
पिछले चुनाव में भाजपा ने विकास और सांप्रदायिक मुद्दों को बेअसर देख कर अंत में कानून व्यवस्था का नारा यों ही नहीं दिया था। इस नारे ने सवर्णों से ज्यादा गैर यादव पिछड़ी जातियां, दलित मतदाताओं पर यह मुद्दा काम किया। बसपा की कमजोरी को देख कर दलितों ने भी सपा राज के वापस आने के भय से कई जगहों पर भाजपा को वोट दे दिया।
लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव
उत्तर प्रदेश की राजनीति करीब तीन दशक के बाद एक नए दौर से गुजर रही है। हांलाकि 2017 में हुए विधानसभा चुनाव से ही इसके संकेत दिखने लग गए थे। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने प्रदेश की राजनीतिक में हो रहे बदलावों को और स्पष्ट कर दिया है। इन चुनाव नतीजों के बाद से साफ दिखाई दे रहा है कि करीब तीन दशक तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभाने वाले दोनों क्षेत्रीय दल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का राजनीतिक परराभव शुरू हो गय़ा है। परिवर्तन का यह चरण 1989 में हुए राजनीतिक बदलाव से अलग है।
इसकी वजह से ही सपा और बसपा के कम से कम अगले लोकसभा और 2027 के विधानसभा चुनाव तक दोबारा खड़े होने की संभावना नहीं दिखाई दे रही है। इनके खाली किए जा रहे रिक्त स्थान के लिए दूसरी पार्टियों में संघर्ष शुरू हो गया है। 2022 के चुनाव में हांलाकि समाजवादी पार्टी ने अपनी सीट और वोटों का प्रतिशत में अच्छा खासा इजाफा किया है। पर उसकी इस सफलता की वजह दूसरी है। यह चुनाव सीधा था। आमने सामने का। इस चुनाव में पहली बार यादव और मुस्लिम मतदाताओँ का एक साथ, एकजुट ,एकतरफा वोट सपा को मिला था।1952 से ले कर 2017 तक मुस्लिम वोट इस तरह से एकजुट, एक तरफा कभी नहीं पड़ा था। वह बंटते रहे हैं। फिर भाजपा की सत्ता के खिलाफ प्रदेश में जबरदस्त असंतोष भी था।
चुनाव के बाद सपा में भीतरी घमासान यों ही नहीं शुरू हो गया है। आजम खान और उनके बेटे यों ही नहीं शिकायत दर्ज करने लगे हैं। उतर प्रदेश के मंजे नेताओं को प्रदेश में बदलते जाति समीकरण और उनके असर का अंदाज है। वे समझ रहे हैं कि नेता और जाति पर आधारित कुछ क्षेत्रीय पार्टियां भले ही सपा के साथ आ गईं थी, पर अतिपिछड़ी और अति दलित जातियों के मतदाता सपा और बसपा के साथ अब नहीं खड़े हैं। निकट भविष्य में उनके वापस आने की संभावना भी नहीं है। इसकी वजह भी है।
मुस्लिम नेताओं और मतदाताओं को यह भी अहसास है कि केवल उनके और यादव मतदाताओं के दम पर सपा भाजपा को हटा कर सत्ता में नही आ सकती। प्रदेश में गैर यादव, खासकर अति पिछड़ी जातियों ने सपा से दूरी बना ली है। यह सपा की सत्ता की में जो गलतियां हुई थी उसका दूरगामी असर है। वे बसपा की खत्म होती ताकत को भी देख रहे हैं। उन्हें अब इन दोनों पार्टियों की जगह किसी तीसरे विकल्प की तलाश है जो भाजपा को प्रदेश में और केंद्र में टक्कर दे सके। हांलाकि सपा के राज में व्याप्त अराजकता की वजह से दूसरी पिछड़ी जातियां भड़की हैं उसमें यादवों के साथ मुस्लिम स्थानीय नेताओं का भी पूरा योगदान रहा। अतिपिछड़ी और दलित जातियों में 2012-2017 के बीच अखिलेश यादव के राज में जो भय बना, वह अभी तक नहीं गया है। अतिपिछड़ी जातियों में इस बात से भी नाराजगी बढ़ रही थी कि आरक्षण का फायदा मुख्यरूप से यादव, कुर्मी, लोध और कुशवाहा जैसी प्रभावशाली जातियों को मिल रहा है, उन्हें नही।
इस भावना को हवा देने में भाजपा ने भी अहम भूमिका निभाई थी। यह राजनीतिक खेल राजनाथ सिंह की सरकार के समय शुरू हुआ था। भाजपा को इसका फाएदा भी मिला। प्रदेश में पिछले दोनों विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रदेश और केंद्र में सत्ता हिंदुत्व या सरकार के कामकाज पर नहीं मिली थी। प्रदेश के अतिपिछड़ों के 27 प्रतिशत वोट ने उनकी सीटो और वोट प्रतिशत को बढ़ाया है।
गैर-यादव पिछड़ी जातियों में सपा के खिलाफ उठ रहे इस आक्रोश का पहला संकेत मुझे 2017 के विधानसभा चुनाव में मिल गया था। चुनाव कवरेज के दौरान लखनऊ, रायबरेली, अमेठी, फैजाबाद से होते हुए मैं जब अकबरपुर पहुंचा तो मैंने अपनी टैक्सी सड़क के किनारे सटे एक गांव की तरफ मुड़वा दी। गांव के बगीजे में पत्ते बटोर रही दो तीन महिलाओं से चुनाव के बारे में पूछताछ की तो उन्होंने कोई जबाब नहीं दिया। उधर से साइकिल पर गुजर रहे एक व्यक्ति को रोक कर मैंने पूछताछ शुरू की। जाति से वह कहार था। पहले तो उसने झिझक जाहिर की, फिर कहा इस बार वह और उसके घर वाले भाजपा को वोट देंगे। इसके पहले कवरेज के दौरान मुझे जिन लोगों ने कहा वें भाजपा को वोट देंगे, उसके काम की वजह से देंगे, वे पूछने पर केंद्र सरकार का कोई काम ठीक से गिना नही पा रहे थे, बस 70 साल की गलतियों और सोशल मीडिया में दिए इस तरह भाषणों को ही तर्क बनाते।
पर इस बिना पढ़े लिखे गांव के व्यक्ति ने ना केवल भाजपा के काम के बारे में बताया बल्कि इस बात की भी ठोस वजह बताई कि वह हर बार की तरह सपा को इस बार वह क्यों नहीं वोट दे रहा है। मोदी सरकार के काम के बारे में उसने कहा पहली बार उसे खाद और बीज समय से मिल रहे हैं। मकान के लिए पैसा मिला है। फिर उसने कहा कि “यूपी में सपा के शासन में पांच साल तक अहीरो(यादव) और मुसलमानों का राज रहा। आप प्रदेश के किसी थाने में चले जाईए, वहां यादव या मुस्लिम ही थानेदार मिंलेंगे। हमारी कोई सुनवाई नहीं होती। इन लोगों के खिलाफ जिला दफ्तरों में भी सुनने वाला की नहीं है।“ उसने इस संबंध में दो तीन घटना का ब्यौरा भी दिया।
इस व्यक्ति ने मुझे एक नई लाईन दी थी। एक नया मुद्दा बताया था। अकबरपुर से निकलने के बाद मैंने कई क्षेत्रों में गैर यादव पिछड़ी जाति के लोगों से इस लाइन पर बात की तो सभी का तकीरबन जबाब वही था जो अकबरपुर में उस कहार ने बताया था। उन्होंने भी कई ऐसी घटनाएं बताई। यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल नहीं था कि अखिलेश के पांच साल के शासन में यादव-मुस्लिम दंबगों की वजह से सवर्ण से ज्यादा अति पिछड़े, दलित, कमजोर वर्ग के लोग परिशान रहे। वे ऊंची जातियों की तरह सामाजिक आर्थिक तौर पर मजबूत नहीं है और ना ही ऐतिहासिक रूप से अपनी सुरक्षा करने के लिए सक्षम। इसके लिए उन्होंने सदियों से अपनी सुरक्षा के लिए सवर्णों की तरफ देखा था। इसीलिए 1989 के पहले तक ये जातियां कांग्रेस, जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टियों, संसोपा में बंटी थी।
1989 में मंडल के विरोध में ऊंची जातियों नें जब आरक्षण के विरोध में एकजुट हो कर आवाज उठाई तो ये भी पिछड़ों की एकजुटता में शामिल हो गए। सपा को कई वर्षों तक इसका फाएदा मिला। कुछ अतिपिछड़ी जातियां बसपा के साथ गई। मुसलमानों में जो अति पिछड़ी जातियां थी उनमें से कई बसपा के साथ गई। इन सामाजिक समीकरण की वजह से सपा और बसपा को कई बार प्रदेश की सत्ता में आने का मौका मिला। केंद्रीय राजनीति में भी ये दोनों 30 सालों तक महत्वपूर्ण बनी रही।
2022 के चुनाव में जिस दिन बलिया के विधानसभा क्षेत्रों में मतदान था, उस दिन सुबह मैने अपने गांव फोन किया। दलित परिवार के एक युवक से पूछा तो उसका जवाब था भईया यहां बसपा का उम्मीदवार कमजोर है। हमारी बिरादरी ने इसलिए भाजपा को वोट देने का फैसला किया है। मैंने पूछा भाजपा को क्यों? उस पर तो दलित उत्पीड़न का आरोप लगाते रहे हैं। इस पर उसका दो टूक जबाब था- “भईया इ सब फिर से आ जांएगे तो जीना दूभर कर देंगे। अभी ही से अहीर लोग कहना शुरू कर दिए हैं, कि घबराओं मत, तीन चार दिन इंतजार करो। फिर से हम सत्ता में आ रहे हैं।“ उसने यह भी खबर दी कि दो दिन पहले बगल के गांव में ज्योतिबा फूले की मूर्ति इन सबों ने तोड़ दी है।
पिछले चुनाव में भाजपा ने विकास और सांप्रदायिक मुद्दों को बेअसर देख कर अंत में कानून व्यवस्था का नारा यों ही नहीं दिया था। इस नारे ने सवर्णों से ज्यादा गैर यादव पिछड़ी जातियां, दलित मतदाताओं पर यह मुद्दा काम किया। बसपा की कमजोरी को देख कर दलितों ने भी सपा राज के वापस आने के भय से कई जगहों पर भाजपा को वोट दे दिया।
भाजपा के एक वरिष्ठ सांसद ने कुछ दिनों पहले बातचीत में यह कहा कि विधानसभा चुनाव में कानून व्यवस्था के नारे ने ही भाजपा की ज्यादा मदद की। मुफ्त राशन ने? इस पर उनका कहना था कि मुझसे या किसी भाजपा वाले से आन रिकार्ड पूछिएगा तो वह मुफ्त राशन को ही जीत की मुख्य वजह बताएगा। यह पीएम की योजना थी, सो सबको यही बताना है। उन्होंने यह भी कहा कि मुफ्त राशन का सबसे ज्यादा लाभ किसी समुदाय विशेष को मिला है तो वह मुस्लिम परिवार था। यह इतना बड़ा फैक्टर रहता तो वे भी वोट देते।
अखिलेश यादव शायद अपनी सत्ता के आखिरी सालों में यह गलती समझ गए थे। उन्होंने गलती सुधारने की कोशिश भी की। पर देर हो चुकी थी। 2017 का चुनाव बुरी तरह हार गए। 2022 के चुनाव में अखिलेश ने एक बार फिर कोशिश की और इन वोटों को जोड़ने के लिए ओम प्रकाश राजभर, दारासिह चौहान, राजकुमार सैनी, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं से समझौता किया। पर ये नेता अपनी जातियों के वोट सपा को नहीं दिला पाए। ऐसा भी नहीं था भाजपा की पिछली सत्ता से अति पिछड़े और उनके नेताओं खुश थे। ऐसा रहता तो चुनाव के ऐन पहले अति पिछड़ें के नेताओं में भगदड़ नहीं होती। ना ही अपना दल और निषाद पार्टी जैसे दल भाजपा का हाथ मरोड़ कर सीटों पर समझौता करने में सफल हो जाते। अति पिछड़ी जातियां डरी थी और भाजपा ने कानून व्यवस्था का लगातार मामला उठा कर उन्हें अखिलेश शासन की याद दिलाई। इन मतदाताओं के पास कोई विकल्प नहीं था।
उत्तर प्रदेश सरकार की सूची में पिछड़ी जातियों में नवासी जातियां हैं। जाति के आधार पर 1931 के बाद कोई जनगणना नहीं हुई, लेकिन यह माना जाता है कि प्रदेश की कुल आबादी की करीब 42 प्रतिशत आबादी पिछड़ी जातियों की है। यादव, कुर्मी, लोध, जाट, कुशवाहा जैसी प्रभावशाली पिछड़ी जातियों को छोड़ दिया जाए तो इनमें राजभर, कहार, केवट, मल्लाह, बिंद, तेली, लोहार, कुम्हार, चौरसिया, बघेल, गोसाई, बढ़ई, नोनिया, धुनिया, माली, हज्जाम, बारी, गड़ेरिया, बिंद जैसी अतिपिछड़ी जातियों की आबादी करीब 27 प्रतिशत हैं।
इसीतरह प्रदेश की आबादी के 21 प्रतिशत दलितों में जाटव जनसंख्या में अधिक होने की वजह से राजनीति में अभी तक वें ही सबसे अधिक प्रभावशाली रहें थे। जाटव के बाद दलितों में पासी की आबादी ज्यादा है। इसके बाद धोबी,खटिक,वाल्मिकी, डोम, मूसहर, बांसफोर, धांगर, सांसिया, बहेलिया वगैरह करीब 70 दलित जातियां हैं। अति पिछड़ों की तरह इनमें राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है। अति पिछड़ी जातियों की तरह गैर जाटव दलितों को भी अब राजनीतिक में हिस्सेदारी और सत्ता में भागीदारी चाहिए।
राजनीतिक सत्ता में भागीदारी की आंकाक्षा की वजह से ही अपना दल, निषाद पार्टी, भारतीय सुहैलदेव जनता पार्टी,, शोषित समाज पार्टी, मूसहर मंच, भारत मानव समाज पार्टी, पृथ्वीराज जनशक्ति पार्टी, महान दल, भारतीय वंचित पार्टी, जनअधिकार पार्टी,राष्ट्रीय उदय पार्टी, आजाद समाज पार्टी जैसे करीह पचासों राजनीतिक दल प्रदेश में खड़े हो गए है। ज्यादातर जाति के आधार पर बने है। ज्यादातर पार्टियों के नेता सार्वजनिक मंचों पर जाति और उनकी आबादी के आधार पर सत्ता में भागीदारी की मांग कर रहे है। यह राजनीति का नया दौर है। हांलाकि राममनोहर लोहिया ने 1953 में ही इस दूसरे चरण की भविष्यवाणी कर दी थी।
जाहिर है गैर यादव पिछड़ों और गैर जाटव दलितों के अलगाव के बाद मुस्लिम मतदाताओं ने भी ने अगर दूसरा विकल्प ढ़ूढ़ लिया तो सपा और बसपा भी एक छोटे से क्षेत्रीय दल में बदल जाएंगे। उधर भाजपा भी यह जानती है कि इस चुनाव में अति पिछड़ों और दलितों का मिला 20 से 30 प्रतिशत वोट उसका स्थायी वोट बैंक नहीं है। यह एक परिवर्तन से उभरा नया वोट बैंक है, जिसका अपना नेतृत्व तैयार हो गया है। यह आक्रमक है, सत्ता में भागीदारी के अलावा उसे अब किसी झुनझुने से मनाया नहीं जा सकता है। वह सत्ता में भागीदारी के लिए किसी पार्टी से सौदेबाजी कर सकता है। इसीलिए इस बदलती राजनीतिक परस्थिति में भाजपा को इस मामले में कांग्रेस से ज्यादा खतरा दिखाई दे रहा है। प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदगी ना के बराबर होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के दूसरे नेताओं के आक्रमण का मुख्य निशाना बिलावजह कांग्रेस नही है।