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ग्रेट डिप्रेशन जैसे हालात बन रहे हैं

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ग्रेट डिप्रेशन जैसे हालात बन रहे हैं
कह सकते हैंअभी से ऐसा कहना जल्दबाजी होगी कि देश 1933 के ग्रेट डिप्रेशन यानी महान आर्थिक मंदी की तरफ बढ़ रहा है। पर हालात उसी तरफ इशारा कर रहे हैं। इस बार की मंदी 2008-11 वाली नहीं है। उस समय तो अमेरिका में मंदी आई थी, जिसका असर दुनिया पर पड़ा था। भारत उस मंदी से इसलिए बच गया था कि यहां के लोग छोटी छोटी बचतों में भरोसा करते हैं और उन्होंने अपनी बचत से तीन फीसदी विकास दर पर भी जीवन चला लिया। इस बार पूरी दुनिया में तो मंदी है कि साथ ही भारत में अलग से मंदी आई हुई है। भारत की मंदी को दुनिया के दूसरे देशों की मंदी से अलग करके देखने की जरूरत है। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो दुनिया के किसी और देश में कोरोना से पहले अर्थव्यवस्था में गिरावट का ट्रेंड नहीं था। भारत में कोरोना वायरस से पहले लगातार सात तिमाहियों में विकास दर गिरी थी और कोरोना से ठीक पहले वाली तिमाही यानी इस साल जनवरी से मार्च के बीच 3.1 फीसदी रह गई थी। उससे पहले की तिमाही यानी अक्टूबर से दिसंबर 2019 में विकास दर 4.1 फीसदी थी। यानी बिना कोरोना के तीन महीने में विकास दर एक फीसदी गिरी थी। अगली तिमाही में यह 23.9 फीसदी गिर गई। यह एक नया रिकार्ड है। पहले कभी विकास दर इतनी गिर कर मांइनस में नहीं पहुंची थी। विकास दर में करीब 24 फीसदी की गिरावट और इसके माइनस में पहुंचने का असर बहुत बड़ा होना है। इससे किस तरह का दुष्चक्र बन रहा है उसे देखेंगे तो लगेगा कि सचमुच खतरा उससे बड़ा है, जितना बताया जा रहा है। आपको याद होगा करीब दो महीने पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि अगले छह महीने में एनपीए में रिकार्ड बढ़ोतरी होगी। वह बढ़ोतरी होने लगी है और विकास दर के 24 फीसदी माइनस में जाने का सबसे बडा असर बैंकिंग सेक्टर पर पड़ने जा रहा है। मध्य वर्ग के लोग जो अब तक किसी तरह से अपने कर्ज की किस्तें भर रहे थे वे आगे अब शायद ही भर पाएंगे। सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी, सीएमआईई ने अपने ताजा आंकड़े में बताया है कि भारत में एक करोड़ 90 लाख वेतनभोगियों की नौकरी गई है। वेतनभोगी की नौकरी जाने का मतलब समझ रहे हैं न आप? ऐसे लोग, जिनके घर में हर महीने एक निश्चित रकम वेतन के रूप में आती थी और अब नहीं आएगी। जिनकी नौकरी छूटी है वे कम वेतन पर नौकरी करने को तैयार हैं पर कहीं नौकरी नहीं है। सीएमआईई ने बताया कि जून में कुछ नौकरियों के अवसर बने थे पर जुलाई में वह भी खत्म हो गया। अकेले जुलाई के महीने में 50 लाख लोगों की नौकरी जाने का अनुमान है। करीब दो करोड़ वेतनभोगियों की नौकरी जाने का मतलब है कि मध्य वर्ग का पूरा ढांचा चरमरा गया है। अब ये लोग भविष्य की चिंता में पैसे की बचत करेंगे, खर्च घटाएंगे। संभव है कि अब तक कर्ज की किस्तें चुका रहे हों पर अब नहीं चुका पाएंगे। बैंकों का एनपीए और घाटा बेतहाशा बढ़ेगा, जिसका असर नए कर्ज की संभावना और जमा पैसे के ब्याज पर पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि संकट के इस समय में सिर्फ आम लोग ही खर्च घटाना शुरू करते हैं, कंपनियां भी ऐसा ही व्यवहार करती हैं। वे भी बैंकों के कर्ज की किस्तें नहीं भरती हैं, तभी विलफुल डिफॉल्टर्स की संख्या बढ़ रही है। कंपनियां खर्च में कटौती करती हैं तो लोगों की छंटनी होती है और नए प्रोजेक्ट्स रूक जाते हैं। इसका नतीजा यह होगा कि बेरोजगारी और तेजी से बढ़ेगी। यानी बेरोजगारी बढ़ने, लोगों का काम-धंधा बंद होने, नौकरी छूटने आदि का वापस असर यह है कि बेरोजगारी और बढ़ेगी। कंपनियां छंटनी भी करेंगी और नए प्रोजेक्ट नहीं होंगे तो बहाली रूकी रहेगी। यह भयावह गरीबी आने का संकेत है। सवाल है कि जब सरकार खुद ही छंटनी कर रही है तो निजी कंपनियों से कैसे कहा जा सकता है कि वे छंटनी न करें या नई नियुक्ति करें। दुनिया के दूसरे सभ्य और विकसित देशों में सरकार ने कंपनियों को पैसा दिया ताकि वे अपने कर्मचारियों को वेतन दे सकें। य़हां केंद्र से लेकर राज्यों तक की सरकारें खुद ही वेतन देने की स्थिति में नहीं हैं तो निजी कंपनियों को क्या कहा जाए। भारत में तो वैसे भी पिछले छह साल से नौकरियां ज्यादा लोगों को नहीं मिली थीं और यह बात सरकार खुद भी मानती थी। पर सरकार का कहना था कि उसने स्वरोजगार दिया है। अब 12 करोड़ के करीब स्वरोजगार वालों का काम धंधा बंद हुआ है। सबसे बड़ा झटका लघु व मझोले उद्योगों को लगा है, जिनको मदद देने की बजाय सरकार ने कर्ज लेने के लिए प्रेरित किया। कर्ज लेने की बजाय कंपनियां अपना कामधंधा बंद कर रही हैं। कंस्ट्रक्शन के काम में 50 फीसदी और निर्माण सेक्टर में 40 फीसदी की गिरावट आई हुई है। इस तरह स्वरोजगार, संगठित क्षेत्र की नौकरियां और असंगठित क्षेत्र का कारोबार सब लगभग पूरी तरह से खत्म होने वाले हैं। आने वाले दिनों में हालात सुधरने की बजाय खराब ही होने वाले हैं क्योंकि देश में कोरोना वायरस के केसेज कम होने की बजाय अभी और बढ़ेंगे। सो, अगर इस समय भारत की स्थिति को देख कर 1933 के ग्रेट डिप्रेशन की याद आना स्वाभाविक है। ऐसे समय में सिर्फ सरकार ही मदद कर सकती है पर वह मदद करने के मूड में दिख नहीं रही है।
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