यह यक्ष प्रश्न की तरह है कि आखिर इतना लंबा चलने वाला, इतना बड़ा और प्रभावी किसान आंदोलन कैसे संचालित हो रहा है? कौन है, जो इसके लिए रणनीति बना रहा है और संसाधनों का बंदोबस्त कर रहा है? तमाम अच्छी मंशा के बावजूद सिर्फ मंशा से इतना बड़ा आंदोलन नहीं हो सकता है। इसमें संदेह नहीं है कि पंजाब में किसानों की लगभग पूरी फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर खरीदी जाती है। सो, इसके खत्म होने और कांट्रैक्ट फार्मिंग के नए कानून के कारण जमीन छिन जाने की आशंका से किसान घबराए हैं। इसलिए वे घरों से निकल गए और आंदोलन के लिए जी-जान लगा दिया। इस लिहाज से आंदोलन स्वंयस्फूर्त है। इसके बावजूद किसी भी स्वंयस्फूर्त आंदोलन को भी सफल बनाने के लिए बड़ी रणनीति और बड़े संसाधन की जरूरत होती है।
याद करें कैसे 2011 में दिल्ली में अन्ना हजारे का आंदोलन हुआ तो रामलीला मैदान में किस तरह से लोगों का हुजूम उमड़ा, कैसे लोग डटे रहे और किस तरह से आंदोलन का संचालन हुआ। तब भी यह सवाल उठता था कि इतने बड़े आंदोलन को कौन संचालित कर रहा है? पैसे कहां से आ रहे हैं? उस समय तक देशभक्त और देश विरोधी का नैरेटिव देश में नहीं बना था इसलिए कांग्रेस की सरकार और कांग्रेस पार्टी के नेता कहते थे कि आंदोलन के पीछे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का हाथ है या परोक्ष रूप से भाजपा आंदोलन करा रही है। सबको पता है कि अगर भाजपा उस समय इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर पाती है तो खुद ही कर लेती। खुद तो भाजपा से मनमोहन सिंह के 10 साल के राज में कोई आंदोलन नहीं हुआ।
सो, जैसे उस समय कांग्रेस अन्ना हजारे के आंदोलन को बदनाम करने के लिए उसमें संघ और भाजपा को जोड़ रही थी वैसे ही अभी भाजपा वाले चीन, पाकिस्तान, माओवादी, नक्सली, खालिस्तानी आदि सबको किसान आंदोलन से जोड़ रहे हैं। यह सही है कि अखिल भारतीय किसान सभा और सीपीएम के नेता हन्नान मुल्ला आंदोलन के रणनीतिकारों में हैं। पर वे अकेले रणनीतिकार नहीं हैं और न उनका संगठन इसमें कोई बड़ी भूमिका निभा रहा है। सो, अन्ना हजारे के आंदोलन की तरह यह भी एक स्वंयस्फूर्त आंदोलन है, जिसका संचालन दो तरह से हो रहा है।
पहला, किसान संगठनों के नेता इसकी रणनीति बना रहे हैं और संसाधनों की व्यवस्था कर रहे हैं। यह बहुत सुनियोजित तरीके से हो रहा है। पंजाब के घर-घर में लोग इस आंदोलन की जरूरत को समझ रहे हैं और हर घर से अनाज, मसालें, घी, पापड़ आदि सामान दिया जा रहा है, जिसे किसान संगठनों के लोग इकट्ठा कर रहे हैं और उसे आंदोलन की जगह तक पहुंचा रहे हैं। लोग नकद चंदा भी दे रहे हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि पंजाब में पंजीकृत हजारों की संख्या में आढ़तिए भी इसमें चंदा दे रहे हैं। सो, किसान संगठन, पंजाब के आम लोग और आढ़तियों के जरिए संसाधन जुटाए जा रहे हैं।
दूसरा पहलू ज्यादा दिलचस्प है। मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए किसान आंदोलन का ऐसा माहौल बना है, जिससे यह आजादी की लड़ाई के आंदोलन की तरह लगने लगा है। देश में और विदेश में भी इसे मिल रहे समर्थन और इसकी चर्चा ने पंजाब के युवाओं को प्रेरित किया है कि वे आंदोलन के लिए घर से निकलें। सो, अपने आप घरों से निकल कर आंदोलन में शामिल होने वाले युवाओं की संख्या बहुत बड़ी हो गई है। ऐसा ही अन्ना हजारे के आंदोलन के समय हुआ था, जब दिल्ली और आसपास के इलाकों के हजारों नौजवान बिना किसी के कहे रामलीला मैदान पहुंचते थे। उसी तरह किसान आंदोलन में भी हो रहा है। आंदोलन को किसानों ने रिले रेस में बदल दिया है। हफ्ता-दस दिन बिताने के बाद किसान लौट जा रहे हैं और उनकी जगह नए किसान आ रहे हैं। प्रदर्शन से लौट रहे लोग, जो किस्से सुना रहे हैं उसे सुन कर पंजाब और हरियाणा के नौजवान ज्यादा जोश के साथ धरने-प्रदर्शन के लिए निकल रहे हैं। इनमें से ज्यादातर लोग अपने संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
तीसरा पहलू भी है, जो भारत के नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में होने वाले या हो रहे आंदोलनों से जुड़ा है। असल में पिछले एक दशक में पूरी दुनिया में कई बड़े आंदोलन हुए हैं। ट्यूनीशिया में बौजूजी नाम के एक फल विक्रेता की हत्या के बाद शुरू हुए अरब स्प्रिंग से इसकी शुरुआत मान सकते हैं।
उसके बाद पिछले करीब एक दशक में सभी संगठनों ने, चाहे वह किसान संगठन हो, मजदूरों का संगठन हो या छात्रों का है, सबने आंदोलन के तौर-तरीके सीख लिए हैं। यह सबक अपने आप लोगों तक पहुंचा है। जैसे पिछले एक दशक में ज्यादातर आंदोलन शांतिपूर्ण रहे हैं। सरकारों ने आंदोलनकारियों पर चाहे जो हिंसा की हो पर आंदोलनकारियों ने एकाध अपवादों को छोड़ कर कहीं हिंसा नहीं की है। सो, एक सबक शांतिपूर्ण आंदोलन का है। इसे महात्मा गांधी के सत्याग्रह के मूल्यों की वापसी कह सकते हैं। इसी तरह से सभी संगठनों ने यह सीखा कि आंदोलन की जगह पीने के पानी की व्यवस्था करनी है, टायलेट होना जरूरी है, महिलाओं के लिए अलग व्यवस्था होनी चाहिए, खाने-पीने के सामानों की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए, चिकिस्ता की अस्थायी व्यवस्था जरूरी है, लंबे समय तक आंदोलन का तेवर बनाए रखने के लिए धारदार मुद्दे होने चाहिए साथ में नारे और गाने जरूर होने चाहिए, जो युवाओं को प्रेरित करें। ऊपर से सोशल मीडिया ने लोगों तक पहुंच को आसान बना दिया है। इससे भी आंदोलनों को बड़ी मदद मिली है।
भारत की हिंदी पत्रकारिता में मौलिक चिंतन, बेबाक-बेधड़क लेखन का इकलौता सशक्त नाम। मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक-बहुप्रयोगी पत्रकार और संपादक। सन् 1977 से अब तक के पत्रकारीय सफर के सर्वाधिक अनुभवी और लगातार लिखने वाले संपादक। ‘जनसत्ता’ में लेखन के साथ राजनीति की अंतरकथा, खुलासे वाले ‘गपशप’ कॉलम को 1983 में लिखना शुरू किया तो ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ में लगातार कोई चालीस साल से चला आ रहा कॉलम लेखन। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम शुरू किया तो सप्ताह में पांच दिन के सिलसिले में कोई नौ साल चला! प्रोग्राम की लोकप्रियता-तटस्थ प्रतिष्ठा थी जो 2014 में चुनाव प्रचार के प्रारंभ में नरेंद्र मोदी का सर्वप्रथम इंटरव्यू सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में था।
आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों को बारीकी-बेबाकी से कवर करते हुए हर सरकार के सच्चाई से खुलासे में हरिशंकर व्यास ने नियंताओं-सत्तावानों के इंटरव्यू, विश्लेषण और विचार लेखन के अलावा राष्ट्र, समाज, धर्म, आर्थिकी, यात्रा संस्मरण, कला, फिल्म, संगीत आदि पर जो लिखा है उनके संकलन में कई पुस्तकें जल्द प्रकाश्य।
संवाद परिक्रमा फीचर एजेंसी, ‘जनसत्ता’, ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, ‘राजनीति संवाद परिक्रमा’, ‘नया इंडिया’ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नींव से निर्माण में अहम भूमिका व लेखन-संपादन का चालीस साला कर्मयोग। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में नब्बे के दशक की एटीएन, दूरदर्शन चैनलों पर ‘कारोबारनामा’, ढेरों डॉक्यूमेंटरी के बाद इंटरनेट पर हिंदी को स्थापित करने के लिए नब्बे के दशक में भारतीय भाषाओं के बहुभाषी ‘नेटजॉल.काम’ पोर्टल की परिकल्पना और लांच।