बेबाक विचार

पहली जरूरत टेस्ट, मेडिकल इमरजेंसी फिर लॉकडाउन, धर्मादा

Share
पहली जरूरत टेस्ट, मेडिकल इमरजेंसी फिर लॉकडाउन, धर्मादा
भारत ने भारी गलती की है। उसने अपने महानगरों को झुग्गी-झोपड़ी के बाड़ों के साथ बिना टेस्ट व मेडिकल इमरजेंसी के लॉकडाउन में बंद किया है। समझें इस खबर का अर्थ कि दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक का डॉक्टर परिवारमय कोरोना पॉजिटिव मिला। सोचें कि डॉक्टर को झुग्गी-झोपड़ी के किसी बीमार से वायरस पहुंचा या उस डॉक्टर से झुग्गियों में वायरस पहुंचा होगा? और महानगरों की झुग्गी-झोपड़ियों में क्या एक-दूसरे से दूरी, सोशल डिस्टेंसिंग संभव है? एक-एक परिवार को एक झुग्गी में बंद कर झुग्गी बस्ती के भीतर सामाजिक डिस्टेंसिंग संभव ही नहीं है। न झुग्गी में बार-बार हाथ धोने के लिए पानी, नल है और न इम्यून सिस्टम को बढ़ाने वाला बाबा रामदेव का च्यवनप्राश या झुग्गी बस्ती के भीतर फिजिकल एक्टिविटी जितना स्पेस। यहीं भारत बनाम चीन, अमेरिका, इटली, स्पेन, सिंगापुर, मलेशिया का वह फर्क है, जिसकी हकीकत 21 दिन बाद भारत का संकट बढ़ाने वाली होगी। अपना तर्क था, है और रहेगा कि भारत में पहली जरूरत वायरस से लड़ने के लिए मेडिकल इमरजेंसी की है। मतलब भारत सरकार या प्रदेशों की सरकारें सभी प्राइवेट अस्पतालों, क्लीनिक, प्रैक्टिस याकि चिकित्सा-मेडिकल सुविधाओं, संसाधनों, मैनपॉवर का छह महीने के लिए टेकओवर करें। अपने कंट्रोल में सब ले और टेस्ट, ट्रेस, आईसोलेशन की विश्व स्वास्थ्य संगठन गाइडलाइन अनुसार मेडिकल प्रबंधन से आबादी का क्षेत्रवार लॉकडाउन करें! इस हककीत पर गंभीरता से विचार करें कि दिल्ली में 47 से 52 प्रतिशत आबादी झुग्गी-झोपड़ की है तो नोएडा, गाजियाबाद, गुरूग्राम सहित एनसीआर का पूरा इलाका भी कच्ची बस्तियों से भरा हुआ है। ऐसे ही ग्रेटर मुंबई में 41 प्रतिशत, बेंगलुरू में 25 प्रतिशत, चेन्नई में 26 प्रतिशत, कोलकत्ता में 31 प्रतिशत आबादी झुग्गी-झोपड़ी में रहती है। इतने लोग 21 दिन या 42 दिन या 63 दिन लगातार तालाबंदी में रहे तो कोरोना का वायरस गरीबी में दम तोड़ेगा या फैलेगा? हां, यदि दिल्ली में मोदी-केजरीवाल सरकार मिल कर दिल्ली के ही सरकारी-प्राइवेट अस्पतालों- पूरी चिकित्सा फोर्स के इलाकेवार मोर्चे बना कर टेस्ट, ट्रेस, आईसोलेशन याकि बीमार बनाम संदिग्ध बनाम स्वस्थ लोगों में छंटनी के काम से लॉकडाउन शुरू करती तो 21 दिन में कम से कम वायरस से लड़ने का मैदान तो साफ बनता। वुहान, मिलान, बार्सिलोना, न्यूयार्क, लंदन याकि चीन, इटली, स्पेन, अमेरिका, ब्रिटेन में 40-50 प्रतिशत आबादी झुग्गी-झोपड़ वाली गरीब नहीं है। वहां का लॉकडाउन सोशल डिस्टेंसिंग वाली बसावट लिए हुए है जबकि भारत में तो एक झोपड़ी में पांच लोगों को रहना ही है या सौ फीट, सौ मीटर में हजारों लोगों की सांसें टकरानी ही है। इसलिए पहली जरूरत है साथ-साथ जीने-सांस लेने वाली आबादी की सघन टेस्टिंग। उससे लोगों की छटंनी कर स्वस्थ झुग्गी परिवारों को महानगरों से बाहर अपनी-अपनी जगह जाने देना चाहिए। ताकि दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, कोलकत्ता, चेन्नई आदि महानगर अगले छह-आठ महीने-साल भर (जब तक वैक्सीन बन भारत नहीं आ जाती) पर्याप्त दूरी के साथ वायरस से लड़ते हुए रह सकें। पता नहीं यह बात क्यों नोटिस नहीं होती कि कोरोना वायरस से लड़ने के प्रचार की सभी बातें भारत के महानगरों की झुग्गी-झोपड़ रियलिटी में फिट नहीं हो रही हैं। एक झुग्गी में एक-एक मीटर दूर परिवार के लोग या बस्ती में अलग-अलग परिवार कैसे रहेंगे? जगह कहां है? बार-बार हाथ धोने का नल और पानी कहां है? साबुन-सेनिटाइजर कहां है? बुखार हुआ तो टेस्ट कहां होगा? (लॉक़डाउन है, पुलिस बाहर जाने नहीं दे रही है, फिर क्लीनिक-मोहल्ला क्लीनिक के पास टेस्ट किट कहां?) तो झुग्गी-झोपड़-कच्ची बस्ती, दिल्ली में लाल डोरा एरिया में, मुंबई में धारावी जैसी सघन आबादी में एक-एक कमरे में कई लोगों के रहने वाली सघन आबादी को अपने गांव, अपने इलाके जाने देना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। मगर टेस्ट के बाद। दलील है कि तब लोग महानगरों से यूपी- बिहार-ओड़िशा राज्यों में वायरस ले जाएंगे। इसलिए यातायात बंद करना ठीक हुआ। पर पहली बात वायरस पूरे देश में जा चुका है। दूसरे, अब लॉकडाउन में लोगों को नियंत्रित बंदोबस्तों से (मतलब झुग्गी झोपड़ के किनारे बसें खड़ी करा टेस्ट के साथ लोगों को बैठा रेल-बस स्टेशन ले जाना संभव है तो यात्रा के अंतिम मुकाम पर भी बस-रेल स्टेशन पर राज्य सरकारें बुखार चेक करके स्टेशन से बाहर निकलने की सख्ती कर सकती हैं) आने-जाने दिया जा सकता है। ले दे कर असली मुद्दा टेस्ट, ट्रेस, आईसोलेशन का है। उसकी जगह लॉकडाउन से हम समझ रहे हैं कि लड़ाई जीत लेंगे। लाकडाउन का फायदा इतना भर है और तभी है जब महानगरों, अलग-अलग इलाकों में बनने वाले एपिसेंटर के लिए आपातकालीन मेडिकल प्रबंधन कर लिए जाएं। आबादी को नियंत्रित अंदाज में महानगरों से शिफ्ट होने दिया जाए और महानगरों के स्टेडियमों, पार्कों को इमरजेंसी अस्पतालों में बदल कर तमाम चिकित्साकर्मियों को सेना की कमान में वायरस से लड़ने के महायुद्ध में झोंक दिया जाए। बेरोजगारी, आर्थिकी, गरीब के लिए धर्मादा, लंगर, खैरात बाद की जरूरत है। फिलहाल फ्री राशन नहीं लोगों को तत्काल फ्री टेस्टिंग चाहिए, अस्पताल में बेड, वेंटिलेशन, दवाई चाहिए तो चिकित्साकर्मियों को वायरस से बचाव के लिए बख्तरबंद पीपीई लिबास!
Published

और पढ़ें