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ट्रंप पर लानत, मुल्क अमेरिका को सलाम!

Byशकील अख़्तर,
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ट्रंप पर लानत, मुल्क अमेरिका को सलाम!
सारी सावधानियों के बावजूद अनहोनी हो सकती है। लेकिन फर्क यहां पैदा होता है कि बचाव (सेफ्टी मेजर) के साधन किसके पास, कितने मुस्तैद हैं! अमेरिका  इस बड़े इम्ताहन में पूरी तरह सफल हुआ है। ट्रंप का तानाशाह रवैया, उनका अपने समर्थकों को भड़काना, संसद पर हमला, चुनाव नतीजों को मानने से इनकार करना एक पहलू है। यह नकारात्मक पहलू बड़ा हो जाता अगर दूसरा सकारात्मक पहलू नहीं होता। वह दूसरा आशावादी पक्ष यह है कि अमेरिका की न्यायपालिका, मीडिया, खुद उनकी पार्टी, पुलिस और यहां तक ट्विटर, फेसबुक और दूसरे सोशल प्लेटफार्मों ने भी सत्ता के सामने समर्पण नहीं किया। अपनी संवैधानिक, राष्ट्रीय जिम्मेदारी निभाई। ट्रंप से डरे नहीं। सोचिए अगर वहां की संवैधानिक संस्थाएं डरी हुई होतीं तो क्या होता? ट्रंप के समर्थकों का केपिटोल हिल (अमेरकी पार्लियामेंट) पर कब्जा हो जाता। पुलिस खामोश रहती या ट्रंप के खिलाफ लड़ी डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं को गिरफ्तार कर लेती, अदालत स्टे दे देती (अगले आदेश तक ट्रंप के बने रहने पर) और मीडिया जो बाइडेन, कमला हैरिस, डेमोक्रेट, लेफ्ट को खलनायक बना चुका होता। अमेरिका में तो ट्रंप का कब्जा रहता ही, पूरी दुनिया का लोकतंत्र डर जाता। अमेरिकी मीडिया जो पूरी दुनिया की सूचनाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कंट्रोल करता है बता रहा होता कि जो ट्रंप का रास्ता है वही सत्य का मार्ग है। ट्रंप ने अमेरिका को बचा लिया! यह कोई काल्पनिक तस्वीर नहीं है। भविष्य की चेतावनी है। जिसे अमेरिका ने समय रहते समझ लिया और अपने देश में लोकतंत्र बचा लिया। लेकिन दुनिया के किसी भी देश में इस तरह का खतरा कभी भी हो सकता है। और बचेगा वही जिसके इंस्टिट्यूशन निर्भय होंगे। समर्पण कर चुके इंस्टिट्यूशन सत्य का नहीं सत्ता का ही समर्थन करेंगे। यहां राहुल गांधी की चेतावनी याद आ रही है। उन्होंने करीब चार साल पहले कहा था “ डरो मत!“ कहा मीडिया के मुंह पर मीडिया से था मगर मैसेज सबके लिए था। राहुल की आप चाहे जितनी आलोचना कर लो मगर उनकी बेखौफी को सलाम बनता है। विपक्ष के इस पूरे दौर में राहुल न कभी डरे और न ही विनम्रता के रास्ते से डिगे। हाथरस जाते हुए उन्हें धक्का मार कर गिराया गया, और भी ऐसे वाकये हुए मगर राहुल संयमित, विनम्र रहे। और पुलिस के साथ सहयोगात्मक रवैया बनाए रखा। तो खैर डरो मत की बात भी जरूरी थी मगर यह बात चली थी अमेरिका से तो वहां ट्विटर, फेसबुक और दूसरे सोशल प्लेटफार्मों का ट्रंप को बेन करने और उनके मैसेज डिलिट करने का जो काम हुआ है वह अपने में इस समय का सबसे बड़ा संदेश है। मुख्य धारा के मीडिया के बाद सोशल मीडिया ही है जो लोगों को प्रभावित करता है, नरेटिव सेट करता है। भारत में मीडिया और सोशल मीडिया दोनों एक हैं। दोनों के बीच झूठ, नफरत, विभाजन फैलाने की होड़ लगी रहती है। कौन कितना लोगों को बांट सकता है। किसान आंदोलन के दौरान हमने देखा कि खालिस्तानी, पाकिस्तानी, देशद्रोही क्या क्या नहीं कहा गया। और जब किसानों के पारदर्शी, संयमित, शांतिपूर्ण आंदोलन के सामने यह झूठ नहीं चले तो अब एक नकली मुकाबला अन्नदाता बनाम करदाता का शुरू कर दिया। व्हाट्सएप ग्रुपों पर सुबह से मैसेज आना शुरू हो जाते है कि अगर वे अन्नदाता हैं तो हम करदाता हैं। क्या मतलब हुआ?  एक तो यह कि ट्रोलों को काम से लगाए रखना है तो उन्हें कोई न कोई टास्क देना पड़ेगा। उनके अंदर पैदा किए विभाजन के कीड़े को खाद पानी देते रहना होगा। दूसरा यह कि जनता भोली है, नासमझ है पता नहीं कब कौनसा दांव चल जाए? लोग मान ही लें कि अन्नदाता इन कथित करदाताओं के रहमो करम पर जिन्दा है। करदाता यानि इनकम टैक्स पेयी नौकरी पेशा को सामने लाया जा रहा है। उसे जिसे इस समय खुद सहायता की जरूरत है। क्योंकि अर्थव्यवस्था बहुत बुरी तरह गिर रही है। उसकी नौकरी खतरे में हैं। जिनकी नौकरी बची हैं, उनकी तनखाएं कम हो गईं हैं। बेरोजगारों के लिए कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन ऐसे में भी अगर कोई जीडीपी के बढ़ने में थोड़ी सी मदद कर रहा है तो वह कृषि सेक्टर ही है। और आरोप जो लगाने की कोशिश की जा रही है कि अन्नदाता और करदाता कोई अलग अलग समुदाय हैं। ऐसे विभाजनकारी एजेंडे को फैलाने वालों को कौन समझाए कि अन्नदाता देश का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। कपड़ा, साबुन, तेल हर चीज की खरीद पर टैक्स देता है। और जिस डायरेक्ट टैक्स की बात कर रहे हैं अगर उतना ही मासिक लाभ किसान को देने लगो तो उस पर एक परसेन्ट ज्यादा लगाकर टैक्स ले लेना! खेती जिस दिन लाभ का सौदा हो जाएगी उस दिन क्या कोई सरकार उनसे और ज्यादा टैक्स लेना छोड़ देगी। मालगुजारी या लगान क्या टैक्स नहीं है? क्या किसान से वह नहीं ले रहे? फसल कम हो, खराब हो या न हो लगान तो उससे वसूल किया ही जाता है। दूसरी तरफ यह बात खुद नौकरीपेशा मध्यम वर्ग को समझना चाहिए कि अगर वेतन न हो तो क्या उससे कोई इनकम टैक्स लेगा? क्या अप्रत्यक्ष कर टैक्स नहीं है? और ये बाजारों की रौनक, करदाता बनकर इठला रहे, फेसबुक पर फोटो डाल रहे कि मैं करदाता हूं वाले वेतनभोगी यह भूल जाते हैं कि उनकी तनखाएं भी इसी किसान के खरीद फरोख्त की चेन से आए करों से ही दी जाती है। मूल उत्पादनकर्ता तो किसान ही है। बाकी तो सब उसके उत्पादन का बाईप्रोडक्ट है। और अभी यह बात तो कही ही नहीं कि अगर किसान अनाज पैदा नहीं करे तो ये सारी कर और सबसिडी की बातें हवा हो जाएंगी। अमेरिका से गेहूं आता था। पीएल 480 के तहत। लाइन लगाए ये ही करदाता राशन की दुकान पर खड़े रहते थे और खराब लाल गेहूं लेकर जाते थे। इसी किसान की मेहनत और हरित क्रान्ति की वैज्ञानिक पहल को अपनाने में हिचक न करने की बदौलत ही आज अनाज के बाजार पर अंबानी, अडानी की आंखें लगी हुई हैं। अगर इतना भरपूर अनाज का उत्पादन नहीं होता तो क्या ये बड़े कारपोरेट इस मार्केट में कूदे होते? तो किसान के पक्ष के कोई तर्क सोशल मीडिया पर आते ही नहीं हैं। और किसान के विरोध में झूठ की नदियां बहती रहती हैं। तो अगर झूठ फैलाने के कारण अमेरिका के राष्ट्रपति का सोशल अकाउंट बंद हो सकते हैं तो बाकी जगह यह क्यों नहीं? यहां तो उलटी गंगा बहती है। सरकार से असहमति व्यक्त करने वाले किसी भी व्यक्ति की पोस्टें फेसबुक चाहे जब रोक लेता है। उस व्यक्ति की रीच कम कर देता है (कम लोगों तक पोस्ट पहुंचने देता है)। कई दिनों के लिए पोस्ट करने पर प्रतिबंध लगा देता है। ऐसे ही ट्विटर विपक्ष के नेताओं के ट्विट दबाने लगता है। खुलते ही उपर न आकर काफी नीचे पहुंचा देता है। फोलोअर कम कर देता है। लेकिन गाली गलौज, करने वाले ट्रोलों पर कोई नियंत्रण नहीं है। तो अमेरिका को इसलिए सलाम कि वहां के इंस्टिट्युशन द्वारा अपनी जिम्मेदारी से नहीं भागने और जनता द्वारा सही और गलत का विवेक कायम रखने के कारण वहां ट्विटर और फेसबुक जैसी प्राइवेट कंपनियों को भी न्याय के पथ पर चलना पड़ा। जहां लोग और संस्थाएं सचेत होंगे वहां लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं। और लोकतंत्र को खतरा नहीं है तो देश को भी नहीं है!
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