बेबाक विचार

उफ! विपक्ष का रूमानीपना

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उफ! विपक्ष का रूमानीपना
तमाम सेकुलर खुश हैं। विपक्ष के सभी नेता विरोध-आंदोलन की फुटेज, नैरेटिव से बम-बम हैं। ये सब मुगालते में हैं कि मोदी-शाह के खिलाफ माहौल बन रहा है। जाहिर है विपक्ष में यह तनिक भी विचार नहीं हुआ है कि गृह मंत्री अमित शाह तीन तलाक, अनुच्छेद 370, अयोध्या में मंदिर, नागरिकता कानून में संशोधन और एनआरसी के काम को एक-एक कर आगे बढ़ा रहे है तो ऐसा किसी रोडमैप, सियासी शतरंज में ही हो रहा होगा और इसका राजनैतिक अर्थ क्या है? क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि क्यों अमित शाह लगातार वह कर रहे हैं, जिसमें प्रत्यक्ष-परोक्ष हिंदू बनाम मुसलमान बहस, विवाद, नैरेटिव और चिंता सतत पकती जाए! हिसाब से यह सब ढर्रे में है। यहीं मोदी-शाह की मूल पूंजी है। कांग्रेस-लेफ्ट-सेकुलर सबको सन् 2014 से पहले के अनुभव से समझा हुआ होना था कि नरेंद्र मोदी का ग्राफ तब बनता जाता है जब हिंदू बनाम मुस्लिम चलता रहता है। जब दंगा, झगड़ा और मुसलमानों के साथ भेदभाव का हल्ला हो। इसे न समझ पाना विपक्ष का वह रूमानीपना है, जिसमें आज के भारत को वह सन् 2014 से पहले वाला समझे हुए है। मतलब हम सन् 2014 से पहले वाले लोकतंत्र में, उसकी सेकुलर तासीर में जी रहे हैं! भारत के हिंदू पहले जैसे ही हैं। सुप्रीम कोर्ट पहले जैसा है। मीडिया पहले जैसा है। राजनीति पहले जैसी है। समाज पहले जैसा है! इसलिए सड़कों पर आंदोलन करती भीड़ देश में नई हवा है और सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं डालेंगे तो सरकार के खिलाफ फैसले होंगे। ऐसी खामोख्याली, रूमानी सोच के ही चलते आश्चर्य नहीं जो नागरिकता संशोधन बिल का पूर्वोत्तर में सहज-नैसर्गिक विरोध हुआ तो कांग्रेस, लेफ्ट, ममता, मायावती आदि में ऐसा जोश भरा मानो बह्मास्त्र मिल गया हो। कांग्रेस ने देश बचाओ रैली कर डाली। ऐसे ही इससे ठीक पहले हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों ने भी विपक्ष में यह खामोख्याली बनाई कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह का वोट जादू घटने लगा है। तय मानें कि यदि झारखंड और दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा का कमजोर प्रदर्शन हुआ तब भी विपक्ष अपने दिन फिरते हुए समझेगा। ऐसे सोचना सन् 2014 से पहले के लोकतंत्र में ठीक था। उस लोकतंत्र में मीडिया अपनी असली जिम्मेदारी में था। अदालतें कर्तव्य निर्वहन करते हुए थीं। संस्थाएं याकि चुनाव आयोग, सीवीसी, सीएजी से ले कर सिविल सोसायटी, एनजीओ सब जिंदा थे। आर्थिकी जिंदा थी, उद्योगपति-कारोबारी-पेशेवरों-बाबाओं में बोलने की हिम्मत थी। जिंदा लोकतंत्र में जिंदादिली को पंख लगे हुए थे। पर क्या 2014 से पहले वाला लोकतंत्र, जिंदादिली आज है? क्या एक सौ तीस करोड़ लोग और उनमें भी बहुसंख्यक आबादी वैसे सोचती है जैसे 2014 से पहले सोचती थी? वैसा नहीं है और बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक सभी का रूख व दिमागी खांचा बदल गया है तो विपक्ष लाख सिर पीट ले वह जंतर-मंतर पर 2014 से पहले जैसा माहौल बना नहीं सकता है। 2012-13 के वक्त में लोकतंत्र-राजनीति सचमुच आजादी से लबालब भरी हुई थी, तब देश और दुनिया में सभ्य-भले डा. मनमोहन सिंह का राज था और आज राज उन नरेंद्र मोदी-अमित शाह का राज है, उन योगी आदित्यनाथ का है, जिनको देखने का दुनिया का चश्मा भी अलग बना हुआ है। और इस बात को, इस हकीकत को विपक्ष द्वारा बूझ नहीं पाना, तात्कालिक उबाल को हवा समझ लेना भारत की मौजूदा राजनीति की सबसे बड़ी नासमझी है।
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