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भारत की दो कहानियां!

भारत में मर्सिडीज की करोड़ों में रुपये कीमत वाली कारों की लंबी वेटिंग लिस्ट है, जबकि एंट्री लेवल के कारों या दोपहिया वाहनों का बाजार मंदा पड़ा हुआ है। या हाल में एक आंकड़ा यह सामने आया था कि 2022 में भारतीयों ने विदेश यात्राओं पर दस बिलियन डॉलर खर्च कर दिए। इतनी बड़ी रकम खर्च करने की क्षमता कैसे एक वर्ग को प्राप्त होती जा रही है, इसके सुराग भी इन आंकड़ों में हैं। जाहिर है, ये सक्षम तबके वो हैं, जिन्होंने स्टॉक एक्सचेंज में निवेश कर रखा है। सरकारी नीति के तहत सार्वजनिक पैसे को शेयर बाजारों में पहुंचाया गया है, जिस वजह से असल अर्थव्यवस्था के बदहाल होने के बावजूद शेयर सूचकांक ऊपर चढ़ने के रिकॉर्ड बनाते गए हैँ।

सबसे महंगी श्रेणी की कारों की मांग और हवाई यात्राओं की संख्या बढ़ने, मॉल्स या शहरी बाजारों में चहल-पहल, और सकल घरेलू उत्पाद की अपेक्षाकृत ऊंची दर के बीच भारत में बढ़ती गरीबी या बदहाली की चर्चा अगर आपके सामने पहेली बनी हुई हो, तो अब सामने आए ताजा आंकड़ों से आपको इस कौतूहल से निकलने में मदद मिल सकती है। इस हकीकत से हम काफी समय से परिचित रहे हैं कि कैसे शाइनिंग इंडिया (चमकते भारत) और सफरिंग इंडिया (दुर्दशा ग्रस्त भारत) के कथानक साथ-साथ इस देश की सच्चाई बने बने हुए हैँ। अब इन आंकड़ों ने एक बार फिर से इस बात की पुष्टि की है और साथ ही यह बताया है कि चमक और दुर्दशा के बीच की खाई हाल के वर्षों में अधिक चौड़ी हो गई है।

ये हाल के वर्ष जाहिरा तौर पर नरेंद्र मोदी के शासनकाल के हैं। साथ ही ये वो अवधि है, जिसकी शुरुआत नोटबंदी से होती है। ये वो वर्ष हैं, जिनमें आम जन की जेब से पैसा निकाल कर उसे चंद पूंजीपति घरानों को ट्रांसफर करने की प्रतिगामी कर नीति (regressive tax policy) सरकार ने खुलेआम लागू की है। यही वो अवधि भी है, जिसमें सामाजिक विकास के निवेश को लगातार घटाया गया है और साथ ही ‘रेवड़ी कल्चर’ की बहस छेड़ कर जन-कल्याण के कार्यक्रमों के बजट में अभूतपूर्व कटौती की गई है।

इस रूप में ताजा आंकड़े कोई संयोग नहीं, बल्कि सुविचारित और सुनियोजित सरकारी नीति का परिणाम हैं। इससे ऐसे भारत की तस्वीर ने ठोस रूप ले लिया है, जिसमें पूंजीपति घरानों और उनसे प्रत्यक्ष सेवक समूहों की आमदनी बढ़ रही है, जबकि बाकी लोग गरीब हो रहे हैं। इस तरह अर्थव्यवस्था ने स्थायी रूप से K shape ग्रहण कर लिया है। कोरोना महामारी के समय जब लॉक़डाउन में सब कुछ ठप हो जाने का बाद जब फिर से आर्थिक गतिविधियां शुरू हुईं, तब K shape रिकवरी का पहलू सामने आया था। अर्थ यह था कि ऊपर के तबकों की रिकवरी तेजी से हुई, जबकि नीचे के तबकों की हालत बिगड़ी। मगर भारत में हकीकत यह है कि पूरी अर्थव्यवस्था का स्थायी आकार ही K shape का हो चुका है।

इस परिघटना को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि पूंजी के लिए सस्ते श्रम की उपलब्धता को सुनिश्चित करने की नीति को आगे बढ़ाया गया है। इस सिलिसले में कार्ल मार्क्स की रिजर्व आर्मी ऑफ लेबर की अवधारणा को याद किया जाना चाहिए। इस अवधारणा के मुताबिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए ऐसे बेरोजगार या सार्थक रोजगार पा सकने में असफल कर्मियों की बड़ी संख्या को बनाए रखना अनिवार्य होता है, जो कम वेतन पर काम करने के लिए उपलब्ध हों। पूंजीपति समूह अवश्य इस बाते के लिए वर्तमान सरकार शाबाशी देते होंगे कि उसने गुजरे वर्षों में इस आर्मी की संख्या में असाधारण वृद्धि कर दी है।

तो अब उन ताजा आंकड़ों पर आते हैं। इन आंकड़ों से संबंधित एक सारणी को अर्थशास्त्री रतिन रॉय ने भी ट्विटर पर जारी किया। रतिन रॉय वर्तमान केंद्र सरकार के तहत ही प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके हैँ।

https://twitter.com/EmergingRoy/status/1645781868581908482/photo/1

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यह सारणी 2016 से 2021 तक भारत में विभिन्न वर्गों की रही वास्तविक आदमनी की जानकारी देती है। वास्तविक आय से मतलब मुद्रास्फीति को एडजस्ट करते हुए आमदनी का आकलन होता है। यानी जो औसत आमदनी किसी आय-वर्ग की रही हो, उसमें मुद्रास्फीति के प्रतिशत को घटा लिया जाता है। स्पष्ट है कि मुद्रास्फीति से मुद्रा (यानी भारत में रुपये) की क्रय शक्ति घटती है। असल आमदनी वही है, जो आपको क्रय शक्ति दे।

इस सारणी में 2016 से 2021 तक भारतीय आबादी में नीचे से ऊपर तक हर 20 प्रतिशत के वर्ग की रही असल आमदनी का ब्योरा है। इसके मुताबिक,

  • इस अवधि में सबसे गरीब 20 प्रतिशत आबादी की असल आमदनी लगभग 50 प्रतिशत घट गई। यानी इस वर्ग के पास 2016 में जो क्रय शक्ति थी, उससे अब उसके पास लगभग 50 प्रतिशत ऐसी ताकत है।
  • नीचे से 20 से 40 प्रतिशत वाले जनसंख्या वर्ग की असल आमदनी में इसी अवधि में लगभग 30 प्रतिशत की गिरावट आई है।
  • 40 से 60 प्रतिशत वाले जनसंख्या वर्ग की असल आमदनी में लगभग पांच प्रतिशत कमी आई है।
  • इसके ऊपर तस्वीर बदल गई है। 60 से 80 प्रतिशत वाले आबादी तबके की असल आमदनी 2016-21 की अवधि में पांच प्रतिशत से अधिक बढ़ी।
  • जबकि टॉप 20 प्रतिशत की वास्तविक आय लगभग 40 प्रतिशत बढ़ी है।

इस सारणी के अंत उसके उस स्रोत का भी उल्लेख है, जहां से इस विषय पर पूरी जानकारी हासिल की जा सकती है। यह स्रोत है- www.lucaschancel.com/india-2021

यह वेबसाइट मशहूर अर्थशास्त्री लुकस चांसेल की है। चांसेल आर्थिक गैर-बराबरी पर अपने शोध और सूचनाओं को सामने लाने के लिए विश्व प्रसिद्ध हुए अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के सहकर्मी हैं। पिकेटी और चांसेल इसके पहले भारत में आर्थिक गैर-बराबरी पर अपना एक मशहूर शोध पत्र भी प्रकाशित कर चुके हैँ। अब चांसेल ने भारत में 2016 से 2021 तक असल आमदनी की रही स्थिति और उसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय धन पर विभिन्न वर्गों के आनुपातिक कब्जे का आंकड़ा प्रस्तुत किया है। उपरोक्त वेबलिंक पर जाकर भारत में गैर-बराबरी की अश्लील होती सूरत को दर्शन किया जा सकता है।

बहरहाल, जो सारणी रतिन रॉय ने जारी की, वह अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि क्यों में भारत में मर्सिडीज की करोड़ों में रुपये कीमत वाली कारों की लंबी वेटिंग लिस्ट है, जबकि एंट्री लेवल के कारों या दोपहिया वाहनों का बाजार मंदा पड़ा हुआ है। या हाल में एक आंकड़ा यह सामने आया था कि 2022 में भारतीयों ने विदेश यात्राओं पर दस बिलियन डॉलर खर्च कर दिए। इतनी बड़ी रकम खर्च करने की क्षमता कैसे एक वर्ग को प्राप्त होती जा रही है, इसके सुराग भी इन आंकड़ों में हैं।

जाहिर है, ये सक्षम तबके वो हैं, जिन्होंने स्टॉक एक्सचेंज में निवेश कर रखा है। सरकारी नीति के तहत सार्वजनिक पैसे को शेयर बाजारों में पहुंचाया गया है, जिस वजह से असल अर्थव्यवस्था के बदहाल होने के बावजूद शेयर सूचकांक ऊपर चढ़ने के रिकॉर्ड बनाते गए हैँ। इससे जुड़े समूहों की आमदनी रिकॉर्ड तेजी से बढ़ी है। चूंकि असल यानी उत्पादक अर्थव्यवस्था बदहाल है, इसलिए श्रमिक वर्ग की आमदनी गिरी है। इससे एक दुश्चक्र बन गया है। चूंकि 60 प्रतिशत लोगों की असल आमदनी गिरी है, इसलिए उन्हें अपने उपभोग में कटौती करनी पड़ी है और उस कारण जमीनी स्तर पर डिमांड गायब है। नतीजतन, उत्पादन से जुड़ी कंपनियां अपनी उत्पादन क्षमता का उपयोग नहीं कर पा रही हैं और इसलिए वे नए निवेश नहीं कर रही हैं। इस बात की अनगिनत मिसालें हैं। सबसे साफ मिसाल तो एमएमसीजी कंपनियों (यानी तेल-साबुन बनाने वाली कंपनियों) की बिक्री में लगातार आई गिरावट की रिपोर्टें हैं।

लेकिन यह वही वक्त है, जब वित्तीय अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े लोगों की आमदनी बढ़ने से जीडीपी के आंकड़े चमकते हुए दिख रहे हैं। इसको लेकर पश्चिमी देश और उनके हितों को साधने वाली संस्थाओं ने भारत की “विकास कथा” की मोहक कहानियां फैलाई हैं। यह कथा कितनी टिकाऊ होगी, यह पड़ताल का एक अलग विषय है।

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Published by सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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