बेबाक विचार

महामारी से साबित स्थाई अंधयुग!

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महामारी से साबित स्थाई अंधयुग!

हम अंधकार में जीने के वक्त याकि काले कलियुग को लिए हुए हैं। तभी आज भी भारत में मौते झूठ, अंधकार में वैसे ही लुप्त हो रही है जैसे पिछली सदियों में होती थी। भले सदी इक्कीसवीं और उसका सन् इक्कीस हो, लेकिन हिंदुओं की गंगा पहले भी शववाहिनी थी और अब भी है। तो क्या तो गंगा सोचे और क्या हिंदू विचलित हो कर सोचें! डेढ़ हजार साल से चले आ रहे कलियुगी वक्त की आदत से इतना लिहाज, ख्याल भी नहीं होता कि हिंदू महामारी के सूतक में हैं, चिताएं जल रही हैं तो ऐसे वक्त में राजा और प्रजा दोनों मन की बात में गौरव का पाखंड तो न दिखलाएं!

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भारत कलियुगी-2: वक्त का मतलब नहीं है लेकिन है भी!... मतलब इसलिए है क्योंकि वक्त है तभी मनुष्य है। वक्त और वक्त विशेष (जैसे महामारी का समय) में कौम, देश के व्यवहार, अनुभव से मालूम होता है कि मुर्दा कौम वाला जीवन है या जिंदादिली वाला? लोग सत्य में जीते है या झूठ में?...वक्त पृथ्वी की सभ्यताओं के इतिहास, वर्तमान का आईना है तो भविष्य की दृष्टि भी। दूसरी और वक्त के मतलब नहीं होने का सत्य इसलिए कि मनुष्य की जीवन लीला वक्त की तरह क्षणभंगुर, पल-दो पल की बात! महामारी में देख रहे हैं पल-दो पल में खत्म जीवन! और जो खत्म तो वक्त भी खत्म! उस नाते वक्त इंसान का एक ख्याल है। ऐसा ख्याल, ऐसा बोध पशु-पक्षी को नहीं होता है। मनुष्य और पशु का फर्क है जो जानवर बिना समय, बिना काल अहसास के जन्म लेता है और मरता है। इंसान पैदा होते वक्त बिना तारीख, वर्ष की समझ के होता है लेकिन दो-तीन साल बाद वह वक्त की सुध पाता है, उससे दिमाग में याद्दाश्त बनती है फिर धीरे-धीरे वह कल-आज-कल के वक्त में जीते हुए, उसमें बहते हुए होता है। जबकि पशु-पक्षी पूरी तरह वक्त विहीन, टाइमलेस जीवन जीते हैं, तभी वक्त का मतलब है मनुष्य! वक्त जिंदा मनुष्य की याद्दाश्त है। उसी से भूतकाल, वर्तमान और भविष्य याकि गुजरे वक्त, मौजूदा वक्त और आने वाले वक्त की लकीर, उसका क्रम बना होता है। सो, इंसान वक्त की लकीर पर चलता है! समझने वाली बात है कि वक्त चलता है या मानव? इंसान के दिमाग में घड़ी लगी हुई है या चिम्पांजी से मनुष्य विकास की प्रक्रिया से खुले दिमाग ने समय बोध की सर्वजनीय, सर्वव्यापी वह घड़ी बनाई है, जिससे मनुष्य नियंत्रित व चलता हुआ होता है। यह दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों, वैज्ञानिकों (अरस्तू से लेकर आइंस्टीन सब खपे हैं) का मसला है जो वे ब्रह्माण्ड के टाइम-स्पेस में मनुष्य-वक्त के रियल मायने बूझे। अपने लिए बेसिक बात है कि मनुष्य का दिमाग वक्त का अहसास लिए हुए होता है लेकिन घड़ी लिए हुए नहीं। हम जानते हुए होते हैं कि वक्त कैसे गुजर रहा है और ऐसे जानना, वह अनुभव फिर भूतकाल, पास्ट होता है जिसकी याद से आज का बुद्धि विचार ख्याल बनवाता है कि कल हमें क्या करना है, भविष्य कैसा हो।

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सवाल है दिमाग वक्त को प्रोसेस करते हुए होता है या वक्त दिमाग में प्रोसेसिंग करवाता है? जवाब मुश्किल है। फिलहाल इतना ही ध्यान रहे कि प्रोसेसिंग से जीवन बनता, ढलता व ऑर्गेनाइज होता है। जिम्मेदार सत्व-तत्व अनुभव की अनुभूतियां हैं। मतलब भूतकाल की याद्दाश्त, ध्यान-ज्ञान और भावनाओं के बोध में वर्तमान सोचता हुआ। इस बिंदु पर बोध याकि समझदारी को बनवाने वाली दृष्टि, नजरिया बाहरी कारणों जैसे परिवेश, संस्कृति और युग से प्रभावित होती है। फिर नोट रखें कि वक्त-बुद्धि का खेल इंसान के शरीर की किसी जैविक रासायनिक क्रिया-प्रक्रिया-बुनावट से नहीं है, बल्कि इतिहास, संस्कार, संस्कृति और युग की अनुभूतियों का समुच्चय, उसका जोड़ है। इसी से दिमाग-बुद्धि में बोध, अहसास, परसेप्शन मतलब धारणाएं बनती हैं। मानवता के विकास के क्रम ने हर कबीले की, लोगों के समूह की वह घड़ी बनाई हुई है, जो धर्म, सभ्यता-संस्कृति और राष्ट्र-राज्य की स्थायी गंगा है। इसलिए कि कौम-नस्ल जन्म-जन्मांतर की चिरंतन रिले रेस से जीती हुई होती है। अन्य तरह से बूझे कि गंगा सिर्फ पानी का प्रवाह नहीं है, वह स्मृति है, हिंदू धर्म, उसके सनातनी जीवन का प्रवाह है, खोज है।... व्यक्ति की मौत के साथ उसकी घड़ी भले खत्म हो लेकिन कौम, सभ्यता-संस्कृति और राष्ट्र-राज्य की घड़ी लगातार टिक-टिक करती रहती है उसी में लोग अपने वक्त को काटते हुए होते है। वक्त की लकीर पर लोग चले। दौड़े, लडाईयां लड़ीं, ज्ञान-विज्ञान-सत्य पाया और वे अब मंगल को अपना ग्रह बनाने की धुन में दौड़ रहे हैं। लेकिन मनुष्य की जैविक रचना भले एक सी है, लेकिन सभ्यता-संस्कृति का परिवेश, घड़ियां अलग-अलग है तभी ओलंपिक स्टेडियम के ट्रैक पर कुछ सभ्यताएं जहां ब्रह्माण्ड को भेदते हुए हैं तो कुछ स्वर्ग भोगते हुए हैं। कुछ नरक में रहते हुए सबका नरक बनाने की तलवार लिए हुए हैं तो हम हिंदू सभ्यताजन्य पहचान लिए हुए भी अंधकार में लावारिस फुदकते हुए हैं। ओलंपिक स्टेडियम में मेंढक की तरह फुदकते, टर्र-टर्र करते हुए झंडा लिए हुए है कि हम हैं विश्वगुरू! हमसे वक्त है, हमसे दुनिया है और बाकी मानवों, सभ्यताओं का कल्याण मेंढक, कछुए, बरगद, गाय, गोमूत्र और गोबर के जीव दर्शन से है!

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मैंने वक्त का इतना खुलासा इसलिए किया है क्योंकि हम हिंदुओं का, भारत का आज का अनुभव वैश्विक तौर पर बोलता हुआ है. हम दुनिया को बता रहे है कि हम कैसे है, बावजूद इसके कलियुगी होने के कारण हमें अहसास नहीं है कि महामारी से हमारी, हमारे वक्त की कैसे कलई खुली है, कैसे एक्स्पोज्ड है। हिसाब से महामारी जब वैश्विक है तो इसका अनुभव सबका एक सा होना चाहिए। लेकिन 195 देशों की दुनिया में भारत अकेला वह देश है, जहां अस्पताल, श्मशान, कब्रिस्तान, नदियों, घर-परिवार सभी तरफ अनुभव में न केवल मौत लावारिस है, बल्कि समाज, धर्म, राष्ट्र सब मुर्दा कौम के मुर्दा प्रतिनिधि साबित हुए है। दूसरे किसी देश में वह नहीं हुआ जो भारत में हुआ है। हिंदू सभ्यता-संस्कृति की गंगा लाशें लिए हुए थी। लाशों को जहां कुत्ते, चील, कौए नोचते हुए थे वहीं सरकार कफन चोरी से या घासलेट-टायर से लाशों को जलाते, मौत को छुपाते हुए थी। क्या ऐसी जंगली-राक्षसी वीभत्सता सभ्यता-संस्कृति की अन्य नदियों जैसे डैन्यूब, टैम्स, हडसन या यांगत्जी में, उसके किनारे कहीं दिखलाई दी? तभी महामारी 2020-21 में भारत की मौतें भारत के अंध कलियुगी वक्त की भारत तस्वीरें हैं, जबकि दूसरी सभ्यताओं की मौतें न लावारिश, न नदियों में बहती हुई और न अमानवीयता-निष्ठुर संवेदनहीनता के साथ। तभी महामारी 2020-21 ने स्थापित किया है कि हिंदुस्तान और हिंदुस्तान के लोग वैसे ही डार्क टाइम, अंधयुग में जी रहे हैं, जैसे कलियुग के डेढ़ हजार सालों में जीते आए हैं।  दुनिया को चिंता है कि कहीं भारत वापिस 1881 की ‘फैक्टरी ऑफ कोलेरा’ की तरह विश्व को कोविड-19 की नई-नई किस्म देने की फैक्टरी न बन जाए। सोचें कोविड-19 चीन की देन है लेकिन दुनिया के पचपन देश ‘भारत में पहली बार मिले वैरिएंट’ से कोरोना को ऐसे लिए हुए हैं, जैसे हमसे वायरस है। दुनिया इंडिया में मिले वैरिएंट का हल्ला लिए हुए है तो इसलिए क्योंकि महामारी में मौत का जो तांडव भारत की स्क्रीन से देखने को मिला उसने पूरी दुनिया में धारणा बनवा दी है कि भारत एपिसेंटर है और बचो भारत से!.... हमने दुनिया को अपने कलियुगी पतन के विभिन्न पहलुओं में बीमारी-मौत के झूठ की रिसर्च दी। दवा-इजेक्शन-अस्पतालों की कुव्यवस्था-लूट के उदाहरण दिए और खत्म ऑक्सीजन व ब्लैक-व्हाइट फंगस आदि के ऐसे किस्से दिए जिनसे अपने आप प़ृथ्वी की बाकी सभ्यताओं के दिल-दिमाग में तो बनेंगा ही कि भारत और भारत के लोग है महामारी के एपिसेंटर! क्या हमें इसका भान है? नहीं। हिंदुओं को, हिंदुओं के राजा को न इसका भान है और न दिल-दिमाग में इसके गहरे घाव हैं। क्यों?... इसलिए कि हम अंधकार में जीने के वक्त याकि काले कलियुग को लिए हुए हैं। तभी आज भी भारत में मौते झूठ, अंधकार में वैसे ही लुप्त हो रही है जैसे पिछली सदियों में होती थी। भले सदी इक्कीसवीं और उसका सन् इक्कीस हो, लेकिन हिंदुओं की गंगा पहले भी शववाहिनी थी और अब भी है। तो क्या तो गंगा सोचे और क्या हिंदू विचलित हो कर सोचें! डेढ़ हजार साल से चले आ रहे कलियुगी वक्त की आदत से इतना लिहाज, ख्याल भी नहीं होता कि हिंदू महामारी के सूतक में हैं, चिताएं जल रही हैं तो ऐसे वक्त में राजा और प्रजा दोनों मन की बात में गौरव का पाखंड तो न दिखलाएं! (जारी)              
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