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चिली बनेगा नव-उदारवाद की कब्रगाह?

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चिली बनेगा नव-उदारवाद की कब्रगाह?
छात्र राजनीति से उभरे 35 वर्षीय बोरिच ने इस बार के चुनाव अभियान में एक खास वादा किया। उन्होंने कहा- ‘चिली नव-उदारवाद की जन्म स्थली बना था, अब यही उसकी कब्रगाह बनेगा।’… सवाल यह है कि क्या बोरिच गुणात्मक बदलाव के लिए क्या जन संघर्ष और जनता का सक्रिय हस्तक्षेप बनवा पाएंगे? जनता के बड़े वर्ग को प्रेरित और उत्साहित कर पाएंगे?  चिली वामपंथी राष्ट्रपति चुनने वाला इस साल 2021 का तीसरा लैटिन अमेरिकी देश है। चिली के इतिहास की वजह से गैब्रियाल बोरिच का वहां राष्ट्रपति चुना जाना कुछ अधिक खास है। लैटिन अमेरिका में चिली ही पहला देश था, जहां पहली बार एक सोशलिस्ट नेता को राष्ट्रपति चुना गया था। 1970 में सल्वाडोर आयेंदे वहां राष्ट्रपति बने थे, जिनकी 1973 में सैनिक तख्ता पलट में हत्या कर दी गई थी। अब यह एक स्थापित तथ्य है कि चिली की सेना के एक हिस्से ने अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के सहयोग से आयेंदे को सत्ता से हटाने की साजिश तब रची थी। छात्र राजनीति से उभरे 35 वर्षीय बोरिच ने इस बार के चुनाव अभियान में एक खास वादा किया। उन्होंने कहा- ‘चिली नव-उदारवाद की जन्म स्थली बना था, अब यही उसकी कब्रगाह बनेगा।’ इस वादे का ऐतिहासिक संदर्भ यह है कि जब सेना ने आयेंदे की हत्या करते हुए सोशलिस्ट सरकार का तख्ता पलटा, तो उसके बाद सत्ता संभालने वाले सैनिक तानाशाह अगस्तो पिनोशे ने बेलगाम ढंग से नव-उदारवादी नीतियों को चिली में लागू किया था। आयेंदे का छोटा शासनकाल राष्ट्रीयकरण और जन कल्याण के कार्यक्रमों की शुरुआत के लिए जाना जाता है। पिनोशे ने उन तमाम नीतियों को पलटते हुए नव-उदारवाद के अमेरिकी पैरोकारों की देखरेख में अंधाधुंध निजीकरण की नीति अपनाई। इसके विरोध को उन्होंने बेरहमी से कुचला। उस दौरान चिली में मानव अधिकारों के हुए हनन की हृदय विदारक कहानियां अब विश्व इतिहास का हिस्सा हैं। पिनोशे ने उस समय नव-उदारवादी नीतियों को लागू किया, जब अभी अमेरिका और ब्रिटेन में रोनाल्ड रेगन और मार्गरेट थैचर का युग नहीं आया था। इन दोनों नेताओं को ही दुनिया में नव-उदारवाद के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। बहरहाल, इसी संदर्भ के कारण गैब्रियाल बोरिच की यह टिप्पणी दुनिया के भर के मीडिया में सुर्खी बनी कि उनके जीतने पर चिली में नव-उदारवाद की कब्र खोदी जाएगी। वैसे उनके इस वादे का एक दूसरा संदर्भ भी है। चिली में 2019 और 2020 में शक्तिशाली नव-उदारवाद विरोधी आंदोलन चला। यहां तक कि कोरोना महामारी के दौरान लागू हुए प्रतिबंध भी इस आंदोलन की धार कमजोर करने में नाकाम रहे। आखिरकार 2020 में तत्कालीन राष्ट्रपति सिबैस्टियन पिनेरा ने आंदोलनकारियों की यह मांग मान ली कि देश में नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का चुनाव कराया जाएगा। यह चुनाव इस वर्ष मई में कराया गया। इसमें उन दलों और संगठनों को बहुमत प्राप्त हुआ, जो नव-उदारवाद के विरोधी रहे हैँ। संविधान सभा के इस चुनाव नतीजे का एक असर यह हुआ कि देश के पूंजीपति, धनी-मानी, और दक्षिणपंथी तबकों में उसकी जोरदार प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने उस जनादेश को नाकाम करने के लिए राष्ट्रपति चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इसी का परिणाम था कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए हुए मतदान के पहले चरण में धुर-दक्षिणपंथी और खुद को पिनोशे का वारिस बताने वाले जोस एंतोनियो कास्त पहले नंबर रहे। कास्त ने घोषित रूप से डॉनल्ड ट्रंप और ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोलसोनारो का अपना आदर्श बताया था। जाहिर है, इससे चिली के प्रगतिशील हलकों में चिंता गहरा गई थी। आशंका यह थी कि कास्त के विजयी होने पर संविधान सभा के लिए प्रगतिशील संविधान बना कर देश पर लागू कर पाना बेहद कठिन हो जाएगा। साथ ही देश में ट्रंप और बोलसोनारो जैसा शासन कायम होने का अंदेशा भी गहरा गया था। इसीलिए 19 दिसंबर को हुआ दूसरे चरण का मतदान चिली की प्रगतिशील ताकतों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था। उन्हें इस बात का श्रेय देना होगा कि आपसी मतभेदों को भुलाते हुए वे तमाम ताकतें बोरिच के पीछे खड़ी हुईं। नतीजतन, बोरिच 55।9 फीसदी वोट पाकर लगभग 11 फीसदी के अंतर से विजयी हुए। इस तरह अब वे उस स्थिति में हैं, जब वे चिली को नव-उदारवाद की कब्र बना सकते हैँ। लेकिन क्या वे सचमुच ऐसा करेंगे या कर पाएंगे? यह सवाल कुछ उनके अपने नजरिए और कुछ लैटिन अमेरिका में वामपंथ के प्रयोग- दोनों के अनुभवों से खड़ा होता है। इस साल जुलाई में पेरू में पहली बार पेड्रो कास्तियो के रूप में एक वामपंथी राष्ट्रपति चुना गया। कास्तियो शिक्षक थे और टीचर्स यूनियन में काम करते हुए उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। वे घोषित तौर पर अपने को मार्क्सवादी बताते हैँ। जब वे चुनाव लड़ रहे थे, तब उनकी सादगी भरी जीवन शैली काफी चर्चित हुई थी। लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद उनके तेवर पहले जैसे नहीं रहे हैँ। बल्कि पिछले चार महीनों का उनका कार्यकाल समझौतों से भरा रहा है। यहां तक कि देश के शासक वर्ग नियंत्रित संस्थाओं से समझौता करते हुए वे अपने उन खास सोशलिस्ट सहयोगियों को त्याग दिया, जिन्हें खुद उन्होंने ही मंत्री नियुक्त किया था। आज नतीजा यह है कि जनमत सर्वेक्षणों में कास्तियो की लोकप्रियता का स्तर गिर कर 28 फीसदी पर आ गया है। पेरू में जो हुआ है, वह व्यक्तिगत रूप से कास्तियो या उनकी निष्ठा पर सवाल नहीं है। सवाल चुनावी जरिए से सत्ता में आने के बाद होने वाले तजुर्बों पर है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे। बहरहाल, जिस एक अन्य लैटिन अमेरिकी देश ने इस साल लेफ्ट राष्ट्रपति चुना, वह होंडूरास है। वहां जियोमारा कास्त्रो तीन हफ्ते पहले राष्ट्रपति चुनी गई हैँ। अभी उनका कार्यकाल औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुआ है। कास्त्रो पूर्व वामपंथी राष्ट्रपति मैनुएल जेलाया की पत्नी हैं। जेलाया को 2009 में सैनिक तख्ता पलट के जरिए राष्ट्रपति पद से हटा दिया गया था। फिलहाल, इस क्षेत्र के एक और बड़े देश अर्जेंटीना में भी वामपंथी सरकार है। होंडूरास में जेलाया उस दौर में राष्ट्रपति बने थे, जिसे लैटिन अमेरिका में पिंक रिवोल्यूशन (बताया जाता है कि लैटिन अमेरिका के वामपंथी इस शब्द को पसंद नहीं करते) का दौर कहा जाता है। बहरहाल, वेनेजुएला में उगो चावेज के सत्ता में आने के साथ शुरू हुई वो परिघटना तब पेरू और कोलंबिया को छोड़ कर दक्षिण और मध्य अमेरिका के ज्यादातर देशों में फैल गई थी। चिली में भी तब सॉफ्ट लेफ्ट की ताकतें सत्ता में आई थीं। लेकिन फिर अधिकांश देशों में दक्षिणपंथ ने पलटवार किया। कहीं चुनाव के जरिए, तो कहीं सत्ता पलट और कहीं संवैधानिक प्रावधानों के ज्यादती भरे इस्तेमाल के जरिए उन्होंने वामपंथी पार्टियों और नेताओं को सत्ता से हटा दिया। जो देश इस परिघटना का अपवाद रहे हैं, वे वेनेजुएला और निकरागुआ हैँ। बोलिविया में भी थोड़े समय के लिए सैनिक तख्ता पलट हुआ, हालांकि साल भर के अंदर 2020 में वहां मूवमेंट फॉर सोशलिज्म पार्टी सत्ता में लौट आई। तब से इस क्षेत्र में ट्रेंड पलटा है, जिसके तहत इस साल पेरू, होंडूरास और अब चिली का चुनाव नतीजा आया है। अब 2022 में इस क्षेत्र में आबादी के लिहाज से दो बड़े देशों- ब्राजील और कोलंबिया में चुनाव होने हैं। साल के मध्य में कोलंबिया में चुनाव होगा, जहां पहली बार वामपंथी ताकतें मजबूत स्थिति में दिख रही हैँ। मुमकिन है कि इस बार कोलंबिया के इतिहास में पहली बार वे सत्ता में आने में सफल रहेँ। बहरहाल, दुनिया का ध्यान उससे भी अधिक ब्राजील पर टिका है, जहां अक्टूबर में राष्ट्रपति पद का चुनाव होगा। लूला के नाम से मशहूर पूर्व राष्ट्रपति लुइज इनेशिया लूला दा सिल्वा इस बार फिर से मैदान में हैं और उनके जीतने की संभावना उज्ज्वल मानी जा रही है। बहरहाल, अब ये पूरी परिघटना दो दशक से ज्यादा पुरानी हो चुकी है। इस दौरान वामपंथी सरकारें बनीं और हटी या हटाई गई हैं। तो इस सिलसिले में ये सवाल अहम है कि आखिर इस पूरी परिघटना को कैसे देखा जाना चाहिए? अथवा, इनका कुल अनुभव कैसा रहा है और उससे क्या सबक लिया जा सकता है? लेकिन इन प्रश्नों पर विचार करने से पहले जरूरी यह है कि लैटिन अमेरिकी वामपंथ के चरित्र (character) की एक समझ बनाई जाए। अपने-आप में वामपंथ एक भ्रामक शब्द है। यह एक रिलेटिव (सापेक्ष) शब्द है। यानी धुर दक्षिणपंथी माहौल में अपेक्षाकृत कम दक्षिणपंथी सोच वाले व्यक्ति को भी वहां के संदर्भ में वामपंथी कहा जा सकता है। दरअसल, इसी रूप में इस शब्द का इस्तेमाल होता है। अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव की बहुचर्चित सदस्य अलेक्जेन्ड्रिया ओकासियो कॉर्तेज (एओसी) ने एक बार कहा था कि अगर वे किसी यूरोपीय देश में होतीं, तो अपने वर्तमान रुख के साथ वहां कंजरवेटिव या दक्षिणपंथी की सदस्य होतीं। जबकि अमेरिका में एक तो डेमोक्रेटिक पार्टी को ही प्रोग्रेसिव समझा जाता है, और दूसरे एओसी उसके भी प्रोग्रेसिव माने जाने वाले धड़े से संबंधित हैं। लैटिन अमेरिकी लेफ्ट के साथ भी ये बात लागू होती है। वहां अलग-अलग देशों में जिन समूहों को लेफ्ट कहा जाता है, उनकी नीतियों और समझ में फर्क है। अगर चिली की ही बात करें, तो ग्रैब्रियाल बोरिच और वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच गहरे मतभेद हैं। कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रपति चुनाव में अपना उम्मीदवार उतारा था। लेकिन उसे बोरिच से कम वोट मिले, इस कारण दूसरे चरण में उसने बोरिच को अपना समर्थन दिया। जिन बिंदुओँ पर कम्युनिस्ट पार्टी और बोरिच की पार्टी फ्रेंते एमप्लियो के बीच मतभेद हैं, उनमें क्यूबा, वेनेजुएला और निकरागुआ के प्रति नजरिया भी है। इन देशों में मानव अधिकारों की स्थिति को लेकर अमेरिका की जो आलोचनाएं हैं, बोरिच मोटे तौर पर उनसे सहमत हैँ। ऐसा संभवतः इसलिए है कि बोरिच की समझ में लैटिन अमेरिका में मुख्य अंतर्विरोध वहां की जनता और अमेरिकी साम्राज्यवाद के बीच नहीं है। जबकि कम्युनिस्ट पार्टी की यही समझ है। क्यूबा (जहां क्रांति के माध्यम से कम्युनिस्ट सरकार बनी थी), वेनेजुएला और निकरागुआ की सरकारों ने साम्राज्यवाद के प्रति स्पष्ट और जूझारू नजरिया अपनाए रखा है। अब हकीकत यह है कि क्यूबा में पिछले छह दशक से कम्युनिस्ट पार्टी अपनी लोकप्रियता कायम रखते हुए सत्ता में है। वेनेजुएला और निकरागुआ की सरकारें भी डेढ़ दशक से अधिक समय सत्ता में हैं।  बोलिविया को भी इनके साथ रखा जा सकता है, जहां मूवमेंट फॉर सोशलिज्म पार्टी की लोकप्रियता अक्षुण्ण रही है। इस पार्टी का क्यूबा, वेनेजुएला और निकरागुआ के प्रति रुख लगातार दोस्ताना रहा है। इन चारों देशों की सरकारों ने अर्थव्यवस्था में सरकार की प्रमुख भूमिका, राष्ट्रीयकरण एवं पब्लिक सेक्टर को तरजीह, और जन कल्याण पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करने को अपनी नीति अपनाए रखी है। जबकि अन्य देशों की वामपंथी सरकारें मोटे तौर पर नव-उदारवादी या पूंजीवादी ढांचे को जैसा का तैसा छोड़ कर राजकोष का अधिक हिस्सा जन कल्याण पर खर्च करने की नीति पर चली हैं। इसका परिणाम यह होता है कि समाज के वर्गीय चरित्र में बहुत कम बदलाव आता है। मीडिया सहित सत्ता के ज्यादातर केंद्रों पर पारंपरिक शासक वर्ग काबिज रहता है। इससे वह राजनीति का नैरेटिव सेट करने में सक्षम बना रहता है। इसके बीच जैसे ही किसी वजह से वामपंथी सरकार की लोकप्रियता में गिरावट आती है या शासक वर्ग बनावटी रूप से ऐसा करने में सफल हो जाता है, वह उस सरकार को हटाने की मुहिम छेड़ देता है। इस सदी में कथित पिंक लहर के हिस्से के रूप में सत्ता में आईं ज्यादातर सरकारों के साथ ऐसा हुआ है। इसीलिए बोरिच का इस वादे से सबसे ज्यादा ध्यान खींचा कि वे चिली को नव-उदारवाद की कब्रगाह बना देंगे। और इसीलिए वह सवाल भी प्रासंगिक बना हुआ है कि क्या वे सचमुच ऐसा कर पाएंगे? अब तक के अनुभव के आधार पर यह जरूर कहा जा सकता है कि अगर बोरिच अपने वादे को लेकर गंभीर हैं, तो उन्हें कमोबेश उन्हीं लैटिन देशों के रास्ते पर चलना होगा, जिनकी सोशलिस्ट सरकारों के वे अब तक आलोचक हैं। यह निर्णायक प्रश्न यह होगा कि वे अपेक्षाकृत लेफ्ट की अपनी छवि के साथ संतुष्ट रहते हैं या सोशलिस्ट नीतियों को गले लगाते हैँ। अगर उन्होंने सोशलिस्ट नीतियों को गले लगाया, तो मुमकिन है कि उनकी नरम छवि की वजह से उनके पक्ष में आए कुछ मतदाता उनसे विदक जाएं। लेकिन उससे सोशलिस्ट- कम्युनिस्ट ताकतों की एक बड़ी एकता का भी वे सूत्रपात कर सकते हैं, जैसाकि सल्वादोर आयेंदे ने किया था। बोरिच चाहें, तो अपने पड़ोसी देश अमेरिका में खुद को डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट कहने वाले नेता बर्नी सैंडर्स के एक पुराने कथन को याद कर सकते हैं। सैंडर्स जब राष्ट्रपति चुनाव के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी हासिल करने के अभियान में जुटे थे, तब उन्होंने दो टूक कहा था कि अगर वे ह्वाइट हाउस में पहुंच गए, तब भी वे कोई गुणात्मक बदलाव तभी ला पाएंगे, अगर उनके समर्थक उसके लिए लगातार सड़कों पर उतरते रहे। स्पष्टतः अपने लंबे राजनीतिक करियर के अनुभव से सैंडर्स ने इतना जान और सीख लिया है कि चुनावी लोकतंत्र में महज वोटों के एक अंतर से जीत जाना बदलाव लाने के लिहाज से काफी नही होता। ऐसी लोकतांत्रिक प्रणालियों में व्यवस्था के मूल चरित्र को कायम रखने के लिए अवरोध और संतुलन के इतने तगड़ी इंतजाम हैं कि मजबूत और ईमानदार इच्छाशक्ति के बावजूद उन्हें भेद पाना किसी नेता या पार्टी के संभव नहीं होता। इसलिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी गुणात्मक बदलाव का रास्ता सिर्फ जन संघर्ष और जनता के सक्रिय हस्तक्षेप से ही निकलता है। असल सवाल यह है कि क्या बोरिच जनता के बड़े वर्ग को अपनी सॉफ्ट लेफ्ट की इमेज के साथ इसके लिए प्रेरित और उत्साहित कर पाएंगे? तो फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि चिली की जनता ने एक विकल्प चुना है। वहां इसका क्या अनुभव रहता है, उसे देखने पर सारी दुनिया की उन शक्तियों की निगाह रहेगी, जो नव-उदारवाद के चक्रव्यूह से अपने समाजों को निकालना चाहती हैँ।
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