अखिलेश यादव ज्यादा अनुभवी हैं। मुख्यमंत्री रह चुके हैं मगर अपेक्षाकृत युवा तेजस्वी की तरह आगे बढ़कर विपक्षी एकता की पहल नहीं कर पा रहे हैं। ...उन्हे अहसास नहीं है कि ये अब्बाजान की विभाजनकारी भाषा अभी कितने रूप बदलेगी और अकेले इससे लड़ना उनके लिए किसी भी हालत में संभव नहीं होगा। प्रियंका काफी हद तक इस खतरे को समझ रही हैं। रालोद के जयंत चौधरी भी समझ रहे हैं। कई छोटे दल भी अगर बिहार की तरह महागठबंधन बनता है तो साथ आने को तैयार हैं। (up assembly election 2022)
उत्तर प्रदेश में किसी का भी सफर आसान नहीं है। क्रिकेट की भाषा में कहें तो मैच फंसा हुआ है। जो धीरज से खेल जाएगा, टीम स्पिरिट को बढ़ाते हुए वह मैच निकाल लेगा। अभी स्लेजिंग ( दूसरी टीम के लिए अपशब्द) और बढ़ेगी। लेकिन गावस्कर जैसे शांत बने रहने का असली इम्तहान भी यही होगा।
कांग्रेस इस गेम में बड़ी प्लेयर नहीं है। लेकिन अगर प्रियंका गांधी की राजनीति चल गई तो कांग्रेस बिहार चुनाव की तरह इस बार यूपी में भी महागठबंधन की धूरी बन जाएगी। प्रियंका अभी यूपी का एक सघन दौरा करके आई हैं। एक तरफ वे वहां कांग्रेस के संगठन को मजबूत एवं सक्रिय करने के लिए मीटिंग पर मीटिंग करती दिखती हैं तो दूसरी तरफ वे विपक्ष के साथ आने की संभावनाओं की टोह में भी लगी रहती हैं।
इसी प्रयास के तहत वे अपने पिछले यूपी दौरे में ऋतु सिंह से मिलने लखीमपुर गईं थीं। ऋतु सिंह पंचायत चुनाव में उस समय बहुत परेशानी में पड़ गई थीं और फिर चर्चा में आ गईं थीं, जब उनके हाथ से नामांकन पत्र छीनने का वीडियो सामने आया था। वे सपा की तरफ से ब्लाक प्रमुख पद की उम्मीदवार थीं। प्रियंका के मिलने जाने और अखिलेश यादव के न जाने का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे सपा छोडकर कांग्रेस में शामिल हो गईं। उनके कांग्रेस में शामिल होने से यूपी में एक नई राजनीतिक हलचल मच गई।
ऋतु सिंह कोई बड़ी नेता नहीं हैं। मगर घटना विशेष ने उन्हें बड़ा महत्व दिला दिया। दिनदहाड़े बीच सड़क पर एक महिला से नामांकन छीनने की वीडियों बहुत वायरल हुआ था। यह महिला सुरक्षा से लेकर लोकतंत्र की स्थिति की भी बात थी। लेकिन वे जिस पार्टी के लिए लड़ रही थीं उस सपा ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। और प्रियंका गांधी दिल्ली से उनसे मिलने लखीमपुर पहुंच गईं।
ऐसी घटनाएं छोटी होती हैं, मगर इनका राजनीतिक संदेश दूर तक जाता है। राजनीतिक कार्यकर्ताओं में एक भावना आती है कि उनके लिए कोई सोचता है। इन्दिरा गांधी कांग्रेस के हर कार्यकर्ता में यह भावना पैदा कर देती थीं कि उसके सिर के उपर पर किसी का हाथ है। 1977 की भयानक हार जिसमें वे और संजय गांधी भी हार गए थे के ढाई साल बाद ही 1980 की शानदार वापसी के पीछे कार्यकर्ताओं का ही मनोबल था। वाजपेयी जी ने कहा था लोकसभा में इन्दिरा गांधी को बधाई देते हुए कि यह संजय गांधी और उनके कार्यकर्ताओं की मेहनत और जोश का परिणाम है।
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तो प्रियंका गांधी यूपी में एक राजनीतिक मैसेज दे रही हैं कि हर राजनीतिक कार्यकर्ता जो चाहे जिस पार्टी का हो अगर अन्याय का शिकार होता है तो वे उसके साथ खड़ी हैं। इसके द्विस्तरीय असर हैं। एक दूसरी पार्टियों के कार्यकर्ताओं में भी प्रियंका के नेतृत्व के लिए सम्मान बढ़ना। और दूसरे विपक्ष में यह हलचल होना कि कांग्रेस का स्पेस बढ़ रहा है। प्रियंका यही चाहती हैं।
जब तक यूपी में दूसरी विपक्षी पार्टियां खासतौर पर सपा यह नहीं मानेगी कि कांग्रेस को नजरअंदाज करना महंगा पड़ेगा तब तक वे कांग्रेस को भाव नहीं देंगी। हालांकि हर बार की तरह कांग्रेस के कुछ नेता फिर यह कह रहे हैं कि अकेले लड़ना चाहिए, पार्टी को मजबूत करना चाहिए मगर यह कहने वालों में से कोई भी ऐसा नहीं है जो दावे से कह सके कि अकेले लड़कर वह इतने वोट ला सकता है। या उसने पिछले पांच साल में पार्टी को मजबूत करने के लिए यह किया।
प्रियंका यूपी की इन्चार्ज महासचिव हैं। उनकी प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है। हालांकि कहा यह भी जाता है कि उन्हें यूपी का इन्चार्ज नहीं बनाना चाहिए था। यूपी कांग्रेस के लिए सबसे टफ स्टेट है। धर्म और जाति की राजनीति ने यहां व्यक्तियों तक पहुंचने के सारे सामान्य रास्ते बंद कर दिए हैं। दलित, पिछड़ा, सवर्ण फिर सवर्ण में भी ब्राह्मण, ठाकुर से लेकर श्मशान, कब्रिस्तान, अब्बाजान तक ही सारा राजनीतिक संवाद सीमित कर दिया गया है। मीडिया इसी पर बहसें कर रहा है। खेतों में आवारा पशु घुस रहे हैं इस पर कोई बात नहीं कर सकता। रिपोर्टर फौरन पूछते हैं कि तालिबान पर आपके विचार क्या हैं। बेचारा किसान कहता है कि पहले हमारी फसल की तबाही कि बात सुन लो फिर अपनी कहना मगर गांव कवर करने आया रिपोर्टर कहता है नहीं हमें यूपी के गांवों की खेती किसानी की कहानी नहीं तालिबानी कहानी बनाना है। गांव गांव में बुखार फैला हुआ है। खासतौर पर बच्चे चपेट में आए हुए हैं। मगर दवा, अस्पताल की कहीं कोई बात नहीं, हर बात को घुमा फिराकर हिन्दु मुसलमान पर लाकर छोड़ देना है। up assembly election 2022
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इन परिस्तथितियों में प्रियंका की चुनौती बहुत बड़ी है। कांग्रेस जिसकी राजनीति का आधार सभी धर्म और जाति रहे हैं ऐसे में जब रोजगार, महंगाई, चिकित्सा सुविधाएं, खेती किसानी की बात करती है तो उसे सुनने वाले और आगे बढ़ाने वाले बहुत कम दिखाई देते हैं। अकेले चुनाव लड़ने की वकालत करने वालों को यह सोचना चाहिए कि क्या दूसरी पार्टियों की तरह उनके पास कार्यकर्ताओं का ऐसा जाल है कि प्रियंका और राहुल की बात गांव गांव पहुंचाई जा सके। इस कोरोना के कठिन समय में सबसे ज्यादा जनता की आवाज राहुल गांधी ने उठाई है। लगातार प्रेस कान्फ्रेंसे की, मजदूरों से मिले, किसानों से मिले, जहां अन्याय हुआ वहां गए। पुलिस ने धक्के दिए, नीचे गिरे। मगर फिर उठकर आगे बढ़े। ऐसे ही प्रियंका भी। मगर क्या यह बात लोगों तक पहुंची कि राहुल और प्रियंका उनके लिए सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं? लोगों के पास तो वही खबर पहुंचती है जो टीवी दिखाता है और अखबार छापते हैं। उनमें तो यही सवाल होता रहता है कि कहां हैं विपक्ष, कहां हैं राहुल।
ऐसे में कांग्रेस हो या कोई और विपक्ष सबको अपना महत्व बनाना होगा। जैसे बिहार में विपक्ष के साथ मिलकर तेजस्वी ने बनाया। इसी से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तेजस्वी सहित सभी दलों को लेकर प्रधानमंत्री से मिलने जाना पड़ा। बंगाल में ममता बनर्जी ने बनाया है। बिहार या बंगाल में ये नेता आज जनता तक अपनी बात पहुंचाने में समर्थ हैं। मगर यूपी में मुख्य विपक्षी दल सपा भी इस स्थिति में नहीं है कि उसकी बात हर जगह पहुंच सके। अखिलेश यादव ज्यादा अनुभवी हैं। मुख्यमंत्री रह चुके हैं मगर अपेक्षाकृत युवा तेजस्वी की तरह आगे बढ़कर विपक्षी एकता की पहल नहीं कर पा रहे हैं। पता नहीं उन पर मुलायम सिंह यादव का दबाव है जिन्होंने जेल जाने से बचाने के लिए अमर सिंह की तारीफ की थी या ऐसी खुशफहमी है कि वे अकेले चुनाव जीत लेगें। जो भी हो वे इस समय सच्चाई का सामना करने से कतरा रहे हैं। उन्हे अहसास नहीं है कि ये अब्बाजान की विभाजनकारी भाषा अभी कितने रूप बदलेगी और अकेले इससे लड़ना उनके लिए किसी भी हालत में संभव नहीं होगा।
प्रियंका काफी हद तक इस खतरे को समझ रही हैं। रालोद के जयंत चौधरी भी समझ रहे हैं। कई छोटे दल भी अगर बिहार की तरह महागठबंधन बनता है तो साथ आने को तैयार हैं। मगर दोनों बड़ी पार्टियां सपा और बसपा इस गुमान में हैं कि अकेले लड़कर वे सरकार बना लेंगीं। ऐसे ही ओवेसी भी अपने आपको बड़ी ताकत मान रहे हैं। वे ताकत हैं इसमें कोई दो राय नहीं मगर भाजपा के लिए। ओवेसी की राजनीति भाजपा की हिन्दु मुसलमान राजनीति के बहुत अनुकूल पड़ती है।
ओवेसी भाजपा को और भाजपा ओवेसी को पूरी मदद करेंगे। धार्मिक विभाजन को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की कोशिश की जाएगी। यही एक दांव ऐसा है कि अगर चल गया तो भाजपा की राह आसान हो जाएगी। और कहीं अगर कानून व्यवस्था की समस्याएं, किसान, महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना में हुई मौतें रोजी रोटी के सवाल चल गए तो भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी। लेकिन इन सवालों को उठाने के लिए विपक्षी दलों को साथ आना होगा। अलग अलग उठाए सवाल जनता में विश्वास पैदा नहीं कर पाएंगे। up assembly election 2022
यूपीः किसी के लिए चुनाव आसान नहीं और प्रिंयका....
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