बेबाक विचार

आजादी से पहले पत्रकारिता थी निर्भीक!

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आजादी से पहले पत्रकारिता थी निर्भीक!
आजादी के संघर्ष में तेवर (ध्यान रहे 1857 में भी दिल्ली में उर्दू का ‘पयामे-आजादी’ (बाद में वह हिंदी का) अंग्रेजों के खिलाफ यदि विद्रोही था तो 1919 में दिल्ली का ‘विजय’ और ‘प्रताप’ साप्ताहिक खालिस अंग्रेज विरोधी सियासी अखबार था, जिसके सूत्रधारों में एक गणेश शंकर विद्यार्थी भी थे। तभी आजादी पूर्व का यह सत्य नोट रहे कि भाषाई पत्र-पत्रिकाएं आजादी से पूर्व अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी थीं। उनके बहुत पीछे अंग्रेजी पत्रकारिता थी। पचहत्तर साला आजादी और भारतीय पत्रकारिता-2: भारतीय पत्रकारिता के तब और अब (15 अगस्त 1947 से पहले और बाद में अब तक) के फर्क की बानगी है 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिकी का पहला भारतीय अखबार ‘बंगाल गजट’। वह निकलना शुरू हुआ ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेजों की पोल खोलने के मकसद से। तब से 1947 तक के 167 सालों की पत्रकारिता इस नाते अमूल्य-अतुलनीय थी कि उससे जहां भारत को आजादी मिली वहीं भारत में स्वाधीनता की आग पैदा करने के साथ पत्र-पत्रिकाओं से इंटेलिजेंसिया याकि सच्चा देशज-मौलिक-बौदि्धक वर्ग खिला। अंग्रेज गोरे हिकी ने अखबार के पहले अंक में लिखा था- मुझे अखबार छापने का विशेष चाव नहीं है, न मुझमें इसकी योग्यता है। कठिन परिश्रम करना मेरे स्वभाव में नहीं है। तब भी मुझे अपने शरीर को कष्ट देना स्वीकार है ताकि मैं मन और आत्मा की स्वाधीनता प्राप्त कर सकूं’। इस मनोभाव के साथ हिकी की पत्रकारिता में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन और कलकत्ता में बसे गोरे एलिट की भ्रष्टता की खबरें छपती थीं। वह गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स की आलोचना और खिल्ली के संपादकीय लिखता था। नतीजा क्या हुआ? हिकी को गिरफ्तार करके जेल में डाला गया और अखबार बंद! सोचें, कोई 250 साल पहले एक अंग्रेज की भारत में पत्रकारिता की नींव रखने के साथ अभिव्यक्ति की आजादी की कैसी थी फड़फड़ाहट, विचार और हिम्मत!....क्या वैसा अनुभव, उसके लक्षण आजाद भारत में, सन् 1947 में या सन् 2021 में व 140 करोड़ नागरिकों में बीच कहीं हैं? ऐसे ही 1821 में राममोहन राय ने साप्ताहिक ‘मिलातुल’, फिर ‘बंगदूत’ छापना शुरू किया तो उन्होंने भी आजादी के भभके में नियंत्रणों के खिलाफ याचिका डाली। उनके समकालीन जेम्स सिल्क के अंग्रेजी अखबार ‘कैलकट्टा जर्नल’ ने ऐसी भंडाफोड़ पत्रकारिता की कि ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरे शासकों ने 1857 आते-आते प्रेस पर कई नियंत्रण लगाए। बावजूद इसके अंग्रेजों की ही संगत से अभिव्यक्ति की आजादी में पत्रकारिता का शगल समाज में बनता-बढ़ता गया। तभी 1875 में ‘स्टेट्समैन’, 1838 में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, 1865 में इलाहाबाद में ‘पायनियर’, 1881 में लाहौर में ‘ट्रिब्यून’, 1889 में मद्रास से दैनिक रूप में ‘हिंदू’, 1923 में ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ अखबार शुरू हुए। अंग्रेजी की इस एलिट पत्रकारिता के बीच भारतीय भाषाओं में राममोहन राय से शुरू सिलसिला, 1860 में ‘आनंद बाजार पत्रिका’, भारतेंदु हरिश्चंद्र, लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के ‘नेशनल कांग्रेस’, ‘यंग इंडिया’ व ‘हरिजन’ सहित सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं ने वह माहौल बनाया कि अभिव्यक्ति की आजादी और पत्रकारिता का आग्रह एक्टिविस्टों, स्वतंत्रता के ख्यालों में बतौर मशाल स्थापित था। उन प्रयासों, जुनून का क्या असर हुआ? भारतीयों में, हिंदुओं की हजार साला गुलामी के इतिहास में पहली बार बुद्धिजीवियों, बौद्धिक वर्ग, इंटेलिजेंसिया की वह जमात बनी जो आजादी को ले कर सोचते हुए थी। लोगों को जागरूक बनाते हुए थी। सो, पहली बात अंग्रेजों की संगत से गुलाम हिंदू में बुद्धि-विचार के बीज फूटे! उससे आजादी-स्वाधीनता की चाहना बनी। लोग जागरूक होने लगे। समाज सुधार हुआ। दबी-छुपी-बिखरी भाषा-सभ्यता-संस्कृति को आवाज मिली। उनका स्वरूप बनने लगा। विचारों की गंगोत्रियां फूटीं। हां, राममोहन राय से विवेकानंद, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी से ऐसे कई काम हुए, जन चेतना और समाज सुधार के ऐसे प्रयास हुए जो सचमुच पत्र-पत्रिकाओं याकि पत्रकारिता से ही उद्घाटित थे। अपना मानना है कि आजादी से पहले बांग्ला भद्रता, संस्कृति, पुनर्जागरण की जितनी बातें, जो विकास थे वे बुनियादी तौर पर कोलकत्ता में ‘स्टेट्समैन’, ‘आनंद बाजार पत्रिका’ सहित कई पत्र-पत्रिकाओं की वजह से था। ऐसे ही पूरे भारत में तब इलाहाबाद, बनारस, मद्रास, लाहौर, मुंबई, दिल्ली यदि आजादी के आंदोलन और सांस्कृतिक-साहित्यिक-भाषाई चेतना के गढ़ बने तो वजह इन शहरों में अखबारों-पत्र-पत्रिकाओं से विकसित बौद्धिक वर्ग था। कैसा विशाल और अपूर्व रोल था पत्र-पत्रिकाओं और उनमें लिखने वाले लेखकों-पत्रकारों का! क्या मैं गलत हूं? यह भी नोट रखें कि आजादी से पहले भारत की अंग्रेजी पत्रकारिता ने दुनिया को रूडयार्ड किपलिंग जैसे नाम दिए तो उन असंख्य लेखकों, दार्शनिकों, लिक्खाड़ों को पैदा किया, जिनसे साहित्य-संस्कृति-अध्यात्म की भारत पहचान बनी। कुछ भी हो रविंद्र नाथ टैगोर, प्रेमचंद से लेकर महर्षि अरविंद या गांधी की अभिव्यक्ति का जरिया पत्र-पत्रिकाएं ही तो थीं। उन्हीं से किताबों का प्रसार था व जानकारियों का फैलाव था। तभी अपना मानना है पत्रकारिता ने आजादी से पहले भारत में इंटेलिजेंसिया बनाया। आजादी की चेतना बनाई। समाज में सुधार हुए। साहित्य-संस्कृति में निखार आया। उसे नया स्वरूप मिला। और आजादी के बाद? 15 अगस्त 1947 की आधी रात के अंधकार में भारत ने अपनी नियति का जो सफर शुरू किया तो उसमें बातें सब अच्छी थीं, दुनिया की श्रेष्ठ बातों लोकतंत्र, समानता, जन अधिकार के तमाम बीज मंत्र बोले-अपनाए गए लेकिन इन सबके लिए संविधान निर्माताओं ने, पंडित नेहरू ने लोगों को माई-बाप सरकार के सुपुर्द कराया। अंग्रेजों के छोड़े गए कानूनों, कार्यपालिका की बंजर-शोषक भूमि पर संविधान का वह हल चला जो कांटों, बबूल की वह खेती हुई, जिससे आजादी और जनहित सत्ता के, कारिंदों के बंधक बनते गए। देश की नियति माई-बाप सरकार के सुपुर्द हुई। नेहरू देश की नियति बने। और उन्हीं की परंपरा में हर प्रधानमंत्री देश की नियति बनता गया। देश की नियति ही जब प्रधानमंत्री और उनकी सत्ता है तब भला अखबार-पत्रकार अलग क्या सोचते? एक दूसरा मनोवैज्ञानिक कारण संपादकों-पत्रकारों को कर्तव्य से भटकाने वाला था। दरअसल आजादी के तुंरत बाद नेहरू और कांग्रेस क्योंकि आजादी दिलाने वाले थे तो शासक ही जनता और जनता ही शासक का एक ऐसा परस्पर भाईचारा था, जिससे अपनत्व था, बेबाक पत्रकारिता संभव नहीं थी। ऊपर से विभाजन, पाकिस्तान से पंगे के ऐसे संकट थे, जिसमें अखबारों, संपादकों-पत्रकारों के लिए सोचने की फुरसत नहीं थी कि उसकी नियति सत्ता व प्रधानमंत्री से नहीं बंधी है, बल्कि जनता के सुख-दुख, उसकी आजादी और सत्ता को जवाबदेह बनाने के कर्तव्य की है। बहरहाल, जो अखबार पहले अंग्रेजपरस्त थे वे आजादी के बाद तुरंत नेहरूपरस्त हुए। नेहरू अधिकांश संपादकों-मालिको के आप्तपुरूष। अंग्रेजी के आला अखबारों का रूख (रामकृष्ण डालमिया का ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अपवाद था) पेशेवर होने के बावजूद, एज मिस्टर नेहरू राइटली सेड... के भाव और भाषा में बदल गया था। तब नेहरू की हर बात सही मानी जाती थी। इस माहौल से तंग आ कर साठ के दशक में बांग्ला भद्रलोक के एक विचारमना लेखक नीरद सी चौधरी ने नेहरू सरकार को राजशाही करार दिया। उनका अंग्रेजी लेखन पैना था और नेहरू अंग्रेजीदां थे, वे पढ़ते थे तो उन्हें वे बरदाश्त नहीं हुई। कहते हैं नेहरू की नाराजगी से नीरद चौधरी की रेडियो नौकरी नहीं चली। चौधरी दिल्ली और देश के माहौल से इतने तंग आए कि ब्रिटेन जा बसे। ऐसे ही वीएस नायपाल ने साठ के दशक में भारत आ कर देखा तो कोफ्त से लिखा- दिल्ली का पूरा माहौल दरबारी है और हर कोई अपने को नेहरू के करीबी दिखना-बतलाना चाहता है। अखबार एक सा राग अलपाते हुए है। मतलब, एज मिस्टर नेहरू राइटली सेड...

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जबकि सत्य है उस समय भी भारत के लोग कम दुखी व विभाजित नहीं थे। जैसे विभाजन- खून-खराबे  से आजादी मिली उससे हिंदू खासी संख्या में सुलगे हुए थे। वह सुलगाहट गोडसे द्वारा गांधी की हत्या से जरूर कुछ दबी लेकिन पत्रकारिता और खास तौर पर आर्यसमाज की पत्र-पत्रिकाओं (तब आरएसएस के अखबार-पत्रकार लगभग नहीं थे) और लाहौर से आए मालिकों-संपादकों की लेखनी पंडित नेहरू व कांग्रेस की दबाकर आलोचना करती थी। और मालूम है ऐसी पत्र-पत्रिकाओं की संख्या कितनी थी? अंग्रेजी से ज्यादा! पर नेहरू हिंदी नहीं पढ़ते थे। हिंदी अखबारों को ले कर उनका मनोभाव संस्कृतनिष्ठ हिंदी (आर्यसमाज असर) से भी बिदका हुआ था। तथ्य है कि हिंदी पत्रकारिता की जो शुरुआत 1826 में ‘उदंत मार्तंड’ से हुई वह साहित्य, समाज सुधार के आग्रह के साथ संस्कृतनिष्ठ-खड़ी हिंदी को ले कर भी जिद्दी थी। मगर हिंदी संपादक स्वाधीनता संग्राम को लेकर मुखर थे तो समाज सुधार, साहित्य के धुनी भी। आजादी की लड़ाई के एक गढ़ लाहौर के हिंदुओं में आर्यसमाज का भारी प्रभाव था। अपना मानना है हिंदू महासभा, आरएसएस से कई गुना अधिक हिंदू चेतना की पत्रकारिता आर्यसमाज से उत्प्रेरित थी। इस हिंदी पत्रकारिता का आजादी से पहले हिंदू सरोकार था जो विभाजन के अनुभव के बाद हिंदू-मुस्लिम मुद्दे पर कांग्रेस-नेहरू के खिलाफ परिवर्तित हुआ।  मगर पंडित नेहरू की उदारता देखें। आलोचनाओं की गांठ नहीं बांधी। प्रमाण नई दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग का है। मीडिया के लिए तय सड़क पर पंडित नेहरू के राज ने कांग्रेस के ‘नेशनल हेराल्ड’, कम्युनिस्ट ‘पेट्रियॉट’, ‘लिंक’ अखबार को जमीन आवंटित की तो इनके बगल में हिंदुवादी ‘वीर अर्जुन’ व ‘प्रताप’ अखबार को और नेहरू आलोचक डालमिया के टाइम्स ग्रुप को भी जमीन आवंटित हुई। क्या आज ऐसा संभव है?  अपना मानना है कि आर्यसमाज के कारण ही आजादी से पूर्व उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के बीच हिंदी को जमाने, हिंदी में पत्र-पत्रिकाएं निकालने का काम संभव हुआ और फैला। गुरूकुल कांगड़ी से हिंदी के कई पत्रकार-संपादक निकले। सन् 1923 में दिल्ली में पहले ‘अर्जुन’ फिर ‘वीर अर्जुन’ और विभाजन के बात महाशय कृष्ण का संपादन-लेखन आर्यसमाज, हिंदुवादी संस्कारों से था। ऐसे ही गुरूकुल कागंड़ी से निकले सत्यदेव विद्यालंकार के हाथों दैनिक ‘हिंदुस्तान’ और ‘नवभारत टाइम्स’, ‘विश्वमित्र’, देशबंधु गुप्ता का ‘तेज’, फिर ‘धर्मयुग’ और ‘नवनीत’ की नींव बनी। इन पत्र-पत्रिकाओं के प्रारंभिक संपादक यदि आर्यसमाजी थे तो इनका वैचारिक तौर पर कांग्रेस और पंडित नेहरू के प्रति क्या भाव रहा होगा, इसे बूझा जा सकता है। सो, यदि आजादी के संघर्ष में तेवर (ध्यान रहे 1857 में भी दिल्ली में उर्दू का ‘पयामे-आजादी’ (बाद में वह हिंदी का) अंग्रेजों के खिलाफ यदि विद्रोही था तो 1919 में दिल्ली का ‘विजय’ और ‘प्रताप’ साप्ताहिक खालिस अंग्रेज विरोधी सियासी अखबार था, जिसके सूत्रधारों में एक गणेश शंकर विद्यार्थी भी थे। तभी आजादी पूर्व का यह सत्य नोट रहे कि भाषाई पत्र-पत्रिकाएं आजादी से पूर्व अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी थीं। उनके बहुत पीछे अंग्रेजी पत्रकारिता थी। मगर प्रभुता, सत्ता में पहुंच के नाते अंग्रेजी अखबारों का जलवा। वहीं सिलसिला आजादी के बाद भी।  नेहरू सरकार और उनके मंत्रियों में भी अंग्रेजी पढ़ी जाती थी। तभी भारत में यथास्थितिवाद, अंग्रेज की जगह काले अंग्रेजों की व्यवस्था बनवाए रखने में अंग्रेजी पत्रकारिता का एक अलग रोल रहा है। (जारी)
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