बेबाक विचार

मुग्ध और फिदा पत्रकारिता!

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मुग्ध और फिदा पत्रकारिता!
1947 से लेकर कांग्रेस के 1969 में विभाजन के 22 सालों तक भारत की पत्रकारिता फरिश्ताई प्रधानमंत्री के प्रति मुग्धता में रूटिन स्टेनो-एजेंसी छाप थी।... रिपोर्टिग, पत्रकारिता, अखबारों का मामला बेसिक खानापूर्ति, सामान्य साधनों (साइकिल-टेलीप्रिंटर,प्रेस कांफ्रेंस), सात्विक सत्यता व भलेपन का था। गांधी को गोली लगी तो रिपोर्टर शैलेंद्र दा प्रार्थना सभा में थे लेकिन वे घटना से ऐसे सन्न हुए कि वहीं बैठ रोते रहे। दफ्तर भाग कर रिपोर्ट करना भूल गए। सो, सरकार की खबर लेना नहीं, बल्कि सरकार की सूचनाएं देना पत्रकारों का काम था। independence and Indian journalism पचहत्तर साला आजादी और भारतीय पत्रकारिता-3:  भारत में पंद्रह अगस्त 1947 का सत्ता ट्रांसफर सद्भावना व सहजता में था। पंडित नेहरू और पहला सर्वदलीय आजाद कैबिनेट खुश, संतुष्ट और आत्मविश्वास में था। वैसे ही संपादक-पत्रकार-बौद्धिक वर्ग भी अभिभूत था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संसद भवन के सेंट्रल हॉल में आधी रात के इस भाषण पर सर्वत्र तालियां बजीं कि दुनिया जब सो रही है तब भारत के नए स्वतंत्र जीवन का प्रारंभ! हिंदी के महामना कवि सुमित्रानंदन पंत लिख बैठे, ‘आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन’! वहीं अखबारों ने आजादी की पहली सुबह, ‘एज मिस्टर नेहरू राइटली सेड....’ के भाव में संपादकीय विचार छापे। और वह सिलसिला मोटे तौर पर पंडित नेहरू की 1965 में मृत्यु तक रहा। नेहरू का सब सोचा, कहा और किया हुआ काम ईश्वरीय अवतार माफिक, आप्तपुरूष का अमूल्य योगदान था। भारत में नेहरू बतौर फरिश्ता पूजनीय। तभी भारत की आजादी का सफर राजा के प्रति समर्पण से शुरू था। तब नई चेतना की गुंजाइश कैसी-क्या रही होगी, इसे समझ सकते हैं। उन दिनों दिल्ली में पांच-छह अंग्रेजी-हिंदी दैनिक अखबार और छह-सात सांध्य हिंदी अखबार निकलते थे। इनमें आर्यसमाजी या हिंदू विचारों के संपादकों के अखबारों को छोड़ें तो पंडित नेहरू की मृत्यु तक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ से लेकर देवदास गांधी के संपादकत्व वाले ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में नेहरू के भाषण की किसी बात पर शायद ही कभी सवाल हुआ हो। डालमिया-बिड़लाजी के अखबारों में भी नेहरू के समाजवाद की उपयुक्तता पर बहस, आलोचना, विरोध का रिकार्ड नहीं मिलेगा। सभी नेहरूमुखी, सत्तामुखी! ऐसा किसी दबाव, डर से नहीं था, बल्कि पीछे मनोवैज्ञानिक कारण थे। संपादकों-पत्रकारों में नेहरू के प्रति श्रद्धा, मुग्धता इतनी थी कि सोचना भी संभव नहीं था कि नेहरू का विकल्प कोई है। गांधी भी कह गए थे, ’बहुत बरस जीयो और हिंद के जवाहर बने रहो (18 जनवरी 1948)’! जाहिर है वे हिंदुओं की अवतार धारणा में भगवान विष्णु के अवतारी राजा थे। इसलिए खबरपालिका सहित लोकतंत्र की सभी संस्थाएं उनकी सोच-रचना के अनुसार बनीं तो बनीं। और इसी मनोभाव के चलते पुरानी बोतल में नया संविधान रचा गया। पुरानी व्यवस्था और तंत्र में लोक आजादी को फिट किया गया।  तभी अपना मानना है कि 15 अगस्त 1947 की आधी रात भारत और भारतीयों की नियति लोगों को समर्पित-अर्पित नहीं हुई, बल्कि वह प्रधानमंत्री की कुर्सी और सत्ता को अर्पित हुई, उससे बंधी! उन दिनों दुर्गादास अंग्रेजी के एक्टिव सियासी रिपोर्टर थे (‘India From Curzon To Nehru And After’ के लेखक)। जब उन्हें गांधी द्वारा नेहरू को प्रधानमंत्री तय करने के फैसले की भनक लगी और इसकी जानकारी उन्होंने डॉ. राजेंद्र प्रसाद को दी तब उनकी प्रतिक्रिया थी, ‘गांधी ने पुनः अपने भरोसेमंद लेफ्टिनेंट को ‘ग्लैमरस नेहरू’ पर कुरबान किया’। बाद में दुर्गादास का अपने संस्मरणों की किताब में बतौर निचोड़ यह ऑब्जर्वेशन था, ‘गांधी और पटेल ने अपने लिए अपनी नियति बनाई तो देश की नियति भी; उस नियति की जवाहरलाल नेहरू पैदाइश थे; नियति ने लालबहादुर शास्त्री को दिया; फिर नियति का इंस्ट्रूमेंट इंदिरा गांधी; आगे सत्तर में पता नहीं नियति क्या करे (दुर्गादास की 1974 में मृत्यु हुई थी)’। (Gandhi and Patel carved out a destiny for themselves and the country; Jawahar Lal Nehru was the child of destiny; Lal Bahadur Shastri was thrown up by destiny; Indira Gandhi is an instrument of destiny. What that destiny is the late seventies may reveal.) जाहिर है देश का जन्म, उसकी नियति प्रधानमंत्री-सत्ता की बंधुआई में जब तयशुदा है तो क्या तो जनतंत्र और कैसे संभव स्वतंत्र, बेबाक, सच्ची पत्रकारिता? न नेहरू के वक्त संभव थी और न आज है! इस सबमें अखबार, संपादक, पत्रकार को दोषी नहीं ठहरा सकते। विचारना फालतू है कि खबरपालिका अपने बूते खुद लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनते हुए क्यों नहीं थी? इसलिए कि परिवेश ही नहीं था। आजादी से उलटे वह पत्रकारिता भी खत्म हो गई जो आजादी के संघर्ष में खिली हुई थी! पेशे, प्रोफेशन के नाते कह सकते हैं कि आजादी बाद पत्रकारिता के कुछ तामझाम बने। माना जा सकता है कि आजादी से पहले और आजादी के बाद भाषाई पत्रकारिता के मुकाबले अंग्रेजी अखबार प्रभाव के नाते प्रखर व पेशेवर थे। भाषाई पत्रकारिता जहां मिशन भाव में थी वहीं अंग्रेजी की पत्रकारिता पेशेवर ठसका लिए हुए। अंग्रेजी के संपादक-पत्रकार सियासी घटनाओं, राजनीतिक उथल-पुथल, अंदरखाने की खबर और देश-समाज की दशा कुछ बूझते हुए थे। तभी दुर्गादास के लिए ‘कर्जन से नेहरू तक’ जैसी किताब लिखना संभव हुआ। अंग्रेजी के फैंक मोरेस हो या दुर्गादास व कांग्रेस अखबार के चेलापति राव जैसे संपादक नेहरू के आभामंडल के बावजूद लेखनी की पहचान लिए हुए थे। ऐसा हिंदी संपादकों याकि संस्कृतनिष्ठ हिंदी संपादक सत्यदेव या रामगोपाल, विद्यावाचस्पति, विद्यालंकार या अक्षय कुमार जैन, रतनलाल जोशी का और उनके अखबारों का मामला नहीं था। independence and Indian journalism independence and Indian journalism कुल मिलाकर 1947 से 1965 के 17 सालों में भारत की पत्रकारिता पंडित नेहरू को समर्पित थी। उनके बाद लालबहादुर शास्त्री आए तो उनकी सरलता-सहजता के आगे अखबारों के लिए लिखने को कुछ नहीं था। तब यों भी भारत-पाकिस्तान की लड़ाई, अनाज की कमी जैसे संकटों में अखबार यह ख्याल बनाने में असमर्थ थे कि अब शुरू हो सबकी खबर लेना और देना। लालबहादुर शास्त्री के अकस्मात देहांत के बाद इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री बनीं और कांग्रेस के पुराने दिग्गजों बनाम नए नेतृत्व का राजनीतिक झगड़ा शुरू हुआ तब नई प्रधानमंत्री को गूंगी गुड़िया बूझ कर कुछ वामपंथी नेताओं-संपादकों ने उनकी राजनीति का नैरेटिव बनवाया तो वह एक परिवर्तन था। उससे खबर-आइडिया प्लांट करने का नया सिलसिला शुरू हुआ मगर मोटे तौर पर तब भी अखबारों का भाव इस किंकर्तव्यविमूढ़ता का था कि करें तो क्या करें! Read also आजादी से पहले पत्रकारिता थी निर्भीक! इसलिए 1947 से लेकर 1969 में कांग्रेस विभाजन के 22 सालों तक भारत की पत्रकारिता फरिश्ताई प्रधानमंत्री के प्रति मुग्धता में रूटिन स्टेनो-एजेंसी छाप थी। अभिव्यक्ति की आजादी का तालाब बिना हलचल के था। हां, कुछ साल बतौर अपवाद सेठ रामकृष्ण डालमिया थे। उन्होंने अजब ढंग से अचानक ‘टाइम्स आफ इंडिया’ का स्वामित्व पाया। उसके बूते वे अपने-आपको महान, नेहरू-पटेल के समतु्ल्य मानने लगे। अपने को हिंदू नेता के रूप में स्थापित करना चाहा। वे ‘इलेस्ट्रेटेड वीकली’ में अपने नाम से पत्र छपवाते, जिनमें सरदार पटेल की आलोचना के साथ बताया जाता कि आपमें सत्ता का गुमान आ गया है। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के पहले पेज पर डालमिया अपने बयान छपवा गोरक्षा की मांग करते थे। कह सकते हैं कि तब अंग्रेजी में ‘टाइम्स आफ इंडिया’ अपने मालिक के हिंदुवादी तेवर की मशाल था तो आर्यसमाज के महाशय कृष्ण आदि हिंदी में हिंदू एजेंडा लिए हुए थे।  मैंने पत्रकारिता की अपनी शुरुआत में आजादी से पहले और उसके बाद के संपादकों को पढ़ा था। दुर्गादास, फ्रैंक मोरेस के लेखों-संपादकियों को पढ़ा। मालूम हुआ कि दिल्ली के जानकार हल्कों में तब भी नेहरू बनाम पटेल की खींचतान ज्ञात थी। दुर्गादास जैसे पत्रकार सरदार पटेल के घर जा कर अंदरखाने की खबर लिया करते थे। नेहरू-राजेंद्र प्रसाद की चखचख छनकर छपती थी। इस सबके बावजूद नेहरू के प्रति मुग्धता और उनकी रीति-नीति को सटीक मानने का सौ टका विश्वास। तभी उस 22 साला वक्त में नियति उर्फ डेस्टिनी का मीडिया महज मूक दर्शक था। सन् 1980 के आसपास मेरा दिल्ली के कुछ बुजुर्ग पत्रकारों से परिचय हुआ था। एक शैलेंद्र दादा, मराठी पत्रकार न.ब. लेले, मनमोहन शर्मा, जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी जैसे बुजुर्ग लोगों से आजादी के तुरंत बाद की पत्रकारिता की जानकारी ली। जाना कि उन दिनों न साधन हुआ करते थे और न खबर खोजने का कांसेप्ट था। पत्रकार साइकिल से या पैदल नॉर्थ-साउथ ब्लॉक में प्रधानमंत्री-मंत्रियों के दफ्तर आया-जाया करते थे। संसद भवन के मुख्य दरवाजे के ठीक सामने डीटीसी बस से आना-जाना होता था। तीन मूर्ति में प्रधानमंत्री नेहरू के घर जब खबर जानना होता था तब पत्रकार साइकिल से चले जाते थे और प्रधानमंत्री-मंत्री सब से बिना सुरक्षा बाधा के मिला करते थे। सो, रिपोर्टिग, पत्रकारिता, अखबारों का मामला बेसिक खानापूर्ति, सामान्य साधनों (साइकिल-टेलीप्रिंटर, प्रेस कांफ्रेंस), सात्विक सत्यता व भलेपन का था। गांधी को गोली लगी तो रिपोर्टर शैलेंद्र दा प्रार्थना सभा में थे लेकिन वे घटना से ऐसे सन्न हुए कि वहीं बैठ रोते रहे। दफ्तर भाग कर रिपोर्ट करना भूल गए। सो, सरकार की खबर लेना नहीं, बल्कि सरकार की सूचनाएं देना पत्रकारों का काम था। ले देकर नेहरू और उनकी सरकार सूचना देती थी कि आज फलां-फलां भाषण है, काम है, दौरे हैं और फिर अगले दिन प्रधानमंत्री के भाषण के हवाले संपादकीय पेजों पर विवेचना होती थी कि ‘एज मिस्टर नेहरू राइटली सेड....’ मतलब पूरी तरह फिदा।.. सोचें 13-14 साल के बाद गलत रीति-नीति में पंडित नेहरू ने चीन से धोखा खाया, भारत उससे हारा तब भी भारत की पत्रकारिता, पत्रकारिता के बेसिक ‘क्यों’ व ‘कैसे’ में जवाब तलब करने में समर्थ नहीं थी। सभी चीन पर धोखे का ठीकरा फोड़ते हुए थे न की नेहरू और उनकी सरकार पर? तब राष्ट्रीय मीडिया में एक मर्द मीडिया मालिक व एक संपादक नहीं था सवाल करने वाला! क्या कोई था? (जारी) 
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