बेबाक विचार

यहूदी बनाम हिंदू चरित्र में बूझे निर्भयता और भयाकुलता

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यहूदी बनाम हिंदू चरित्र में बूझे निर्भयता और भयाकुलता
सोचें, दुनिया में कौन सी ऐसी दूसरी नस्ल है जो हिंदुओं की तरह शताब्दियों भटकी हो? हिंदू के बाद फिर यहूदियों का इतिहास है जो वे सदियों बेघर भटके रहे। बहुत प्रताड़ित हुए। बावजूद इसके यहूदियों का खानाबदोश जीवन गुलामी बनाम आजादी की चेतना में फड़फड़ाते हुए था। उन्होंने दिल-दिमाग पर भय को हावी नहीं होने दिया। वे बुद्धि बल से अपने को दुनियावी, प्रासंगिक और जिद्दी बनाए रहे। ठीक विपरीत हिंदुओं ने गुलामी को भय में बांध कर उसे नियति समझा। पलायन, समर्पण, भक्ति के साथ टाइमपास का स्वभाव बनाया। Jewish vs Hindu character कलियुग अपना कैसे?-4 : भारत आजादी के अमृत वर्ष में है तो इजराइल में मई से अमृत वर्ष है। इस संयोग में भारत बनाम इजराइल के फर्क पर विचारे। पचहत्तर वर्षों का भारत ‘अमृत’ और इजराइल का ‘अमृत’ क्या? उससे हिंदू चरित्र का कैसा खुलासा तो यहूदियों का कैसा? क्या यहूदियों का यह चरित्र प्रमाणित नहीं कि वे सत्य, बुद्धि, बहादुरी व वीर भोग्य वसुंधरा में अपने देश को बनाते हुए बेखौफ जीते हैं। ठीक विपरीत हम हिंदू, झूठ-खामोख्याली, भयाकुलता-भक्ति और सत्ता के पिंजरे में, उस पर आश्रित जीते हैं? ध्यान रहे कई वजह से हिंदू बनाम यहूदी की तुलना सटीक है। सोचें, दुनिया में कौन सी ऐसी दूसरी नस्ल है जो हिंदुओं की तरह शताब्दियों भटकी हो? यों एक भी नहीं। कोई नहीं! उस नाते हिंदुओं की सदियों पराधिनता का अनुभव बिरला है। हिंदू के बाद फिर यहूदियों का इतिहास है जो वे सदियों बेघर भटके रहे। बहुत प्रताड़ित हुए। बावजूद इसके यहूदियों का खानाबदोश जीवन गुलामी बनाम आजादी की चेतना में फड़फड़ाते हुए था। यहूदियों ने अपने को बचाने के लिए यूरोप, पश्चिम एशिया में दर-दर की ठोकरें खाईं। बावजूद इसके यहूदी की बुद्धि का भय से दमन-शमन नहीं हुआ। वे भयाकुल और मुर्दादिल नहीं बने। वे बेघर जीवन में भी एकजुटता और सहकारिता से जीये। उन्होंने दिल-दिमाग पर भय को हावी नहीं होने दिया। वे बुद्धि बल से अपने को दुनियावी, प्रासंगिक और जिद्दी बनाए रहे। ठीक विपरीत हिंदुओं ने गुलामी को भय में बांध कर उसे नियति समझा। पलायन, समर्पण, भक्ति के साथ टाइमपास का स्वभाव बनाया। नतीजतन एक के बाद एक वह उन स्थितियों, उस मनोदशा में सदियों सफर करता हुआ था, जिससे दिल-दिमाग में भय, सत्ता की गुलामी की परतें बनी। मूल बात हिंदुओं का इतिहास में भयाकुल बनना है! भय, चिंता, असुरक्षा की शताब्दी-दर शताब्दी। ‘डर’ ने ही हिंदू को घर, खोल और पर्दे का पाबंद बनाया। उसके समाज की रचना बदली। जीवन जीने की पद्धति गहरे, अंधेरे कुएं की बनवाई। अंधविश्वासों, झूठ, कुएं में मेंढक की टर्र-टर्र का वह कलियुग बना, जिससे सत्य विलुप्त और बुद्धि कुंद।  ऐसे यहूदी नहीं बने। वे जान बचाने की जिजीविषा में अपनी बुद्धि चेतना से संघर्ष करते हुए थे। उनकी बुद्धि जाग्रत रही। वे यूरोपीय पुनर्जागरण में भी मौका बनाते हुए थे। यहूदियों को जब भी मौका मिला वे उससे उड़ते-खिलते और दुनिया को कुछ न कुछ देते हुए थे। ठीक विपरीत हिंदुओं का आचरण था। दिल्ली सल्तनत में वैक्यूम और खाली तख्त के मौकों पर भी हम नए मालिक का इंतजार करते हुए थे! इतिहास के अनुभव ने हमारी यह समझ ही खत्म कर दी कि आजादी और गुलामी का क्या फर्क है! तभी यह त्रासदी है जो बेसुध हिंदू बुद्धि इक्कीसवीं सदी में भी अपने मानसिक विकारों पर विचार करते हुए नहीं है। शोध, पाठ्यक्रम, अध्ययन-अध्यापन, मनोवैज्ञानिक रिसर्च होना तो दूर हम यह भी स्वीकारने-समझने और याद करने को तैयार नहीं हैं कि हजार साला परतंत्रता का हमारे मनोविज्ञान, हमारी साईकी पर क्या असर हुआ होगा? हमने आजादी के बाद भी जिस मनोदशा में फैसले लिए हैं और जैसा जीवन व्यवहार बनाया है वह कहीं सत्ता-भय और भयाकुलता के विकारों से तो नहीं है? सोचें, आजादी से पहले और आजादी के बाद दोनों अवस्थाओं में क्यों कर भारत की गति निश्चित स्वभाव और परिणामों वाली! जाहिर है वजह मनोवैज्ञानिक याकि साईकी की है। चरित्र की है। उस मनोदशा की है जो हजार साला अनुभवों की बिछी पटरी पर दौड़ती है। जैसे हिंदुओं को 1947 में आत्मसम्मान से जीने का मौका मिला, उन्हें अपना राष्ट्र-राज्य मिला वैसे ही साल बाद 1948 में बेघर यहूदियों को इजराइल मिला। दो नस्ल, दो देश। दोनों इतिहास से झुलसे हुए। दोनों इस्लाम की चुनौती का सामना करते हुए और सभ्यतागत संघर्ष के मारे। जहां यहूदियों की पहचान में इजराइल हुआ वहीं हिंदुओं की पहचान लिए भारत। उसी से विश्व समुदाय में यहूदियों व हिंदुओं को पहचाना जाने लगा। मतलब 1947-48 में विश्व रंगमंच पर यहूदियों और हिंदुओं का तब आधुनिक प्रवेश था। उनको दुनिया के आगे अपने को बनाकर दिखाना था। Read also प्र.मं. की सुरक्षाः घटिया राजनीति क्यों? तो किसने क्या दिखाया? यहूदियों ने कमाल किया और हिंदुओं ने? जवाब में हमें दुनिया के आईने में अपने को बूझना होगा या जानकारियों-बुद्धि की अपनी समझ में तौलना है कि हम क्या इजराइल जैसा रूतबा लिए हुए हैं? बतौर राष्ट्र यहूदी जहां वैश्विक कसौटियों पर खरे हैं वहीं हिंदू पहचान की उपलब्धियों और व्यवहार में ढूंढना पड़ेगा कि भारत के रूतबे में कौन सी उपलब्धि है? क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का तमगा? पर वह तमंगा क्या नागरिक बेखौफी, स्वतंत्रता का ‘अमृत’ क्या लिए हुए हैं? क्या हिंदुओं में सत्ता के आगे यहूदियों जैसी निडरता-निर्भयता है? यहूदी व्यवस्था में वहां लोगों की उद्यमिता, बुद्धि, सत्य, मौलिकता जैसे खिली हुई है क्या वैसे भारत की व्यवस्था में है? क्या हम यहूदियों के शोध-साहस-संकल्प की सत्य खोजों के आगे टिकते हैं? क्या 21वीं सदी में हिंदू बुद्धि की मौलिकता, सृजनात्मकता का कोई गौरव बना है? हिंदू के खाते में कितने नोबेल पुरस्कार हैं? 75 वर्षों का भारत बनाम इजराइल का अनुभव जुगाड़ बनाम मौलिक निर्माण का फर्क है। 1947-48 में और उसके बाद भारत में पंडित नेहरू और इजराइल में डेविड बेन-गुरियन ने अपनी नस्ल और नस्ल के चरित्र में जो नींव-इमारत बनाई उससे अपने आप यह प्रमाणित है कि हिंदुओं नें जहां वक्त गंवाया, अपनी जमीन गंवाई, और आगे बढ़ना केवल वैश्विक हवा, वक्त और समाज की गत्यात्मकता से था तो वहीं यहूदियों ने वक्त को पकड़ा, उसे साधा और संकल्प शक्ति की वह बहादुरी दिखाई कि दुश्मन अरब देशों की सामूहिक ताकत का बाजा बजा दुनियया को बताया-वीर भोग्य वसुंधरा। फिलहाल इस बहस में उलझने की जरूरत नहीं है कि यहूदियों का फिलस्तीनियों के साथ क्या सलूक रहा। अभी मसला यहूदियों, उनके नेताओं की समस्या, चुनौती के आगे जाहिर चरित्र का है। उनके फैसले-परिणाम कैसे और हम हिंदुओं के कैसे! आजादी व स्वशासन का हिंदुओं का जब मौका बना तो हिंदू नेतृत्व ने क्या भय और भयाकुलता में देश का विभाजन नहीं माना? वह भी अपनी नहीं उनकी शर्तों पर! क्या हिंदू नेतृत्व डरा हुआ नहीं था? इतना भयभीत जो देश ने अपने को हिंदू कहने से परहेज किया, जबकि धर्म के सत्य में ही बंटवारा हुआ था। फिर उसके बाद के 75 वर्षों का क्या प्रारब्ध? क्या देश और हिंदू आज भी मुसलमान का भय नहीं बनाए हुए है? हिंदूशाही भी अपने ही देश में मुस्लिम डर बना, हिंदूओं में असुरक्षा का भय बनवा कर वोट मांग रही है! ऐसी राजनीति इजराइल के यहूदी नेता नहीं करते है। नेता और नागरिक सच्चे, साहसी, पुरुषार्थी होने के साथ यह विश्वास पहले दिन से आज तक बनाए हुए हैं कि अपना देश है तो उसमें क्या मुसलमान से डरना। हमें आगे बढ़ना है, ताकतवर होना है, तब अपने आप चुनौतियों से पार होते जाएंगे। यहूदियों ने अपना और अपने देश का चरित्र जुगाड़ु, नकलची, सर्विस प्रोवाइडर, अंधविश्वासी, झूठ और भय में जीने के आदी होने का नहीं बनाया। हम हिंदुओं में यह बात गले नहीं उतरेगी, यह सत्य नहीं मानेंगे कि यहूदी सरकार और नागरिक दोनों बिना सुरक्षा खौफ के जीते हैं। आए-दिन हम इजराइल-फिलस्तीनी झगड़े और हिंसा की खबरें सुनते हैं। बावजूद इसके यहूदियों का जीवन सहज और आत्मविश्वास से है। इजराइल में न यहूदी भयाकुल मिलेंगे और न निजी सुरक्षा तामझाम दिखेगा। वहां के प्रधानमंत्री के लिए खास एसपीजी जैसी एजेंसी नहीं है। पीएम, मंत्री, सांसद, अफसर जैसे पदों पर बैठे यहूदी सामान्य निजी सुरक्षा में जीते हैं। आम तौर पर खुद कार ड्राइव करते हैं। मतलब सुरक्षा-पुलिस का वह भोंड़ा तामझाम नहीं है जो भारत में एमएलए से लेकर प्रधानमंत्री, एसपी से लेकर डीजीपी का बना होता है। यहूदियों का साहस उनके भयरहित सहज जीवन से झलकता है, जबकि हम हिंदू सुरक्षाकर्मियों का घेरा बना कर भय का रूतबा बनवाते हैं। यही नहीं भारत का प्रधानमंत्री भी तमाम सुरक्षा तामझामों के बावजूद भयाकुलता में महामृत्युंजय यज्ञ करवाता है। पूरे देश को चिंता में डालता है। वह नागरिकों के मानवाधिकारों को सुरक्षा के लिए खतरा मानता है। इजराइल में एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी मानवाधिकारी संस्थाएं बेखटके न केवल काम करते हुए हैं, बल्कि आए दिन फिलस्तीनियों पर इजराइली जोर-जबरदस्ती के वैश्विक प्रेस रिलीज जारी करती हैं मगर यहूदियों की मर्दानगी जो आलोचना को बरदाश्त करते हुए एमनेस्टी पर पाबंदी नहीं या भारत जैसी बेहूदगी नहीं जो एमनेस्टी भारत छोड़ने को मजबूर हो जाए। और तो और सेना-दुश्मन-पुलिस के लिए बने पेगासस जैसे जासूसी सॉफ्टवेयर का इजराइली सरकार ने वहां के नेताओं, पत्रकारों, एक्टिविस्टों के लिए उपयोग किया हुआ हो, यह भी खबर नहीं हैं। इजराइली कंपनी ने दुनिया को सॉफ्टेवयर बेचा लेकिन सरकार ने उससे यहूदी नागरिकों की जासूसी, उन्हें भयाकुल बनाने का काम नहीं किया तो क्या जाहिर होता है? सर्वाधिक चुभने वाला फर्क मौलिकता-प्रतिभा-स्वाभिमानता का है। यहूदियों ने लुप्त प्राय भाषा को 75 वर्षों में इतना समृद्ध बना उसे राष्ट्र व्यवहार-आचरण में ऐसे अपनाया है कि हिब्रू में आईटी, सोशल मीडिया, सीरियल, अखबार, साहित्य सब हैं, जबकि हम हिंदू संस्कृत तो दूर हिंदी और अपनी बाकी भाषाओं में भी किस दशा में हैं? गुलामी और स्वाभिमानी चरित्र का क्या फर्क है, इसे बतौर देश भारत और इजराइल के 75 वर्षों में मातृभाषा उपयोग के फर्क से बूझा जा सकता है। हम हिंदुओं को, भारत को अपनी भाषाएं अपनाने तक का साहस नहीं हुआ! तभी हिंदू सिर्फ वक्त के धक्कों में लुढ़कते, मालिकों की भाषा की कुलीगिरी से रोटी कमाते हुए हैं। तभी हमारा ऐसे जीते जाना सिर्फ वक्त-समाज के अंतरनिहित डायनेमिज्म से है न कि अपने स्वत्व, अपने स्वतंत्र मौलिक जीवन से। कोई आश्चर्य नहीं जो रेल की बेसिक पटरी बनने का हिंदुस्तान का सवा सौ साल पहले का विकास हो या बुलेट ट्रेन का भारत विकास, सब की आधुनिक बुद्धि हमें दूसरी सभ्यताओं से प्राप्त है। क्या नहीं? कारण साफ है। हिंदू का चरित्र और जीवन क्योंकि राष्ट्र चरित्र है तो गुलाम बनाती-राज करती सत्ता हमारी आत्मा को भय के पिंजरे से बाहर ही नहीं निकलने देगी। भय, दासता से जकड़ी बंधुआ मनोदशा यदि पहले से है तो न प्रजा मुक्त हो सकती है और न राजा। बंधुआ जीवन और बंधुआ राज दोनों की राम मिलाई जोड़ी से वह साहस कैसे पैदा होगा, जिससे बुद्धि खिले और हम सत्य व ज्ञान-विज्ञान में उड़ते हुए हों। भला जिस नस्ल को अपनी मूल भाषा अपनाने का साहस नहीं, जिसका दिल-दिमाग थोपी हुई विदेशी भाषा के कुछ हजार शब्दों में संचालित और घसीटता हुआ है वह क्या तो मौलिक सोचेगा, क्या मौलिक लिखेगा और दुनिया को क्या मौलिक देगा? तब वह कैसे मानव संसार को वह मौलिक योगदान कर सकता है जो हिंदू सतयुग में अपनी भाषा, अपने चिंतन के बुद्धि बल से देता हुआ था। फिर भले वह वेद हो या गणित का जीरो हो या योग और निर्वाण दर्शन! क्या मैं गलत हूं?  तभी गांठ बांधें कि बंद-भयाकुल बुद्धि, समाज और धर्म से हम हिंदू कतई सौ फूल, मौलिक फल नहीं खिला सकते! हमारी मेधा नोबेल पुरस्कार लायक नहीं बन सकती। हां, हिंदू से ऐसा कुछ हो सकना भारत से बाहर जरूर स्वतंत्रता की आबोहवा में, अमेरिका, ब्रिटेन में संभव है लेकिन भयाकुल परिवेश वाले भारत में कतई नहीं। एक-दो अपवाद और मिथ छोड़ें और 110 करोड़ हिंदुओं की भारत भीड़ के सत्य में हकीकत को जांचें तो जुगाड़ अपना सत्य है। नकल और शॉर्टकट जीवन है। इसलिए सच्चा कुछ बना सकना, मौलिक मंथन भला कहां से संभव? यह सत्य इस्लाम धर्म को मानने वाले देशों पर लागू है तो तानाशाही की व्यवस्था वाले चीन-रूस के अनुभव से भी जाहिर है। बंद-गुलाम-भयाकुल समाज नकल और जुगाड़ से जीते रह सकता है और मानव व प्रकृति शोषण से चीन या सऊदी अरब जैसा बना जा सकता है लेकिन सिलिकॉन वैली याकि बुद्धि-साहस बल वाला खोजी अमेरिका जैसा कतई नहीं हुआ जा सकता! हम-आप अमेरिका से, यूरोप, पूंजीवाद और उद्यमशीलता से नफरत कर सकते हैं लेकिन सत्य की अनदेखी कैसे होगी! पिछले तीन सौ सालों में, यूरोपीय पुनर्जागरण से बने नए परिवेश से मनुष्य की बुद्धि का जो अणु विस्फोट हुआ है, जो बौद्धिक अनुष्ठान बने हैं और सत्य-ज्ञान-विज्ञान-विचार को जितना खोजा और तरासा गया है उस मानवीय उपलब्धि को क्या नकार सकते हैं? जो लोग उपलब्धियों को नहीं मानते, वे कुएं की टर्र-टर्र के कुंद-मंद-दीन-हीन ग्रंथियों के मनोविश्व में जीते हैं। वे लोग निश्चित ही गंवार बुद्धि के वे मनोरोगी हैं, जो भय में माने बैठे हैं कि कुएं का बंधा जीवन ही जीवन (सुरक्षित) है। हम हिंदुओं ने पचहतर साल न केवल भय के डीएनए की अनदेखी की है, बल्कि उलटे व्यवस्था के नाम पर स्थितियों, कानून-कायदों का वह परिवेश बनाया, जिससे भयाकुलता और फैली है। लोगों का उद्यम, लोगों की स्वतंत्रता मरी है। हमारे जीवन में भय और सत्ता के आगे समर्पण का भाव उसी नेचुरल अंदाज में मनोदशा में पैंठा हुआ है जैसे 1947 से पहले था। इसलिए आश्चर्य नहीं जो 75वें अमृत वर्ष में वापिस पानीपत की लड़ाई, गृहयुद्ध की ध्वनियां सुनाई दे रही हैं। यह ध्वनि कभी पश्चिम दिशा से, कभी उत्तर, कभी पूर्व दिशा से तो कभी देश के भीतर टुकड़े-टुकड़े गैंग के हवाले! इसलिए संकट विकट और गहरा है। हिंदू के चरित्र में इतिहास से चला आ रहा भय मिटने का नाम नहीं ले रहा है। उलटे वह दशक-दर-दशक फैलता हुआ है। हमारी राजनीति, नेतृत्व भय से और भय पर है। उसी से वोट है। उसी में चौबीसों घंटे खतरों का नैरेटिव है। मुसलमान का भय। पाकिस्तान का भय। सीआईए का भय। चीन से भय। धर्मांतरण का भय। लव जिहाद का भय। कोतवालों-माफियाओं का भय! देशद्रोहियों, राजद्रोहियों का भय। इनसे भी और अधिक भयावह देश की माई-बाप सरकार के कानूनों और एजेंसियों का भय है। सोचें, कैसा तो लोकतंत्र! क्या यह सब यहूदियों के देश में है? नहीं। (जारी)  
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