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सिर्फ जातियों की राजनीति

अच्छे दिन लाने के वादे वाली सरकार के नौ साल की एक सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि अब विकास के नाम पर चुनाव नहीं लड़ा जा रहा है और न उस नाम पर राजनीति हो रही है। अब राजनीति या तो जाति के नाम पर लड़ी जा रही है या मुफ्त की रेवड़ी के नाम पर। अभी कर्नाटक का चुनाव हुआ है और ध्यान नहीं आ रहा है कि किसी भी पार्टी ने विकास के नाम पर प्रचार किया है या वोट मांगा है। कर्नाटक दक्षिण भारत का सबसे बड़ी गरीब आबादी वाला प्रदेश है। वहां 14 फीसदी से ज्यादा गरीबी है। लेकिन किसी ने वह गरीबी दूर करने या बेरोजगारी दूर करने या महंगाई घटाने के वादे पर चुनाव नहीं लड़ा है। वहां भाजपा ने धर्म की राजनीति की लेकिन उसे भी जाति से जोड़ कर किया तो कांग्रेस ने खुल कर जातीय जनगणना और आरक्षण बढ़ाने का वादा करते हुए चुनाव लड़ा। राज्य की बड़ी प्रादेशिक पार्टी जेडीएस तो जाति के नाम पर ही राजनीति करती है। सो, कुल मिला कर चुनाव जाति के नाम पर हुआ।

भाजपा ने चार फीसदी मुस्लिम आरक्षण खत्म किया तो उसे दो दो फीसदी वोक्कालिगा और लिंगायत के बीच बांट दिया। हर सभा में भाजपा नेताओं ने इसका जिक्र किया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस पर तंज करते हुए कहा कि अगर वह मुस्लिम आरक्षण बहाल करगी तो क्या लिंगायत और वोक्कालिगा को दिया गया दो दो फीसदी का अतिरिक्त आरक्षण छीन लेगी? इस पर कांग्रेस ने कहा है कि छीनने की जरूरत नहीं है वह आरक्षण की सीमा को बढ़ा कर 75 फीसदी कर देगी और सबको अपनी आबादी के हिसाब से आरक्षण देगी। राहुल गांधी ने ‘जितनी आबादी, उतना हक’ का नारा दिया। भाजपा ने लिंगायत वोट का समीकरण बनाया तो कांग्रेस ने ओबीसी, मुस्लिम, दलित और थोड़े से वोक्कालिगा वोट का समीकरण बनाया। जेडीएस की पूरी राजनीति वोक्कालिगा समुदाय की है।

यह प्रवृत्ति पूरे देश में देखने को मिलेगी। उत्तर प्रदेश में हिंदू धर्म की राजनीति करते करते कब भारतीय जनता पार्टी अतिपिछड़ी जातियों, दलित और सवर्ण की राजनीति करने लगी, यह समझ में नहीं आएगा। समाजवादी पार्टी के मुस्लिम, यादव समीकरण की काट में भाजपा ने अतिपिछड़ी जातियों को उभारा। उनको उनकी अस्मिता का अहसास कराया गया। उनके महापुरुषों को खोज कर उनकी मूर्तियां बनाई गईं। उनके नाम पर शहरों और रेलवे स्टेशनों के नाम रखे गए। मायावती निष्क्रिय हुईं तो उनके दलित वोट को पटाने का काम किया गया। इस तरह राम नाम की राजनीति के साथ साथ भाजपा जातीय समीकरण बना कर चुनाव जीतने के जतन करती रही। इस मामले में उसने जाति आधारित प्रादेशिक पार्टियों को भी पीछे छोड़ दिया।

बिहार में नीतीश कुमार के अलग होने के बाद 2015 में भाजपा अकेले लड़ी थी और हार गई थी। अब फिर नीतीश अलग हो गए हैं तो भाजपा उनको हराने के लिए उन्हीं के मैदान में चुनाव लड़ रही है। नीतीश कुमार ने कुर्मी और कोईरी का लव-कुश समीकरण बनाया था। उस समीकरण को तोड़ने के लिए भाजपा कुशवाहा समुदाय को तरजीह दे रही है। सम्राट चौधरी को इस राजनीति के तहत प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। राजद और जदयू का समीकरण यादव, मुस्लिम और कुर्मी का है, जिसके मुकाबले भाजपा कुशवाहा और सवर्ण के साथ अतिपिछड़ी जातियों को जोड़ने के प्रयास कर रही है। यह एक, दो या तीन राज्य की कहानी नहीं है। 2014 के बाद से भाजपा की पूरी राजनीति जातियों को साधने की है। हरियाणा में गैर जाट मुख्यमंत्री बना कर जाट विरोधी सभी समुदायों को एकजुट करने की राजनीति हो या महाराष्ट्र में गैर मराठा बना कर और झारखंड में गैर आदिवासी बना कर अन्य जातियों को साथ लाने की राजनीति हो, भाजपा हर राज्य में सामाजिक समीकरण के नाम पर राजनीति करती है। प्रादेशिक पार्टियां पहले से जातियों की राजनीति करती हैं और अब कांग्रेस भी उस राजनीति में उतर गई है। सो, देश का विकास और 140 करोड़ लोगों के लिए सम्मान के साथ जीने की स्थितियां बनाना अब प्राथमिकता में नहीं है।

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