गिरिजाशंकर
मध्यप्रदेश की राजधानी एवं भारत भवन की नगरी भोपाल में नाटक कम होते हैं, नाट्य समारोह अधिक होते हैं। इन नाट्य समारोहों में रंगमंच व संगीत आदि विधाओं की विशिष्ठ प्रतिमाओं को सम्मानित करने की परंपरा है।
पिछले दिनों कीर्ति बैले एवं परफारर्मिंग आटर््स संस्था द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सव ’धरोहर-11’ में संगीतचार्य गुरू सिद्धराम स्वामी कोरवार का सम्मान किया गया। सम्मान समारोह के बाद नाट्य समारोह की पहली प्रस्तुति माइम गुरू मनोज नायर द्वारा लिखित तथा निर्देशित नाटक ’नेपथ्य में शकंुतला’ का मंचन होना था।
सबसें पहले आयोजक कलाकारों के बारे में। कीर्ति बैले आर्ट्स के प्रमुख चंद्रमाधव बारिक उड़ीसा से हैं तथा छाऊ नृत्य में पारंगत हैं। लिटिल बैले ट्रप जब ग्वालियर में था तब इसके प्रमुख स्व. प्रभात गांगुली ने चंद्रमाधव को उड़ीसा से ग्वालियर बुला लिया और वे प्रभात दा के साथ बैले की कोरियाग्राफी करने लगे। 1984 में लिटिल बैले ट्रूप भोपाल आ गया और प्रभात दा के साथ चंद्रमाधव भी यहां आ गये और यहां उनके सानिध्य में कोरियाग्राफी करने लगे। लगभग आधी सदी के अपने कोरियाग्राफी के अनुभव के साथ लगभग दो दशक पहले उन्होंने अपनी संस्था कीर्ति बैले आटर््स की स्थापना की।
इसी बीच कोरियाग्राफर कीर्ति सक्सेना से उनकी मुलाकात हुई और दोनों मिलकर काम करते हुए जीवन साथी हो गये। 2008 से उन्होंने धरोधर के नाम से राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सव का आयोजन प्रारंभ किया, जो निरंतर जारी है। बेहद संकोची व विनम्र लेकिन अपने काम में समर्पित लो प्रोफाइल व्यक्तित्व के चंद्रमाधव व कीर्ति बारिक बैले कोरियोग्राफी में प्रदेश में आज पानोनियर हैं। हर साल दो दर्जन बैले कलाकार तैयार करते हैं और अनेक सामाजिक व समसामयिक विषयों पर उन्होंने बैले तैयार किया है। उनके धरोहर-11 में आज मनोज नायर का नाटक होना था। कालिदास के अभिज्ञान शांकुंतलम नाटक का मंचन अलग-अलग अंदाज और शैली में बरसों से हो रहा है। मनोज के ‘नेपथ्य में शकुंतला’ भी उन्हीं में से ही कोई एक होगा, सोचकर पूरा नाटक देखने का मन नहीं था। मनोज से अग्रिम माफी भी मांग ली थी। बहरहाल नाटक शुरू हुआ और शुरूआती चंद मिनटों में उसने ऐसा बांध लिया कि कब नाटक खत्म हुआ पता ही नहीं चला। लगभग डेढ़ घंटे के इस नाटक में दर्शकों को बांधे रखने या प्रसिद्ध नाटककार शफाअत खान के शब्दों में दर्शकों को होल्ड करने की अद्भुत क्षमता दिखी। नाटक में शकुंतला वास्तव में नेपथ्य में थी और मुख्य किरदार उनका था जो नाटक के छोटे-छोटे सपोर्टिंग एक्टर थे।
नाटक की मूल कहानी दुष्यंत-शकुंतला का मिलन, विछोह व पुर्नमिलन तो नाटक में विद्यमान था लेकिन नाटक का मूल स्वर सिर्फ यह न होकर नाटकों के उन छोटे पात्रों या सहयोगी कलाकारों की मनोदशा है जो अपने आपको नाटक में उपेक्षित पाते हैं। शुरू होता है मानव नामक पात्र की मानव कुंठा के साथ कि अच्छा कलाकार होने के बाद भी उसे नाटक में लीड रोल नहीं मिलता। लिहाजा नाटक के बाद वाहवाही लीड रोल वाले की होती है और उस जैसा सपोर्टिंग एक्टर गुमनाम ही रह जाता है। अपनी इसी कुंठा के चलते वह नाटक से अलग होने की घोषणा कर देता है। तब सामने आते हैं। नाटक के वे पात्र जो मनुष्य की नहीं बल्कि भंवरा, हिरण, मछली व शेर जैसे प्राणियों की भूमिका नाटक में निभाते हैं। बेहद सधे हुए और सुनियोजित हास्य के जरिये वे अपनी भूमिका पर गर्व करते हुए मानव को समझाते हैं कि वे प्राणियों की भूमिका निभाते हुए भी इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनके बिना दुष्यंत व शकुंतला की प्रेम कहानी पूरी नहीं हो सकती। वे इस बात पर गर्व करते हैं कि कालिदास ने अपने नाटक में उन प्राणियों को स्थान दिया।
इस नाटक की सबसे बड़ी खूबी इसकी नाट्य रचना है जिसे निदेशक मनोज नायर ने नाटककार के रूप में प्रस्तुत किया है। कालिदास की शकुंतला के सौंदर्य को पूरी तरह कायम रखते हुए प्राणी पात्रों के माध्यम से यह संदेश देता कि नाटक हो या जीवन कोई भी भूमिका छोटी या महत्वहीन नहीं होती। यही छोटी भूमिका एक बड़े घटनाक्रम का आधार होती है। हिरण न होता तो दुष्यंत-शकुंतला के पीछे न भागता, भंवरा न होता तो दुष्यंत शकुंतला के निकट नहीं आ पाता, मछली अपने पेट में अंगूठी को न समाये रखती तो दुष्यंत की स्मृति वापस नहीं लौटती और शेर के साथ बालक को खेलते नहीं देखता तो दुष्यंत को यकीन नहीं होता कि यह बालक उनके व शकुंतला के मिलन का फल उनका पुत्र ही है। इतना ही नहीं नाटककार इन प्राणियों की समकालीन दशा का चित्रण भी बखूबी करता है कि किस तरह शिकारी उनका वघ करने से नहीं चूकते। नाटककार मनोज जब निदेशक के रूप में अपने इस नाटक की प्रस्तुति करते हैं तो प्राणियों की समकालीन दशा यानी उनके शिकार का चित्रण कुशल सुनियोजित हास्य के साथ करते हैं कि दर्शक को बांधे रखने की अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन नाटक करता है।
प्रसिद्ध लोक निदेशक हबीब तनवीर के साथ लगभग दो दशक तक काम कर चुके मनोज नायर का यह अनुभव उनके नाट्य लेखन व नाट्य प्रस्तुति में साफ नजर आता है। वे हबीब की लोक शैली को ज्यों का त्यों नहीं अपनाते लेकिन लोक की एक नई शैली विकसित करते नजर आते हैं जिसे मैं हबीब तनवीर की रंग परंपरा को आगे बढ़ाते हुए देखता हूं। सेट, कास्ट्यूम, संगीत, मुखौटे, ध्वनि, प्रकाश आदि सब कुछ का संतुलित व कल्पनाशील संयोजन नाटक को एक पेशेवर नाटक का मुकम्मिल शक्ल देता दिखता है। कलाकारों के अभिनय की बात करें तो सभी का इतना सधा हुआ अभिनय भी पेशेवर नाटकों में ही देखने को मिलता है।
मनोज नायर के इस नाटक को देखते हुए अतुल कुमार का ”पिया बहिरूपिया“ रंजीत कुमार का ”बेगम का तकिया“ या ”जनपथ किस“ अतुल सत्य कौशिक का ”कहानी तेरी मेरी“ या समतासगार का ”गुड़िया की शादी“ या प्रीता माथुर का ”हाय मेरा दिल“ जैसे सफल व्यवसायिक नाटकों की याद आना स्वाभाविक हैं। मैं मनोज के ”नेपथ्य में शकुंतला“ को इन नाटकों के समकक्ष ही पाता हूँ। अतुल कुमार, रंजीत कुमार, अतुल कौषिक या ऐसे और भी नाम हैं जो भारतीय रंगमंच के पेशेवर थियेटर के पुरोधा माने जाते हैं जो जिन्होंने अपनी प्रस्तुतियों से यह साबित किया कि व्यवसायिक नाटकों के जरिये भी समसामयिक विषयों को पूरी शिद्दत के साथ दर्शकों से रूबरू कराया जा सकता है। इसी अवधारणा को मनोज नायर का नाटक आगे बढ़ाता है।
मैं उम्मीद करता हूँ कि मनोज अपने इस नाटक के शौकिया ट्रीटमेंट से अलग ले जाते हुए एक पेशेवर नाटक के रूप में आगे बढ़ायेंगे और छोटे शहरों में होने वाले शौकिया नाटकों को पेशेवर बनाने की दिशा में उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। हबीब तनवीर से उन्होंने नाट्यकला तथा ग्रुप चलाने के साथ ही उनके प्रबंधकीय कौशल को भी देखा, समझा सीखा होगा। अब उन्हें इस प्रबंधकीय कला का परिचय देना होगा जो उनके ही नहीं हिन्दी रंगमंच के शौकिया नाटकों को पेशेवर बनाने में मददगार होगा।