पहली बार ऐसा हो रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की जरूरत बताई जा रही है और इस काम को अंजाम देने वाला कोई नेता नहीं दिख रहा है। इससे पहले गैर कांग्रेसी मोर्चे बनते थे। कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को एकजुट किया जाता था। दिलचस्प यह है कि जितनी बार कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास किया गया उतनी बार कामयाबी मिली। हर बार कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा बनाने के लिए कुछ नेता आगे आ जाते थे और उनकी पहल पर बाकी पार्टियां एकजुट हो जाती थीं। कम से कम तीन मौके ऐसे हैं, जब कांग्रेस उस समय के लिहाज से अपनी सत्ता के चरम पर थी और विपक्ष ने एकजुट होकर उसे हरा दिया। Leader of Opposition
सबसे पहले 1977 में जब जयप्रकाश नारायण ने नेतृत्व किया और विपक्ष एकजुट हुआ। उस समय तो विपक्ष की सभी पार्टियों ने अपना अस्तित्व खत्म करके खुद को जनता पार्टी में विलीन कर लिया, जिसके बारे में अटल बिहारी वाजपेयी कहते थे कि सबने अपुनी अपनी नौकाएं जला दीं और जनता पार्टी के जहाज पर सवार हो गए। उसके बाद 1989 में वीपी सिंह आए। तब भी वीपी सिंह, चंद्रशेखर और देवीलाल जैसे नेताओं की पहल पर लगभग पूरा विपक्ष एक हो गया। जो चुनाव से पहले साथ नहीं आए वे चुनाव के बाद साथ आ गए। वीपी सिंह की सरकार भाजपा और लेफ्ट दोनों ने मिल कर चलाई। उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की कमान में एनडीए बना तब भी 25 पार्टियों ने साथ आकर कांग्रेस को सत्ता से दूर रखा। नरेंद्र मोदी की कमान में भाजपा की पहली लड़ाई में भी पुराने एनडीए की ज्यादातर पार्टियां साथ में थीं।
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सोचें, तब सारे नेता दिग्गज थे, राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी थे, अखिल भारतीय पहचान वाले थे, राजनीतिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध थे और मोटे तौर पर ईमानदार थे। आज की पीढ़ी के नेताओं में इन गुणों का नितांत अभाव है और इसके बावजूद वे एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। क्या यह नेता की कमी के कारण नहीं हो रहा है? जेपी, मोरारजी की बात छोड़ें तो आज अटल बिहारी वाजपेयी या लालकृष्ण आडवाणी भी कहां हैं? क्या विपक्ष में कोई नेता ऐसा दिख रहा है जो वाजपेयी-आडवाणी की तरह गैर कांग्रेसवाद की धुरी बने और सभी पार्टियों को साथ लाए? जॉर्ज फर्नांडीज या शरद यादव की तरह सभी पार्टियों से बात करके मोर्चा बनाने वाला नेता भी कहां दिख रहा है। ज्योति बसु और चंद्रबाबू नायडू की तरह स्वीकार्यता वाला नेता भी कोई नहीं दिख रहा है। आज विपक्ष के किस नेता में हरकिशन सिंह सुरजीत की छवि दिख रही है? यहां तक कि लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव जैसा नेता भी कहां दिख रहा है।
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जितने दिग्गज नेताओं का नाम ऊपर लिखा है, उनमें से ज्यादातर नेता ऐसे थे, जिनका सार्वजनिक जीवन बेदाग था। दो-तीन नेताओं पर लगे आरोपों को छोड़ दें तो बाकी लोग भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त थे। इसलिए वे खुल कर सत्ता को चुनौती दे सकते थे। सत्ता भी ऐसी थी, जो राजनीतिक विरोध को निजी दुश्मनी नहीं मानती थी और विपक्ष के नेताओं को झूठे-सच्चे आरोपों से बदनाम करके उनकी साख खराब करने का काम नहीं करती थी। इंदिरा गांधी ने नेताओं को गिरफ्तार किया था लेकिन सब राजनीतिक आरोपों में पकड़े गए थे और छूटे तो जनता ने सबका स्वागत किया। इसके उलट आज लगभग पूरा विपक्ष भ्रष्टाचार के झूठे-सच्चे आरोपों से घिरा है। ऐसा नहीं है कि सारे आरोप नरेंद्र मोदी की सरकार ने लगाए हैं। कुछ नेताओं पर पहले से आरोप लगे हैं, नरेंद्र मोदी की सरकार ने इतना किया है कि उसने आरोपों को राजनीतिक हथियार बना लिया है। बाकी बचे हुए नेताओं पर नए आरोप लगा दिए गए और कार्रवाई शुरू कर दी गई। किसी विपक्षी पार्टी का नाम लीजिए और आपको पता चलेगा कि उसके शीर्ष नेता से लेकर दूसरी, तीसरी श्रेणी के नेताओं पर भी आरोप हैं और उनके ऊपर केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई चल रही है।
किसी नेता के खिलाफ अगर कोई आरोप नहीं है या ऐसा लग रहा है कि सीधे उसको टारगेट करना राजनीतिक रूप से नुकसानदेह हो सकता है तो उसके करीबियों और रिश्तेदारों को निशाना बनाया जा रहा है। जैसे उद्धव ठाकरे हिंदुत्व का चेहरा हैं उन पर हमला ठीक नही है तो उनके साले की संपत्ति जब्त हो गई। चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब की दलित राजनीति का प्रतीक बने तो उनकी बजाय उनके भांजे के यहां छापा पड़ गया और नकदी पकड़ कर उसे जेल में डाल दिया गया। सो, किसी न किसी तरह से हर विपक्षी पार्टी के नेता की घेराबंदी हो गई। एकाध अपवादों को छोड़ कर किसी में पुराने नेताओं की तरह नैतिक बल नहीं है कि सत्ता को चुनौती दें और न त्याग की भावना है कि अपनी महत्वाकांक्षा छोड़ कर विपक्ष को एकजुट बनाएं।