कुछ ऐसे ही छोटे पेड़-पौधों की तरह किसी समय देश की राजनीति में बेहद ऊंचाई पर पहुंचने वाले गुलाम नबी आज़ाद अपने आप को फिर से राजनीति के केंद्र में स्थापित करने के लिए छटपटा रहे हैं। लेकिन समस्या यह है कि न तो अब कांग्रेस जैसे विशाल बरगद के पेड़ का सहारा उनके पास है और न ही उनके पास दूसरा कोई मज़बूत पेड़ है जिसके सहारे खुद को व अपनी नवगठित पार्टी को खड़ा कर सके।
जम्मू से मनु श्रीवत्स
कई बेलनुमा पौधे-टहनियां एक विशाल बरगद के सहारे अक्सर ऊपर चढ़ जाते हैं। भयंकर आंधी तूफ़ान में भी बरगद की मदद से ऐसे छोटे बेलनुमा पौधों को कोई नुक़सान नही पहुंचता,जिस कारण अक्सर उन्हें गुमान होने लगता है कि बरगद नही दरअसल वे खुद बहुत ही ताकतवर हैं । मगर ऐसे छोटे पेड़ों व बेलनुमा पौधों की ख़ुशफहमी उस समय दूर होने लगती है जब अपने बलबूते पर बिना बरगद की ताकत के आंधी-तूफ़ान का मुकाबला करना पड़ता है। तेज़ आंधी-तूफ़ान तो क्या सामान्य हवा के आगे भी ऐसे छोटे पेड़-पौधे फिर ठहर नहीं पाते।
कुछ ऐसे ही छोटे पेड़-पौधों की तरह किसी समय देश की राजनीति में बेहद ऊंचाई पर पहुंचने वाले गुलाम नबी आज़ाद अपने आप को फिर से राजनीति के केंद्र में स्थापित करने के लिए छटपटा रहे हैं। लेकिन समस्या यह है कि न तो अब कांग्रेस जैसे विशाल बरगद के पेड़ का सहारा उनके पास है और न ही उनके पास दूसरा कोई मज़बूत पेड़ है जिसके सहारे खुद को व अपनी नवगठित पार्टी को खड़ा कर सके।
उलेल्खनीय है कि गुलाम नबी आज़ाद ने गत 26 अगस्त को कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। मगर कांग्रेस को छोड़ने के तीन महीने बीत जाने के भीतर ही आज़ाद का कठीन ज़मीनी हकीकतों से वास्ता पड़ने लगा है। एक नई पार्टी को कैसे खड़ा किया जाता है और सबको साथ लेकर संगठन कैसे चलाया जाता है यह जानने समझने में अभी से ही आज़ाद की सांस फूलने लगी है।
दो महीने बाद भी नही मिला पार्टी को नाम
कांग्रेस छोड़ने के ठीक एक महीने बाद गत 26 सितंबर को गुलाम नबी आज़ाद ने बहुत ही ज़ोर-शोर से अपनी नई पार्टी बनाने की घोषणा की थी। इस नवगठित राजनीतिक दल में बड़ी संख्या में प्रदेश कांग्रेस के नेता पार्टी छोड़ कर शामिल हो गए थे। आज़ाद ने अपनी पार्टी का नाम रखा ‘डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी’ लेकिन दो महीनों के अंदर ही अचानक ‘डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी’ नाम को बदल दिया गया और पार्टी का नया नाम ‘प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी’ रख दिया गया।
इस सिलसिले में आज़ाद की पार्टी की तरफ़ से गत 13 नवंबर को कुछ स्थानीय अख़बारों में आम लोगों की जानकारी के लिए बकायदा एक नोटिस छपवाया गया कि ‘डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी’ की जगह पार्टी का नाम बदल कर ‘प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी’ कर दिया गया है।
गुलाम नबी आज़ाद को अपनी पार्टी का नाम बदलने की आखिर आवश्यकता क्यों पड़ी? यह सवाल अभी पूछा ही जा रहा था कि आज़ाद के बेहद करीबी और उनकी पार्टी के नेता सलमान निज़ामी ने ठीक चार दिन बाद, 17 नवंबर को अचानक से एक ट्वीट करके सबको चौंका दिया कि ‘प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी’ नाम भी अभी अंतिम रूप से तय नही हुआ है इसलिए मीडिया अभी इस नाम को लेकर भ्रम न फैलाए ।
तकनीकी रूप से यह पंक्तियां लिखे जाने तक गुलाम नबी आज़ाद की नवगठित पार्टी का कोई भी नाम नही है। गठन के दो महीनों के बाद भी पार्टी का कोई नाम न होने के कारण कई सवाल उठ रहे हैं। कांग्रेस छोड़ कर आज़ाद की पार्टी में शामिल होने वाले नेता परेशान होने लगे हैं। इन नेताओं की हालत बड़ी अजीब हो गई है। इन नेताओं ने अभी ‘डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी’ के नाम को लेकर अपने-अपने इलाकों में आम लोगों के बीच जाना शुरू ही किया था कि गुलाम नबी आज़ाद ने पार्टी का पहले नाम बदल डाला, और बाद में जो नया नाम रखा भी गया उसको भी जिस तरह से रद्द कर दिया गया उससे भी कई सवाल उठे। यही नही इस सारे मामले पर गुलाम नबी आज़ाद ने जिस तरह की खामोशी ओढ़ रखी है उसे लेकर भी सवाल उठ रहे हैं।
असमंजस भरे इन हालात में आज़ाद के साथी नेताओं में अब बैचेनी साफ नज़र आने लगी है। ऐसी स्थिति में कुछ ने चुपचाप आज़ाद से किनारा कर लिया है जबकि कुछ पुरी तरह से निष्क्रिय हैं। पार्टी को बनाने का शुरूआती उत्साह भी ठंडा पड़ता नज़र आने लगा है।
जिस ढंग से गुलाम नबी आज़ाद ने अपनी पार्टी का गठन किया और बाद में नाम बदले जाने का सिलसिला चला है उससे पार्टी और पार्टी के साथ जुड़े लोगों का मज़ाक बन रहा है। आज़ाद की पार्टी जिस तरह से अपनी नवगठित पार्टी के नाम को लेकर पसोपेश में है उसे लेकर सोशल मीडिया में भी दिलचस्प टिप्पणियां देखने को मिल रही हैं। मज़ाक भरी इस स्थिति पर लोगों द्वारा ख़ूब मज़े लिए जा रहे हैं। कुछ लोगों ने लिखा है कि गुलाम नबी आज़ाद के साथ कांग्रेस छोड़ कर गए अधिकतर नेता कम पढ़े-लिखें हैं इसलिए कुछ को ‘डेमोक्रेटिक’ बोलने में परेशानी आ रही थी जबकि कुछ को ‘प्रोग्रेसिव’ बोलने में दिक्कत आ रही है।
आज़ाद की स्थिति बनी हास्यास्पद
अगर सोशल मीडिया पर चल रहे मज़ाक से हट कर देखें तो यह बात सच भी है कि राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता और कांग्रेस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुए कांग्रेस छोड़ने वाले गुलाम नबी आज़ाद की आज अपनी स्थिति बहुत ही हास्यास्पद होती जा रही है। एक तरफ यहां उनके सामने अपनी नवगठित पार्टी को स्थापित करने की चुनौती है वहीं दूसरी ओर पार्टी को एकजुट रख पाना भी कम मुश्किल नही है। आज़ाद किस तरह का नेतृत्व दे पाते हैं इस पर सबकी नज़र है।
लेकिन पार्टी के नाम प्रकरण ने गुलाम नबी आज़ाद की अपनी खुद की नेतृत्व क्षमता को ही सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। इस मामले ने यह भी दर्शा दिया है कि अपनी पार्टी को गठित करने को लेकर आज़ाद कितने अधिक संजीदा हैं। ‘डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी’ से ‘प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी’ बनने के इस अधूरे सफर ने सबसे अधिक उन लोगों को निराश किया है जो कांग्रेस को इस उम्मीद पर छोड़ कर आए थे कि आज़ाद के बड़े राजनीतिक कद से उनका भविष्य सुरक्षित रहेगा। यह नेता इसलिए भी परेशान हैं क्योंकि नवगठित पार्टी में आज़ाद को छोड़ कर ऐसा कोई दूसरा बड़ा नेता नही है जो सभी को बांध कर रख सके।
दरअसल जिस तरह से गुलाम नबी आज़ाद अपनी नवगठित पार्टी का संचालन कर रहे हैं उससे उनके समर्थक नेताओं में निराशा के साथ-साथ डर है कि आज़ाद के ‘प्रयोग’ में कहीं उनका राजनीतिक भविष्य ही खतरे में न पड़ जाए। दो महीने बीत जाने के बावजूद अपनी पार्टी को ढंग से चला पाने में आज़ाद बुरी तरह से विफल साबित हो रहे हैं। नवगठित पार्टी को जम्मू-कश्मीर में आम लोगों के बीच ले जाने की जो गंभीरता नज़र आनी चाहिए थी उसका भारी अभाव दिखाई दे रहा है। पार्टी नेताओं में आपस में तालमेल की भी भारी कमी नज़र आ रही है। यही नही नवगठित पार्टी को संसाधनों की भारी कमी का भी सामना करना पड़ रहा है।
खुद गुलाम नबी आज़ाद भी बहुत अधिक ज़मीनी स्तर पर सक्रिय नही हैं। दो महीनों में मुश्किल से चार से पांच बार प्रदेश के कुछ इलाकों का दौरा कर अगर आज़ाद यह सोचते हैं कि वे अपनी पार्टी को एक पहचान दिला देंगे तो यह उनकी एक ओर बड़ी राजनीतिक भूल मानी जाएगी। आज़ाद अभी भी अपना अधिकांश समय दिल्ली में बिताना पसंद करते हैं। हलांकि नवगठित पार्टी की ज़रूरतों को देखते हुए उन्हें दिल्ली का मोह त्याग कर जम्मू व श्रीनगर में बैठना चाहिए था। मगर ऐसा करना अभी तक उन्होंने ज़रूरी नही समझा है।
गुलाम नबी ‘डेमोक्रेटिक’ बनेंगे या ‘प्रोग्रेसिव’?
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