पूर्वोत्तर के तीन राज्यों- त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में चुनावों का महत्व इसलिए है क्योंकि इससे10 राज्यों के चुनावों की शुरुआत है। इसके अलावा भी इनका महत्व है क्योंकि तीनों राज्यों में भाजपा सरकार का हिस्सा है। हालांकि अब मेघालय में सत्तारूढ एनपीपी ने उसके साथ मिल कर चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान किया है लेकिन लगभग पूरे पांच साल भाजपा सरकार का हिस्सा रही है। वह भी सिर्फ दो विधायकों के दम पर। त्रिपुरा में जरूर भाजपा 2018 का चुनाव जीती थी लेकिन बाकी राज्यों में उसने तिकड़म के दम पर सरकार में जगह बनाई। नगालैंड में तो उसने ऐन मौके पर गठबंधन बदल कर टीआर जेलियांग की नगालैंड पीपुल्स फ्रंट को किनारे किया और एनडीपीपी के नेता नेफ्यू रियो के साथ सरकार में शामिल हो गई। सो, इन तीनों राज्यों का इस बार का चुनाव कई तरह के संकेत देगा।
मेघालय में भाजपा तालमेल खत्म हो गया है। दिवंगत पीए संगमा के बेटे और राज्य के मुख्यमंत्री कोनरेड संगमा ने भाजपा को किनारे किया है। उन्होंने भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष के यहां छापा मरवाया। भाजपा नेता के वेश्यालय चलाने का खुलासा हुआ और भारी मात्रा में हथियार बरामद हुए। इसके बाद दोनों पार्टियों ने अलग लड़ने का ऐलान किया। राज्य में कांग्रेस पार्टी के सारे विधायकों ने पाला बदल कर ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल का दामन थाम लिया, जिसके नेता मुकुल संगमा हैं, जिनको कांग्रेस ने लंबे समय तक मुख्यमंत्री बनाए रखा था। अब तृणमूल से विधायकों के टूट कर कोनरेड संगमा की पार्टी एनपीएफ में जाने की खबर है। जाहिर है कोनरेड संगमा अकेले दम पर बहुमत हासिल करने की राजनीति कर रहे हैं। भाजपा का प्रयास है कि उसकी सीटें दो से ज्यादा आएं। राज्य में चुनाव एनपीपी, भाजपा, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच है।
नगालैंड में सभी पार्टियां सरकार का हिस्सा हैं। एनडीपीपी के नेता नेफ्यू रियो सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं, जबकि टीआर जेलियांग की पार्टी एनपीएफ और भाजपा दोनों सरकार में शामिल हैं। वहां कोई विपक्ष नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार में शामिल सभी पार्टियां मिल कर चुनाव लड़ेंगी। संभव है कि वहां भी कोनरेड संगमा की पार्टी एनपीपी अलग लड़े, जिसे पिछली बार सात फीसदी वोट और दो सीटें मिली थीं। जनता दल को भी पिछली बार साढ़े चार फीसदी वोट और एक सीट मिली थी। कांग्रेस को आठ फीसदी वोट का नुकसान हुआ था और वह सिर्फ दो फीसदी वोट पर ठहर गई थी। लेकिन इस बार वह कुछ पार्टियों के साथ तालमेल कर सकती है। भाजपा पिछली बार 12 सीट जीत गई थी लेकिन इस बार उसके लिए रास्ता आसान नहीं है।
असम के बाद त्रिपुरा दूसरा राज्य था, जहां भाजपा अपने दम पर जीती थी। त्रिपुरा की 60 सदस्यों की विधानसभा में भाजपा ने अकेले 36 सीटें जीती थीं और उसे 43.59 फीसदी वोट मिले थे। लगातार ढाई दशक तक राज चलाने के बाद सीपीएम हार गई थी। उसे 16 सीटें मिली थीं, लेकिन वोट 42.22 फीसदी था। यानी भाजपा और सीपीएम के वोट में 1.37 फीसदी का फर्क था। भाजपा की सहयोगी आईएफपीटी को साढ़े सात फीसदी वोट मिले थे। पांच साल में त्रिपुरा में स्थितियां बदली हैं। भाजपा ने अपने नेता बिप्लब देब को मुख्यमंत्री बनाया था लेकिन कुछ दिन पहले ही उनको हटा कर कांग्रेस से आए माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाया गया है। फिर भी भाजपा और आईफपीटी के विधायकों के पार्टी छोड़ने का सिलसिला जारी है। इन दोनों पार्टियों के कुल आठ विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। दूसरी ओर सीपीएम और कांग्रेस के बीच तालमेल की घोषणा हो गई है और तिपरा मोथा से तालमेल की बात चल रही है। अगर ये तीनों पार्टियां साथ लड़ती हैं तो त्रिपुरा का नतीजा बदल सकता है। सो, तीनों राज्यों में भाजपा के लिए बहुत आदर्श स्थिति नहीं दिख रही है। छोटे ही सही लेकिन इन तीनों राज्यों में भाजपा हारती है तो उसका बड़ा मैसेज बनेगा।