दिल्ली के चुनाव नतीजों से साबित है कि धर्म की राजनीति पर भाजपा का एकाधिकार नहीं है। वैसे अब तो भाजपा जय श्रीराम के नारे नहीं लगाती है पर अरविंद केजरीवाल ने जय हनुमान का नारा देकर उसे बैकफुट पर ला दिया। दिल्ली में मतदान से ऐन पहले अरविंद केजरीवाल ने कनॉट प्लेस में स्थिति सबसे मशहूर हनुमान मंदिर में जाकर माथा टेका। उन्होंने अपने को हनुमान भक्त बताया। भाजपा से गलती यह हो गई कि उसने इस पर भी सवाल उठा दिया। भाजपा के नेताओं को लगा कि वे जैसे धार्मिक मसलों पर राहुल गांधी को बैकफुट पर ला देते हैं वैसे ही केजरीवाल को भी ला देंगे पर वह उलटा पड़ गया।
तभी नतीजों के दिन केजरीवाल और उनके नेताओं ने याद दिलाया कि नतीजा मंगलवार को आया है और यह हनुमानजी का दिन है। अपनी पार्टी कार्यालय की छत से खड़े होकर केजरीवाल ने मंगलवार और हनुमानजी का संयोग याद दिलाया और बाद में फिर हनुमान मंदिर गए। भाजपा के नेता कहते रहे कि केजरीवाल चुनावी हनुमान भक्त हैं पर दिल्ली के लोगों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। दिल्ली के लोगों ने उनकी भक्ति को सही माना और उसे स्वीकार किया। असल में केजरीवाल ने अपनी अब तक की राजनीति में कभी भी अपने को जोर देकर सेकुलर दिखाने का प्रयास नहीं किया है। शुरुआत के कुछ दिनों को छोड़ दें तो उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर निजी हमले करना भी बंद कर दिया है। सो, उन्हें आतंकवादी, मुस्लिमपरस्त या पाकिस्तानपरस्त, हिंदू विरोधी आदि साबित करने का प्रयास कामयाब नहीं होता है। भाजपा की राष्ट्रवाद की राजनीति की काट भी केजरीवाल ने खोज निकाली है। वे भाजपा से ज्यादा जोर जोर से तिरंगा लहराते हैं और भारत माता की जय व वंदे मातरम बोलते हैं। दिल्ली में उनके इन दो नारों ने भाजपा के राष्ट्रवाद के मुद्दों को कमजोर किया।
इस राजनीति को दूसरी पार्टियों ने भी समझ लिया है। ध्यान रहे नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने का फैसला किया तो ज्यादातर पार्टियों ने इसका समर्थन किया। झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी इसका समर्थन किया। तभी पिछले साल झारखंड चुनाव में यह कोई मुद्दा नहीं बन पाया। राम मंदिर बनने का भी स्वागत सारी पार्टियां कर रही हैं। तभी भाजपा के लिए इसे भी मुद्दा बनाना मुश्किल होगा। असल में प्रादेशिक पार्टियां अपने नेताओं की छवि पर खास ध्यान दे रही हैं। तभी हेमंत सोरेन भी राष्ट्रवादी और धार्मिक हो गए हैं और ममता बनर्जी भी काली भक्त हो गई हैं और राष्ट्रवादी भी। लालू प्रसाद का परिवार तो पहले से ही अपने को कृष्ण भक्ति में डूबा हुआ बताता है। तेलंगाना में चंद्रशेखर राव जैसा नेता भी मंदिरों में पांच-पांच करोड़ रुपए या सोने की मूर्तियां दान कर रहा है।
राहुल गांधी भी इसी हल्ले में शिव भक्त हो गए थे और कैलाश मानसरोवर की यात्रा भी कर आए। पर मुश्किल यह है कि उनके यहां छवि निर्माण का सुनिश्चित प्रयास नहीं होता है। उलटे उनकी पार्टी के ही कई नेता उनकी ‘पप्पू’ वाली यानी कमजोर या नासमझ नेता की छवि बनाने में लगे रहते हैं। जबकि हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। उनको सबसे पहले अपनी छवि पर ध्यान देना चाहिए। वे सहज भाव से मंदिरों में जाते हैं। उन्हें इसे जारी रखते हुए आम हिंदू मानस में इसे बैठाना चाहिए। बहरहाल, अब भाजपा को समझ में आ जाना चाहिए कि धर्म और राष्ट्रवाद की राजनीति कोई भी कर सकता है। राजनीति में लंबे समय तक चलने वाली चीज कामकाज की विरासत ही है।
हिंदू राजनीति में खत्म होता एकाधिकार
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