शंभूनाथ शुक्ल: मध्य काल में तुलसीदास एक ऐसे संत कवि हुए हैं, जिनकी सही विवेचना न उनके चाहने वालों ने की और न उनके विरोधियों ने। इसके बावजूद तुलसीदास पिछली पाँच शताब्दियों में अकेले ऐसे कवि हैं, जिनकी तरह की लोकप्रियता किसी को आज तक नहीं मिली। वे न सिर्फ़ उत्तर भारत बल्कि लगभग पूरे देश में पढ़े जाते हैं, गुने जाते हैं और उनकी कविताएँ लोकोक्तियों की तरह बोली जाती हैं। वे एक दूरदर्शी और वास्तविक परिस्थितियों का सही आकलन करने वाले कवि तो थे ही, छंद, गीत व लय की समझ में उनमें खूब थी।
उन्हें मात्र एक धार्मिक कवि बता कर लोग उनकी ऐतिहासिक और वैज्ञानिक दृष्टि को ख़ारिज करते हैं जबकि तुलसीदास कहीं भी और कभी भी अपने तात्कालिक समाज से अलग नहीं होते। वे हर जगह लोगों की व्यथा लिख ही देते हैं, बस इस व्यथा का माध्यम अलग है। वे धर्म को दुखी मनुष्य के मानसिक संताप को दूर करने वाला मानते हैं, लेकिन कहीं भी यह नहीं कहते, कि दुःख को भूल जाओ या हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहो। दुःख को दूर करने के लिए संघर्ष करो, और दुःख के मूल का उच्छेद करो। किंतु उनको चाहने वालों और उनके निंदकों ने कभी भी तुलसीदास के इस स्वरूप को समझने की कोशिश नहीं की।
उनके सर्वाधिक पढ़े जाने वाले ग्रंथ रामचरित मानस में वे कहाँ चुपचाप बैठने को कहते हैं? उनके नायक राम तो दुःख देने वाले का उच्छेद करते हैं, और वह भी स्वयं के श्रम से। वे रावण का नाश करते हैं, और अपनी सेना को बढ़ाने के लिए सुग्रीव से मित्रता करते हैं। वे सुग्रीव के बड़े भाई बाली को मार कर उसे किष्किन्धा का राज्य देते हैं। लेकिन वे किसी का राज्य नहीं हड़पते और इसीलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। तथा नर-पुंगव हैं। तुलसीदास के इस स्वरूप को समझने की ज़रूरत है।
तुलसीदास की यही विशेषता उन्हें अन्य संत कवियों से अलग करती है। वे संत तो हैं, लेकिन कर्महीन न हैं, और न होने की शिक्षा देते हैं। इसीलिए वे अकर्मण्य साधु-संतों को ललकारते और दुत्कारते हैं। वे लिखते हैं-
“हम लख, हमहिं हमार लख, हम-हमार के बीच।
तुलसी अलखहिं का लखे, राम नाम जपु नीच।।”
क्योंकि राम अकर्मण्यता नहीं सिखाते, वे युद्ध की प्रेरणा देते हैं। वे धनुर्धारी हैं, वीर हैं। न ख़ुद अन्याय करते हैं, न अन्याय को बर्दाश्त करते हैं। वे हर उस अन्यायी का वध करते हैं, जिसका आचरण लोक को दुखी करता है। एक ऐसे समय में जब भारत की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति उथल-पुथल से भरी थी। दिल्ली का शासन देश की अधिकांश जनता को भा नहीं रहा था, और अकारण विधर्मियों द्वारा अपमानित होने की वजह से हिंदुओं को सूझ नहीं रहा था, कि वे क्या करें?
निर्गुनिये संत संतोष तो देते थे, किंतु भय से मुक्ति नहीं और वे लोक परंपरा से निरुद्ध भी करते थे। दूसरी ओर कृष्णमार्गी भक्त कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं को गाकर जनता को तात्कालिक परिस्थितियों से आँख मूँद लेने को कहते थे। ऐसे समय में तुलसीदास मथुरा में बाँकेबिहारी की मनमोहिनी मूर्ति को देख कर कहते हैं-
“का बरनौं छवि आपकी, भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवे, जब धनुष-बाण लो हाथ।।”
अर्थात् तुलसी के ईश्वर आयुध-धारी हैं। वे बांसुरी नहीं बजाते बल्कि शत्रु को ललकारते हैं। ऐसा शत्रु, जो चोरी से उनकी पत्नी का हरण कर ले गया है। और ऐसे शत्रु के विनाश के लिए वे लोक में प्रचलित हर विधा को अपनाते हैं। वे शत्रु के भाई को अपनी तरफ़ लाते हैं, और उससे शत्रु के गुप्त ठिकानों का पता करते हैं। वे अपनी सेना में चतुर सेनापति रखते हैं और युद्ध जीतते हैं। लेकिन वे शत्रु-विजय के बाद लंका राज विभीषण को सौंपते हैं। ख़ुद उस राज्य को नहीं हड़पते। ऐसे हैं तुलसीदास के नायक।
अब ऐसे तुलसीदास को धार्मिकता के आवरण में ढक दिया जाता है, जबकि तुलसीदास एक मर्यादा की स्थापना कर रहे होते हैं। वे परोक्षत: इशारा कर रहे होते हैं, जीयो और जीने दो। वे स्पष्ट कहते हैं, कि हर राज्य के राजा को उसकी प्रजा के अनुरूप ही होना चाहिए। अब ज़रा तुलसी के समय की स्थितियों को समझिए, पता चल जाएगा कि तुलसी कहना क्या चाहते हैं।
कुछ लोग मानस की कुछ चौपाइयों से तुलसी को घनघोर ब्राह्मणवादी या जातिवादी बताते रहते हैं। लेकिन वही तुलसी कवितावली में यह भी लिखते हैं,
“मेरे जाति-पाँति न चहौं काहू की जाति-पाँति,
मेरे कोऊ काम को न हौं काहू के काम कों।”
ज़ाहिर है, उनके लिए जाति के कोई मायने नहीं थे। इसके अलावा “मसीत में सोइबो को” लिख कर मस्जिद में सोने की बात भी वह कह चुके हैं। इससे तो पता चलता है, कि तुलसीदास न तो साम्प्रदायिक थे न जातिवादी ब्राह्मण। अलबत्ता वे भारतीय सभ्यता, संस्कृति और लोक परंपराओं को ज़िंदा रखना चाहते थे। अपनी परंपरा को जीवित रखने में कोई बुराई नहीं। दूसरे सिर्फ़ रामचरित मानस उनका अकेला ग्रंथ नहीं है। कवितावली, विनय पत्रिका, गीतावली, दोहावली आदि उनकी अनेक रचनाएँ हैं। तुलसी के निंदक और उनके भक्त इन रचनाओं को भूल जाते हैं। रामचरित मानस उनका एक महाकाव्य है, इसमें परंपरागत रूप से नायक, नायिका और खलनायक तथा अन्य सपोर्टिंग पात्र भी हैं।
हर पात्र अपनी स्थिति, विवेक और परिस्थितियों के अनुसार संवाद बोलता है। ये संवाद तुलसी अपनी कल्पना से लिख रहे होते हैं। “ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।” लिखने के लिए तुलसी को कोसा जाता है, तो यह संवाद एक खल पात्र समुद्र बोलता है। क्योंकि वह राम को रास्ता नहीं देता और जब राम क्रोधित होते हैं, तो वह विनय की मुद्रा में यह निवेदन करता है। वह कहता है, कि हम सब को जब तक भय न हो तब तक हम काम नहीं आते। अर्थात् तुलसी उस समय के लोकाचार को बता रहे होते हैं।
यूँ ही नहीं कोई तुलसी बन जाता!
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