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हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा होगा निर्णायक

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हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा होगा निर्णायक
नए दशक की शुरुआत आजाद भारत के इतिहास के किसी भी कालखंड के मुकाबले ज्यादा धार्मिक विभाजन के साथ शुरू हुआ है। पूरा देश इस समय नागरिकता कानून के समर्थन या विरोध में बंटा हुआ है। सरकार प्रायोजित इस बंटवारे का मकसद स्थायी ध्रुवीकरण कराना है, ताकि सत्ता स्थायी बनाई जा सके। अगले दशक में देश इस बंटवारे को और स्पष्ट और हो सकता है कि हिंसक रूप में देखे। क्योंकि अभी तो विरोध सिर्फ संशोधित नागरिकता कानून को लेकर है और सरकार कह रही है कि उसने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, एनआरसी पर विचार नहीं किया है। परंतु यह तय है कि एनआरसी आएगी और इसी दशक में आएगी। सो, सोचें जब सरकार पूरे देश में एनआरसी लागू करेगी तब क्या होगा? इसकी कल्पना दो तरह से की जा सकती है। एक तो यह कि देश के 130 करोड़ से ज्यादा लोग लाइन में लगे हों और अरबों की संख्या में दस्तावेजों का सत्यापन चल रहा है। दूसरा तरीका यह है कि सरकार राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के आधार पर कुछ करोड़ मुसलमानों को चुने और उनसे अपनी नागरिकता प्रमाणित करने का दस्तावेज जमा कराने को कहे। दोनों ही स्थितियों में देश में अराजकता पैदा होगी। हिंसक विरोध होगा और राजनीति 73 साल पहले आजादी और बंटवारे वाले दौर में लौटेगी। सरकार न तो इस देश के 20 करोड़ से ज्यादा मुसलमानों को देश से निकाल सकती है और न उनको दोयम दर्जे का नागरिक बना कर रख सकती है। भारत की संवैधानिक व्यवस्था इसकी इजाजत नहीं देती है। पर सवाल है कि अगर धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति भाजपा को पूर्ण बहुमत से सत्ता सौंपती रहती है और सरकार संविधान बदल कर ऐसी व्यवस्था बनाती है, जो हिंदू राष्ट्र की झलक देने वाली हो तो उसे कैसे रोका जा सकता है या उसका मुकाबला कैसे हो सकता है? यह कल्पना बहुत भयावह है पर निकट भविष्य में ही इसके साकार हो जाने का अंदेशा दिख रहा है कि नागरिकता कानून के विरोध में हाथ में संविधान, महात्मा गांधी, बाबा साहेब अंबेडकर की फोटो लेकर और राष्ट्रगान गाकर प्रदर्शन कर रहे मुसलमान अपनी मांग 1947 वाली बना डाले। शासन उनको इसके लिए बाध्य करे। ध्यान रहे 1898 में लाला लाजपत राय और 1912 में विनायक दामोदर सावरकर ने बहुत व्यवस्थित तरीके से बताया था कि हिंदू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं। सोचें, सावरकर को मानने वाले सत्ता में हैं और देश की मानसिकता दो राष्ट्र के सिद्धांत के अनुरूप बनाई जाती रहे तो आगे क्या होगा। यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि देश के सामूहिक अवचेतन में संकीर्णता के बीज डाले जा चुके हैं और उनका बड़ा पेड़ जाना महज वक्त की बात है। वह वक्त इस दशक में आएगा या अगले दशक में इसका पता अगले साल-दो साल की राजनीति से ही लग जाएगा।
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