हेतु बताए गाये थे। परंतु अभी जब मंदिर निर्माण के लिए भारत सरकार ने टाटा और एल अँड टी को सौंपा, तब नीव खुदाई के समय बीस फूट पर ही सरयू की जलधारा होने का प्रमाण मिला। जिससे यह सिद्ध हो गया कि मस्जिद के नीचे किसी भी प्रकार की इमारत का होना संभव ही नहीं जब की मीडिया प्रचार में इस मुद्दे को पूरी तरह से नकार दिया गया। इससे जहां मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाए जाने के दावे पर संदेह होता हैं वहीं - तत्कालीन पुरातत्व वेत्ताओं के निष्कर्षों के तथ्यात्मक होने का भी संदेह होता हैं। दूसरा मुद्दा हैं गंगा को साफ करने का - जब उमा भारती केंद्रीय मंत्री थी तब उन्होंने खुद माना था कि नदी की सफाई के लिए जितनी धनराशि सरकार द्वारा खर्च की गयी वह वास्तव में प्रबंधन के लिए सुविधा जुटाने में व्यय की गयी हैं। उनके अनुमान के अनुसार जितना धन का आवंटन गंगा की सफाई के लिए दस से अधिक वर्षो में खर्च किया गया हैं, उसकी तुलना में नदी की सफाई नहीं हुई हैं। भागवत जी अगर चाहे तो वे केंद्र सरकार से हिसाब ले सकते हैं कि विगत वर्षो में गंगा सफाई अभियान की मद में मोदी सरकार द्वारा कितना -कितना आवंटन किया गया। उमा भारती जी द्वारा हरिद्वार में की गयी एक पत्रकार वार्ता में कहा गया था कि गंगा के ऊपरी हिस्से में उसकी सहायक नदियो में जल विद्युत बनाने के संयंत्र नहीं बनने चाहिए। क्योंकि यह नदी के स्वरूप और स्थिति को खतरनाक बनाएगा। उनका कहना अभी ऋषि गंगा पर हुए जल प्लावन से सिद्ध होता हैं। जब तक उत्तराखंड में गंगा की सहायक नदियों पर संयंत्र लगते रहेंगे और सड़क निर्माण होता रहेगा तब तक गंगा के निर्मल होने की संभावना कम ही होगी। फिर चाहे आप राम मंदिर जैसा अभियान चलाये कोई फल नहीं मिलने वाला हैं। क्यूंकि गंगा की सफाई के लिए नदी के किनारे की बस्तियों का सिवेज और गंदा पानी उसमें जाता रहेगा तब तक -ऋषिकेश की गंगा कानपुर आते आते मैली हो ही जाएगी ! 2. दूसरा बयान उन्होंने हिन्दू परम्पराओं को हिकारत से देखे जाने की हरकत की निंदा की हैं। उन्होंने कहा कि आज भी शिक्षा संस्थाओं में कलावा पहनने या माथे पर तिलक लगाने को हेय निगाहों से देखा जाता हैं। सवाल यह हैं कि सर में शिखा और माथे पर तिलक और कांधे पर यज्ञोपवीत और दूसरे कांधे पर अंगवस्त्रम तथा धोती पहने हुए को ही राष्ट्रीय पहचान माना जाए ? अथवा कलाई पर कलावा को हेय दृष्टि से देखने वाले को क्या कहेंगे और उसका क्या करेंगे ? क्या अरब मुल्कों की भांति महिलाओं को अबाया या बुर्का नहीं पहनने पर कोड़े से मारा जाये ? क्योंकि इन देशों में लोकतन्त्र नहीं हैं। दूसरा राजतंत्र में धर्म का पालन प्रजा से करवाना भी राजशाही का कर्तव्य होता हैं। परंतु भारत समाजवादी लोकतंत्र देश हैं। यहां सभी को अपनी आस्था के अनुरूप उपासना का अधिकार हैं। सरस्वती शिशु मंदिरो में प्रार्थना से लेकर राष्ट्र वंदना के गीत सभी गाते हैं फिर भले ही वे मूर्ति पूजक हो अथवा निराकार ईश्वर के उपासक हो। मिशनरी संस्थानों में प्रार्थना होती हैं जो उनके आस्था के अनुसार होती हैं। अंग्रेजी संस्थानों में भी यज्ञोपवीत धारी बालक पड़ते हैं। मुझे मालूम हैं कि एक विद्यार्थी तो शिखा रखा कर ऊंची गरदन करके क्लास में जाता था। किसी ने अगर उसका मखौल उड़ाने की कोशिश की तो उसका उत्तर होता था कि आप नहीं शिखा रख सकते क्योंकि आपको इसकी महत्ता नहीं मालूम। हाँ कुछ मिशन स्कूलों में लड़कियों के चूड़ी पहनने और मांग में सिंदूर डालने पर कालेज प्रबंधन ने एतराज़ जताया था, जिस पर अति हिन्दू वादी संगठनों विरोध किया। मुश्किल यह थी कि कालेज में भर्ती के समय यह लिखित में देना होता हैं कि वे प्रबंधन के नियमों का पालन करेंगे। अब सरकारी स्कूलों में तो यह प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता , परंतु निजी स्कूलों में तो उनके ही नियम मानी होंगे। अब ईसाई स्कूलों में कलावा और शिखा तथा तिलक पर एतराज़ को शैताननियत तो नहीं कह सकते हैं। हम सभी समुदायों के लोगों पर वे करमकांड नहीं लागू कर सकते जिन्हें हम हिन्दू मानते हैं।  
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