दंभ, तथ्य और सत्य का खेला

दंभ, तथ्य और सत्य का खेला

आज राज की नीति हो, लोकप्रियता का क्रिकेट हो या मशक्कत भरी कुश्ती हो, सभी खेल सत्ता के दंभ में दबे दिखते है। खेलों की लोकप्रियता सत्ता को भी प्रिय और उसका मोहरा हो जाती है। जनसेवक जब खेल की सेवा करने का दावा करते हैं तो उनका आशय सिर्फ खेल की सत्ता से सत्ता का खेल खेलना भर होता है। वहीं जब खिलाड़ी खेल की सेवा करने उतरते है तो उनका आशय अपनी लोकप्रियता और धन से सत्ता की सेवा में लगने का रह जाता हैं। आखिर ये सब बेवजह का दंभ क्यों दर्शाते हैं?

सत्ता का दंभ अक्सर सिर चढ़ कर बोलता है। आजकल टेलीविजन पर दिखने-दिखाने के चक्कर में दिखना-दिखावा भी ज्यादा हो रहा है। आज राज की नीति हो, लोकप्रियता का क्रिकेट हो या मशक्कत भरी कुश्ती हो, सभी खेल सत्ता के दंभ में दबे दिखते है। खेलों की लोकप्रियता सत्ता को भी प्रिय और उसका मोहरा हो जाती है। जनसेवक जब खेल की सेवा करने का दावा करते हैं तो उनका आशय सिर्फ खेल की सत्ता से सत्ता का खेल खेलना भर होता है। वहीं जब खिलाड़ी खेल की सेवा करने उतरते है तो उनका आशय अपनी लोकप्रियता और धन से सत्ता की सेवा में लगने का रह जाता हैं। ऐसा ही काफी-कुछ पिछले दिनों देखने में आया। समाज को खुद के द्वारा चुने गए जनसेवकों से और लोकप्रिय बना दिए गए खिलाड़ियों से सवाल करने होंगे। आखिर ये बेवजह का दंभ क्यों दर्शाते हैं?

कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के कुश्ती पहलवानों ने भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष पर जघन्य आरोप लगाए हैं। जांच की मांग के साथ पहलवानी के पदक विजेता राजधानी के जंतर-मंतर पर घरने पर बैठे है। लंबे समय से चले आ रहे कुश्ती संघ के अध्यक्ष केन्द्रीय सत्ता दल के छह बार के लोकसभा सासंद भी हैं। लोकतांत्रिक तौर पर चुने जाते रहे कुश्ती संघ अध्यक्ष पर लगते रहे आरोपों की लंबी सूची है। कुश्ती संघ अध्यक्ष ने खुद कभी पहलवानी की या नहीं, पता नहीं लेकिन अपने बाहुबल रूतबे से कुश्ती की पहलवानी कराने-चलाने की जिम्मेदारी लंबे समय से चला रहे हैं। उनके खुद के अनुसार कुश्ती लड़ने-भिड़ने का खेल है, और इसलिए, उन्हीं के जैसा बाहुबली ही इस खेल को चला सकता है।

दूसरी तरफ आनंद और रोमांच से भरे शानदार प्रतिद्वंद्विता के आइपीएल क्रिकेट की भी घिनौनी तस्वीरे दिखी है। बेंगलूरू घरेलू मैच में लखनऊ से हारा तो घर पर लखनऊ भी बेंगलूरू से हार गया। मैदान पर एक-दूसरे के समर्थक, दर्शकों को दिल्ली के जांबाज क्रिकेट खिलाड़ियों ने उकसाया और भड़काया। और खुद भी लड़-भिड़ गए। खेल का मैदान गाली-गलोच से भरा गली का नुक्कड़ बना दिखा। बस हाथ-बल्ले ही नहीं चले। बाकि मैदान का माहौल पूरी तरह बदरंगा। झंझट-झगड़े के एक तरफ सफल कप्तान और महानतम्बल्लेबाज थे तो दूसरी तरफ सफल बल्लेबाज और दिल्ली से लोकसभा के सांसद। दोनों अपनी-अपनी खुन्नस में क्रिकेट देखने वालों को दंभ का बाहुबल दिखाने में लगे थे। क्रिकेट खेल भी इतना गजब है कि दोनों को खुन्नस और खुशी दर्शाने का बराबर मौका मिला। दोनों अपने अपने दंभी व्यवहार में घिरे, और चरित्र में गिरे ही नज़र आए।

सवाल उठता है कि क्या लड़ाकू-जुझारू मानसिकता ही खेल की असल-सफल व्यवहारिकता है? क्यों लोकतंत्र में सत्ता को बाहुबल और भीड़तंत्र से चलाने की कोशिशें होती हैं? खेल की सत्ता क्या खेल से भी बड़ी हो सकती है? और क्यों सत्ता के खेल को खेल भावना से नहीं खेला जा सकता? खेल, प्रतिभा के खेलने से ही खिलता है। और सत्ता, सेवा के समर्पण से ही चलती है। भीड़तंत्र में भिड़ने की प्रतिभा को ही आज का मीडिया सनसनीखेज़ बना कर दर्शाता है। उसी सनसनी से बने सितारे फिर बाज़ार गणित के काम आते हैं। आम लोगों से अलग दिखने की होड़ में ही खिलाड़ी और सत्तासीन दंभ दर्शाते दिखते हैं।

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आज केवल बदरंगे सत्तासीन और मुंह-चिढ़ाऊ खिलाड़ी ही हैं। अच्छे-सच्चे जनसेवक और प्रतिभा के धनी खिलाड़ियों से ही समाज चलता-फलता-फूलता रहा है। हमारे समय में टेनिस के अगासी, सेम्प्रास, फैडरर थे, तो फुटबॉल के मेस्सी, सालाह और केविन डी ब्रुइन हैं, या फिर क्रिकेट में अपने कपिल देव, कुंबले और तेंदुलकर। ये सभी प्रतिभा के धनी और व्यवहारिकता के गुणी रहे। बेशक आज सत्तासीन में नैतिकता न दिखती हो मगर लोकतंत्र आदर्शवादिता से ही चलता है। इन खिलाड़ियों से ही खेल सफल और लोकप्रिय होता है। जनसेवकों से ही जनतंत्र जीवट और जीवित है। तभी व्हाटसअप पर किसी ने ठीक कहा-“जो कुछ भी हम आजकल सुनते हैं, वे विचार हैं तथ्य नहीं। और जो कुछ भी हम आजकल देखते हैं, वह दृष्टिकोण है सत्य नहीं।“

Published by संदीप जोशी

स्वतंत्र खेल लेखन। साथ ही राजनीति, समाज, समसामयिक विषयों पर भी नियमित लेखन। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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