पता है आपको सन् 1918-20 के स्पेनिश फ्लू में असली भारत, रियल भारत में कितने करोड़ भारतीय मरे थे? कोई पौने दो करोड लोग। ब्रितानी नियंत्रित जिलों और राजे-रजवाड़ों वाले इलाकों के आंकड़ों से कुछ अस्पटता है मगर मौटे तौर पर महामारी-वायरस की सर्वाधिक मारक लहर के तीन महिनों में कोई सवा करोड भारतीयों की मौत का आंकडा है और संक्रमित जनसंख्या का हिसाब ही नहीं। गांव के गांव साफ हुए थे। ब्रितानी इलाके की आबादी का छह प्रतिशत हिस्सा उड गया। क्या वहीं कोविड़-19 की महामारी में नहीं होगा? मैं फरवरी-मार्च 2020 से लेकर लगातार लिखता रहा हूं कि महामारी, महामारी होती है, उसका अनुभव, वैज्ञानिकता और सत्य की कसौटी से सामना होना चाहिए। लेकिन मार्च 2020 से नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने वायरस को मुंबई याकि महानगरों से फैलाते-फैलते अब उसे असली भारत-ग्रामीण भारत में पहुंचा दिया है। किसी को पता नहीं कि सन् 1917-18 में गंगा-यमुना में कितनी लाशे बही थी ( रजवाड़े इलाके की नर्मदा में लाशों को बहाएं जाने की ब्रितानी सरकार की एक रिपोर्ट जरूर है) लेकिन उस वक्त के सबक में भी यह तय लगता है कि गंगा-यमुना दौआब और हिंदी भाषी प्रदेशों का ग्रामीण भारत इस वायरस में भी करोड़ों परिवारों को बेहाल करेगा।
मौटे तौर पर भारत में 36 प्रदेशों में 6 लाख 64 हजार 369 गांव (सन् 2011 जनसंख्या गणना) है। इनमें से मैं विन्ध्य के इस पार के बिहार, छतीसगढ, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, झारखंड़, मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान,उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली के कोई पांच लाख गांवों की लगभग 62 करोड आबादी पर वायरस की अधिक मार संभव मानता हूं। क्यों? एक तो इन राज्यों में प्रतिव्यक्ति ग्रामिण चिकित्सा व्यवस्था नहीं के बराबर है। दूसरे स्वंयसेवी संस्थाओं, लोगों का जागरूकता का मामला भी गौबर पट्टी वाला है। फिर मीडिया, सरकारें, और लोग झूठ ज्यादा बोलते हुए, अंधविश्वास में जीते हुए है। इसलिए महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, गोवा, तेलंगाना, तमिलनाडु में वायरस के सत्य की मुखरता के बावजूद वहां के ग्रामिण उतने बरबाद नहीं होंगे जितने विन्ध्य के इस पार होंगे। ऐसे ही उत्तर-पूर्व के छोटे प्रदेशों का ग्रामिण भारत भी अपेक्षाकृत महामारी का कायदे से सामना करते हुए दिख रहा है। केरल हो या महाराष्ट्र याकि वहां सरकारे झूठ बोलते हुए कम है, तभी वहां टेस्ट अधिक है और सरकारें संवेदनशील है। चाहे तो इसे भाजपा बनाम दूसरी पार्टियों के नेताओं-मुख्यमंत्रियों के मिजाज का फर्क मान सकते है। जरा तुलना करें विजय रूपानी और उद्धव ठाकरे की एप्रोच में!
तो उत्तर भारत के पांच लाख गांवों में अभी उत्तरप्रदेश के गांवों के, गंगा में लाशे बहने या गंगा किनारे गुपचुप दफन और लखनऊ के बाद गांवों में आक्सीजन की कमी से मरते लोगों के जो किस्से आ रहे है वैसा आगे हिंदी प्रदेशों के गांवों में सर्वत्र होना है। उस नाते विचार करें कि दिल्ली, भोपाल, लखनऊ आदि में यदि संक्रमण सौ टेस्ट में से तीस-चालीस प्रतिशत तक बना है और तेजी से आबादी को फटाफट चपेटे में लेने की वायरस ने ताकत दिखाई है तो 62 करोड ग्रामीण आबादी में यदि तीस-चालीस प्रतिशत की पोजिटिविटी रेट से लोग संक्रमित हुए तब भी आने वाले महिनों में बीस-पच्चीस करोड लोगो की सांस भी यदि ऑक्सीमीटर पर 90 से नीचे गई तो क्या होगा? कितने लोग दम तोड़ेगे, उसकी क्या यमराज भी गिनती रख सकेंगे?
सोचे उत्तरप्रदेश के एक लाख नौ हजार गांवों के कोई 17 करोड ग्रामिण लोग, बिहार के 45 हजार गांवों के साढे दस करोड लोग, बंगाल के 41 हजार गांवों के साढे सात करोड लोगों को आने वाले महिनों, अगले वर्ष (तय माने सन् 2021 से ज्यादा खराब वर्ष 2022 होगा क्योंकि असली भारत के फेफड़े तब फडफाडते हुए होंगे।) में कैसी चिंता, कैसी बीमारी, कैसी मौत से गुजरना है। महामारी के आगे इन लोगों का लावारिश जीवन गंगा में बहती लाशों से आपको अपने आप समझन लेना चाहिए। उस नाते पूरे देश के 95 करोड ग्रामिणों के असली भारत में कोविड़-19 का वायरस संक्रमण और मौत में न केवल वैश्विक रिकार्ड बनाए हुए होगा बल्कि मानवता के इतिहास का यह अमिट कंलक भी लिए हुए होगा कि 21वीं सदी की महामारी में भारत कैसा नरक था!
आप श्मशान में रोते-रोते हंसने का तराना सुन रहे है। कोई बात नहीं, वक्त आपको रूलाएगा।
गांवों में तो प्रलय!
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